शनिवार, 27 अप्रैल 2024

अंबा और भीष्म | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi

महाभारत कथा
अंबा और भीष्म

सत्यवती के पुत्र चित्रांगद बड़े ही वीर, परंतु स्वेच्छाचारी थे। एक बार किसी गंधर्व के साथ युद्ध हुआ. उसमें वह मारे गए। उनके कोई पुत्र न था, इसलिए उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य हस्तिनापुर की राजगद्दी पर बैठे। विचित्रवीर्य की आयु उस समय बहुत छोटी थी, इस कारण उनके बालिग होने तक राज-काज भीष्म को ही सँभालना पड़ा।

जब विचित्रवीर्य विवाह के योग्य हुए, तो भीष्म को उनके विवाह की चिंता हुई। उन्हें खबर लगी कि काशिराज की कन्याओं का स्वयंवर होनेवाला है। यह जानकर भीष्म बड़े खुश हुए और स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए काशी रवाना हो गए।

देश-विदेश के अनेक राजकुमार उस स्वयंवर में भाग लेने के लिए आए थे। राजपुत्रियों को पाने के लिए आपस में बड़ी स्पर्धा थी।

क्षत्रियों में भीष्म की प्रतिज्ञा की प्रतिष्ठा अद्वितीय थी। उनके महान त्याग और भीषण प्रतिज्ञा का हाल सब जानते थे। इसलिए जब वह स्वयंवर-मंडप में प्रविष्ट हुए, तो राजकुमारों ने सोचा कि वह सिर्फ़ स्वयंवर देखने के लिए आए होंगे। परंतु जब स्वयंवर में सम्मिलित होनेवालों में भीष्म ने भी अपना नाम दिया, तो अन्य कुमारों को निराश होना पड़ा। उनको क्या पता था कि दृढ़व्रती भीष्म अपने लिए नहीं, वरन् अपने भाई के लिए स्वयंवर में सम्मिलित हुए हैं।

सभा में खलबली मच गई। चारों ओर से भीष्म पर फब्तियाँ कसी जाने लगीं- "माना कि भरतवंशी भीष्म बड़े बुद्धिमान और विद्वान हैं, स्वयंवर से इन्हें क्या मतलब? इनके प्रण का क्या हुआ? जीवनभर ब्रह्मचारी रहने की इन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, क्या वह झूठी थी?" इस भाँति सब राजकुमारों ने भीष्म की हँसी उड़ाई, यहाँ तक कि काशिराज की कन्याओं ने भी भीष्म की तरफ़ से दृष्टि फेर ली और उनकी अवहेलना-सी करके आगे की ओर चल दीं।

भीष्म इस अवहेलना को सह न सके। उन्होंने सभी राजकुमारों को हराकर तीनों राजकन्याओं को बलपूर्वक रथ पर बैठा लिया और हस्तिनापुर को चल दिए। सौभदेश का राजा शाल्व बड़ा वीर था। काशिराज की सबसे बड़ी कन्या अंबा उस पर अनुरुक्त थी और उसको मन-ही-मन अपना पति मान चुकी थी। शाल्व ने भीष्म के रथ का पीछा किया और उसको रोकने का प्रयत्न किया। इस पर भीष्म और शाल्व के बीच घोर युद्ध छिड़ गया। भीष्म ने उसे हरा दिया, किंतु काशिराज की कन्याओं की प्रार्थना पर उसे जीवित ही छोड़ दिया।

भीष्म काशिराज की कन्याओं को लेकर हस्तिनापुर पहुँचे। विचित्रवीर्य के विवाह की सारी तैयारी हो जाने के बाद जब कन्याओं को विवाह-मंडप में ले जाने का समय आया, तो काशिराज की बड़ी बेटी अंबा एकांत में भीष्म से बोली-"गांगेय, मैंने अपने मन में सौभदेश के राजा शाल्व को अपना पति मान लिया था। इसी बीच आप मुझे बलपूर्वक यहाँ ले आए। मेरे मन की बात जानने के बाद आप मेरे बारे में अब जो उचित समझें, करें।"

