गुरु का महत्व-संत कबीरदास (LESSON PLAN)
गुरु का महत्व
(संत कबीरदास)
कवि परिचय:- (जन्म 1399- मृत्य
1495)
कबीर एक संत एवं समाज सुधारक थे। महात्मा “कबीरदास”
भक्तिकाल की निर्गुणभक्ति धारा के “ज्ञानाश्रयी शाखा” के कवियों मे सबसे अधिक
महत्वपूर्ण है। आप हिन्दी के सर्वप्रथम “रहस्यवादी” कवि भी है। आपका जीवन चरित्र
अत्यंत विवादास्पद है। फिर भी यह मानी हुई बात है कि आपका जन्म हिंदु विधवा ब्राह्मणी
के गर्भ से हुआ था। और आपका पालन-पोषण मुसलमान जुलाहा दंपति ने किया। फिर भी
इन्होंने “हिंदु-मुसलिम-ऐक्यविधायक” बने। इन्होंने दोनों धर्मों के बाह्याडंबरों
और दुराचारों का खण्डन किया था। वे अनपढ थे। उन्होंने खूब देशाटन किया था। वे
स्वयं आत्मज्ञानी थे। इनके गुरु का नाम “रामानंद” माना गया था। “धर्मदास” इनके
प्रधान शिष्य थे।
कबीर की ग्रंथ “बीजक” है। आप करघे पर काम करते
हुए बोलते जाते थे। आपके शिष्यों ने आपके वचनों को संगृहित करके एक ग्रंथ लिखा था।
उस ग्रंथ का नाम बीजक है। इसमें “साखी, सबद, रमैनी” तीन भाग हैं। उनकी भाषा “सधुक्कडी”
या “खिचडी” कही जाती हैं। कबीरदास के अनेक रुप हैं। वे भक्त, प्रेम, ज्ञानी और
समाज सुधारक।
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ गढ काढै
खोट।
अंतर
हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।