भीष्म को अंबा की बात थी। उन्होंने अंबा को उसकी इच्छानुसार उचित प्रबंध के साथ शाल्व के पास भेज दिया और अंबा की दोनों बहनों-अंबिका और अंबालिकाका विचित्रवीर्य के साथ विवाह करा दिया।

अंबा अपने मनोनीत बर सीभराज शाल्व के पास गई और सारा वृतांत कह सुनाया। उसने कहा-"राजना में आपको ही अपना पति मान चुकी हैं। मेरे अनुरोध से भीष्म ने मुझे आपके पास भेजा है। आप मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर लो"

पर शाल्व न माना। उसने अंबा से कहा "सारे राजकुमारों के सामने भीष्म ने मुझे युद्ध में पराजित किया और तुम्हें बलपूर्वक हरण करके ले गए। इतने बड़े अपमान के बाद मैं तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। तुम्हारे लिए अब उचित यही है कि तुम भीष्म के पास जाओ और उनकी सलाह के मुताबिक ही काम करो।"

बेचारी अंबा हस्तिनापुर लौट आई और भीष्म को सारा हाल कह सुनाया। उन्होंने विचित्रवीर्य से कहा-"वत्स, राजा शाल्व अंबा को स्वीकार नहीं करता। इससे विदित होता है कि उसकी इच्छा अंबा को पत्नी बनाने की नहीं थी। अब उसके साथ तुम्हारा ब्याह करने में कोई आपत्ति नहीं रही है।" पर विचित्रवीर्य अंबा के साथ ब्याह करने को राजी न हुए।

बेचारी अंबा न इधर की रही, न उधर की। कोई और रास्ता न देख वह भीष्म से बोली- "गांगेय, मैं तो दोनों ओर से ही गई। मेरा कोई भी सहारा न रहा। आप ही मुझे हर लाए थे, अतः अब आपका यह कर्तव्य है कि आप मेरे साथ ब्याह कर लें।"

भीष्म ने उसकी बात ध्यान से सुनी और अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर बोले "अपनी प्रतिज्ञा तो मैं नहीं तोड़ सकता।" उन्होंने अंबा की परिस्थिति समझकर विचित्रवीर्य से दोबारा आग्रह किया, पर वह न माना। भीष्म ने अंबा को फिर समझाया और कहा कि सौभराज शाल्व के ही पास जाओ और एक बार फिर प्रार्थना करो। लाचार अंबा फिर शाल्व के पास गई और उसकी बहुत मिन्नतें कीं, लेकिन दूसरे की जीती हुई कन्या को स्वीकार करने से सौभराज ने साफ़ इंकार कर दिया। अंबा इस प्रकार छह साल तक हस्तिनापुर और सौभदेश के बीच ठोकरें खाती फिरी। उसने अपने इस सारे दुख का कारण भीष्म को ही समझा। उन पर उसे बहुत क्रोध आया और प्रतिहिंसा की आग उसके मन में जलने लगी।

भीष्म से बदला लेने की इच्छा से वह कई राजाओं के पास गई और उनको अपना दुखड़ा सुनाया। भीष्म से युद्ध करके उनका वध करने की उसने राजाओं से प्रार्थना की, पर राजा लोग तो भीष्म के नाम से ही डरते थे। किसी में इतना साहस न था कि भीष्म से युद्ध करे। क्षत्रियों से एकदम निराश होकर अंबा ने तपस्वी ब्राह्मणों की शरण ली। तपस्वियों कहा – “बेटी, तुम परशुराम के पास जाओ। वे तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।" तब ऋषियों की सलाह पर अंबा परशुराम के पास गई।

अंबा की करुण कहानी सुनकर परशुराम का हृदय पिघल गया। उन्होंने दयार्द्र स्वर में कहा- "काशिराज-कन्ये, तुम मुझसे क्या चाहती हो?"

अंबा ने कहा-"ब्राह्मण-वीर, मेरी प्रार्थना केवल यही है कि आप भीष्म से युद्ध करें। मैं आपसे भीष्म के वध की भीख माँगती हूँ।"

परशुराम को अंबा की प्रार्थना पसंद आई। बड़े उत्साह के साथ वह भीष्म के पास गए और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। दोनों कुशल योद्धा थे और धनुष-विद्या के जानकार भी। दोनों ही जितेंद्रिय और ब्रह्मचारी थे। समान योद्धाओं की टक्कर थी। कई दिनों तक युद्ध होता रहा, फिर भी हार-जीत का निश्चय न हो सका। अंत में परशुराम ने हार मान ली और उन्होंने अंबा से कहा- "जो कुछ मेरे वश में था, कर चुका। अब तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम भीष्म ही की शरण लो।"

पर अंबा ऐसी बातों से कब विचलित होनेवाली थी? उसने वन में जाकर फिर तपस्या शुरू की और तपोबल से स्त्री-रूप छोड़कर पुरुष बन गई और उसने अपना नाम शिखंडी रख लिया।

जब कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध हुआ, तो भीष्म के विरुद्ध लड़ते समय शिखंडी रथ के आगे बैठा था और अर्जुन ठीक उसके पीछे। ज्ञानी भीष्म को यह बात मालूम थी कि अंबा ही शिखंडी का रूप धारण किए हुए है। इसलिए उन्होंने उस पर बाण चलाना अपनी वीरोचित प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा। शिखंडी को आगे करके अर्जुन ने भीष्म पितामह पर हमला किया और अंत में उन पर विजय प्राप्त की। जब भीष्म आहत होकर पृथ्वी पर गिरे, तब जाकर अंबा का क्रोध शांत हुआ।

भीष्म - प्रतिज्ञा | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi

महाभारत कथा
भीष्म - प्रतिज्ञा



तेजस्वी पुत्र को पाकर राजा प्रफुल्लित मन से नगर को लौटे और देवव्रत राजकुमार के पद को सुशोभित करने लगे।

चार वर्ष और बीत गए। एक दिन राजा शांतनु यमुना-तट की ओर घूमने गए, तो वहाँ अप्सरा-सी सुंदर एक तरुणी खड़ी दिखाई दी। तरुणी का नाम सत्यवती था।

गंगा के वियोग के कारण राजा के मन में जो विराग छाया हुआ था, वह इस तरुणी को देखते ही विलीन हो गया। उस सुंदरी को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा उनके मन में बलवती हो उठी और उन्होंने सत्यवती से प्रेम-याचना की। सत्यवती बोली- "मेरे पिता मल्लाहों के सरदार हैं। पहले उनकी अनुमति ले लीजिए। फिर मैं आपकी पत्नी बनने को तैयार हूँ।"

राजा शांतनु ने जब अपनी इच्छा उन पर प्रकट की, तो केवटराज ने कहा- "आपको मुझे एक वचन देना पड़ेगा।"

राजा ने कहा- "जो माँगोगे दूँगा, यदि वह मेरे लिए अनुचित न हो।"

केवटराज बोले-“आपके बाद हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर मेरी लड़की का पुत्र बैठेगा, इस बात का आप मुझे वचन दे सकते हैं?"

केवटराज की शर्त राजा शांतनु को नागवार लगी। गंगा-सुत को छोड़कर अन्य किसी को राजगद्दी पर बैठाने की कल्पना तक उनसे न हो सकी। निराश और उद्विग्न मन से वह नगर की ओर लौट आए। किसी से कुछ कह भी न सके पर चिंता उनके मन को कीड़े की तरह कुतर-कुतरकर खाने लगी।

देवव्रत ने देखा कि उसके पिता के मन में कोई-न-कोई व्यथा समाई हुई है। एक दिन उसने शांतनु से पूछा- "पिता जी, संसार का कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जो आपको प्राप्त न हो, फिर भी इधर कुछ दिनों से आप दुखी दिखाई दे रहे हैं। आपको किस बात की चिंता है?"

यद्यपि शांतनु ने गोलमोल बातें बताई, फिर भी कुशाग्र बुद्धि देवव्रत को बात समझते देर न लगी। उन्होंने राजा के सारथी से पूछताछ करके, उस दिन केवटराज से यमुना नदी के किनारे जो कुछ बातें हुई थीं, उनका पता लगा लिया। पिता जी के मन की व्यथा जानकर देवव्रत सीधे केवटराज के पास गए और उनसे कहा कि वह अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह महाराज शांतनु से कर दें।

केवटराज ने वही शर्त दोहराई, जो उन्होंने शांतनु के सामने रखी थी।

देवव्रत ने कहा- "यदि तुम्हारी आपत्ति का कारण यही है, तो मैं वचन देता हूँ कि मैं राज्य का लोभ नहीं करूँगा। सत्यवती का पुत्र ही मेरे पिता के बाद राजा बनेगा।"

केवटराज इससे संतुष्ट न हुए। उन्होंने और दूर की सोची। बोले-"आर्यपुत्र, इस बात का मुझे पूरा भरोसा है कि आप अपने वचन पर अटल रहेंगे, किंतु आपकी संतान से मैं वैसी आशा कैसे रख सकता हूँ? आप जैसे वीर का पुत्र भी तो वीर ही होगा। बहुत संभव है कि वह मेरे नाती से राज्य छीनने का प्रयत्न करे। इसके लिए आपके पास क्या उत्तर है?"

केवटराज का प्रश्न अप्रत्याशित था। उसे संतुष्ट करने का यही अर्थ हो सकता था कि देवव्रत अपने भविष्य का भी बलिदान कर दें, किंतु पितृभक्त देवव्रत इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। गंभीर स्वर में उन्होंने यह कहा- "मैं जीवनभर विवाह नहीं करूँगा! आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा! मेरे संतान ही न होगी! अब तो तुम संतुष्ट हो?"

किसी को आशा न थी कि तरुण कुमार ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करेंगे। देवव्रत ने भयंकर प्रतिज्ञा की थी, इसलिए उस दिन से उनका नाम ही भीष्म पड़ गया। केवटराज ने सानंद अपनी पुत्री को देवव्रत के साथ विदा किया।

सत्यवती से शांतनु के दो पुत्र हुए-चित्रांगद और विचित्रवीर्य। शांतनु के देहावसान पर चित्रांगद हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे और उनके युद्ध में मारे जाने पर विचित्रवीर्य। विचित्रवीर्य की दो रानियाँ थीं-अंबिका और अंबालिका। अंबिका के पुत्र थे धृतराष्ट्र और अंबालिका के पांडु। धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पांडु के पांडव।

महात्मा भीष्म, शांतनु के बाद से कुरुक्षेत्र-युद्ध का अंत होने तक उस विशाल राजवंश के सामान्य कुलनायक और पूज्य बने रहे। शांतनु के बाद कुरुवंश का क्रम यह रहा-

शांतनु (दो रानियाँ)

1. गंगा से - देवव्रत

2. सत्यवती से – चित्रांगद, विचित्रवीर्य

विचित्रवीर्य - (दो रानियाँ)

1. अंबिका से – धृतराष्ट्र (कौरव)

2. अंबालिका से – पांडु (पांडव)

देवव्रत | Devvrat | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi | भीष्म पितामह

महाभारत कथा
देवव्रत



गंगा एक सुंदर युवती का रूप धारण किए नदी के तट पर खड़ी थी, उनके सौंदर्य और नवयौवन ने राजा शांतनु को मोह लिया था।

गंगा बोली, “राजन्! आपकी पत्नी होना मुझे स्वीकार है, पर इससे पहले आपको मेरी शर्तें माननी होंगी। क्या आप मानेंगे?"

राजा ने कहा- "अवश्य!"

राजा शांतनु ने गंगा की सारी शर्तें मान लीं और वचन दिया कि वह उनका पूर्ण रूप से पालन करेंगे।

समय पाकर गंगा से शांतनु के कई तेजस्वी पुत्र हुए, परंतु गंगा ने उनको जीने नहीं दिया। बच्चे के पैदा होते ही वह उसे नदी की बहती हुई धारा में फेंक देती थी और फिर हँसती-मुसकराती राजा शांतनु के महल में आ जाती थी।

अज्ञात सुंदरी के इस व्यवहार से राजा शांतनु चकित रह जाते। उनके आश्चर्य और क्षोभ का पारावार न रहता। शांतनु वचन दे चुके थे, इस कारण मन मसोसकर रह जाते थे।

सात बच्चों को गंगा ने इसी भाँति नदी की धारा में बहा दिया। आठवाँ बच्चा पैदा हुआ। गंगा उसे भी लेकर नदी की तरफ़ जाने लगी, तो शांतनु से न रहा गया। बोले - "माँ होकर अपने नादान बच्चों को अकारण ही क्यों मार दिया करती हो? यह घृणित व्यवहार तुम्हें शोभा नहीं देता है।"

राजा की बात सुनकर गंगा मन-ही-मन मुसकराई, परंतु क्रोध का अभिनय करती हुई बोली- "राजन्! क्या आप अपना वचन भूल गए हैं? मालूम होता है कि आपको पुत्र से ही मतलब है, मुझसे नहीं। आपको मेरी क्या परवाह है! ठीक है, पर शर्त के अनुसार मैं अब नहीं ठहर सकती। हाँ, आपके इस पुत्र को मैं नदी में नहीं फेंकूँगी। इस अंतिम बालक को मैं कुछ दिन पालूँगी और फिर पुरस्कार के रूप में आपको सौंप दूंगी।"

यह कहकर गंगा बच्चे को साथ लेकर चली गई। यही बच्चा आगे चलकर भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।

गंगा के चले जाने से राजा शांतनु का मन विरक्त हो गया। उन्होंने भोग विलास से जी हटा लिया और राज-काज में मन लगाने लगे।

एक दिन राजा शिकार खेलते-खेलते गंगा के तट पर चले गए, तो देखा किनारे पर खड़ा एक सुंदर और गठीला युवक गंगा की बहती हुई धारा पर बाण चला रहा था। बाणों की बौछार से गंगा की प्रचंड धारा एकदम रुकी हुई थी। यह दृश्य देखकर शांतनु दंग रह गए।

इतने में ही राजा के सामने स्वयं गंगा आकर उपस्थित हो गई। गंगा ने युवक को अपने पास बुलाया और राजा से बोली - "राजन्, पहचाना मुझे और इस युवक को? यही आपका और मेरा आठवाँ पुत्र देवव्रत है। महर्षि वसिष्ठ ने इसे शिक्षा दी है। शास्त्र-ज्ञान में शुक्राचार्य और रण-कौशल में परशुराम ही इसका मुकाबला कर सकते हैं। यह जितना कुशल योद्धा है, उतना ही चतुर राजनीतिज्ञ भी है। आपका पुत्र में आपको सौंप रही हैं। अब ले जाइए इसे अपने साथ।"

गंगा ने देवव्रत का माथा चूमा और आशीर्वाद देकर राजा के साथ उसे विदा कर दिया।
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महाभारत कथा



महाभारत की कथा महर्षि पराशर के कीर्तिमान पुत्र वेद व्यास की देन है। व्यास जी ने महाभारत की यह कथा सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव को कंठस्थ कराई थी और बाद में अपने दूसरे शिष्यों को। मानव जाति में महाभारत की कथा का प्रसार महर्षि वैशंपायन के द्वारा हुआ। वैशंपायन व्यास जी के प्रमुख शिष्य थे। ऐसा माना जाता है कि महाराजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने एक बड़ा यज्ञ किया। इस महायज्ञ में सुप्रसिद्ध पौराणिक सूत जी भी मौजूद थे। सूत जी ने समस्त ऋषियों की एक सभा बुलाई। महर्षि शौनक इस सभा के अध्यक्ष हुए।

सूत जी ने ऋषियों की सभा में महाभारत की कथा प्रारंभ की कि महाराजा शांतनु के बाद उनके पुत्र चित्रांगद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। उनकी अकाल मृत्यु हो जाने पर उनके भाई विचित्रवीर्य राजा हुए। उनके दो पुत्र हुए धृतराष्ट्र और पांडु। बड़े बेटे धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, इसलिए उस समय की नीति के अनुसार पांडु को गद्दी पर बैठाया गया।

पांडु ने कई वर्षों तक राज्य किया। उनकी दो रानियाँ थीं - कुंती और माद्री। कुछ समय राज्य करने के बाद पांडु अपने किसी अपराध के प्रायश्चित के लिए तपस्या करने जंगल में गए। उनकी दोनों रानियाँ भी उनके साथ ही गईं। वनवास के समय कुंती और माद्री ने पाँच पांडवों को जन्म दिया। कुछ समय बाद पांडु की मृत्यु हो गई। पाँचों अनाथ बच्चों का वन के ऋषि-मुनियों ने पालन-पोषण किया और पढ़ाया-लिखाया। जब युधिष्ठिर सोलह वर्ष के हुए, तो ऋषियों ने पाँचों कुमारों को हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म को सौंप दिया।

पाँचों पांडव बुद्धि से तेज़ और शरीर से बली थे। उनकी प्रखर बुद्धि और मधुर स्वभाव ने सबको मोह लिया था। यह देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव उनसे जलने लगे और उन्होंने पांडवों को तरह-तरह से कष्ट पहुँचाना शुरू किया।

दिन-पर-दिन कौरवों और पांडवों के बीच वैरभाव बढ़ता गया। अंत में पितामह भीष्म ने दोनों को किसी तरह समझाया और उनके बीच संधि कराई। भीष्म के आदेशानुसार कुरु-राज्य के दो हिस्से किए गए। कौरव हस्तिनापुर में ही राज करते रहे और पांडवों को एक अलग राज्य दे दिया गया, जो आगे चलकर इंद्रप्रस्थ के नाम से मशहूर हुआ। इस प्रकार कुछ दिन शांति रही।

उन दिनों राजा लोगों में चौसर खेलने का आम रिवाज था। राज्य तक की बाज़ियाँ लगा दी जाती थीं। इस रिवाज के मुताबिक एक बार पांडवों और कौरवों ने चौपड़ खेला। कौरवों की तरफ़ से कुटिल शकुनि खेला। उसने युधिष्ठिर को हरा दिया। इसके फलस्वरूप पांडवों का राज्य छिन गया और उनको तेरह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा। उसमें एक शर्त यह भी थी कि बारह वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष अज्ञातवास करना होगा। उसके बाद उनका राज्य उन्हें लौटा दिया जाएगा।

द्रौपदी के साथ पाँचों पांडव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास में बिताकर वापस लौटे, पर लालची दुर्योधन ने लिया हुआ राज्य वापस करने से इंकार कर दिया। अतः पांडवों को अपने राज्य के लिए लड़ना पड़ा। युद्ध में सारे कौरव मारे गए, तब पांडव उस विशाल साम्राज्य के स्वामी हुए।

इसके बाद छत्तीस वर्ष तक पांडवों ने राज्य किया और फिर अपने पोते परीक्षित को राज्य देकर द्रौपदी के साथ तपस्या करने हिमालय चले गए।

संक्षेप में यही महाभारत की कथा है।
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