शनिवार, 23 अप्रैल 2016

नदी के द्वीप (अज्ञेय)

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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”

 

"नदी के द्वीप"

हम नदी के द्वीप है। 

हम नही कहते कि हमको छोड कर स्रोतस्विन बह जाय। 

वह हमें आकार देती है। 

हमारे कोण, गलियां, अन्तरीप, उभार, सैकत-कूल,
 
सब गोलाइयां उसकी गढी है ! 

माँ है वह । है, इसी से हम बने है। 

किन्तु हम है द्वीप । हम धारा नहीं है । 

स्थिर समर्पण है हमारा । हम सदा से द्वीप है स्रोतस्विनी के 

किन्तु हम बहते नहीं है । क्योंकि बहना रेत होना है । 

हम बहेंगे तो रहेंगे ही नही। 

पैर उख‎डेंगे। प्लवन होगा । 
ढहेंगे । सहेंगे । बह जायेंगे । 

और फ़िर हम चूर्ण हो कर भी कभी क्या धार बन सकते ? 

रेत बनकर हम सलिल को तनिक गंदला ही करेंगे- 

अनुपयोगी ही बनायेंगे । 

द्वीप है हम । यह नहीं है शाप । यह अपनी नियति है । 

हम नदी के पुत्र है । बैठे नदी के क्रोड में । 

वह वृहद् भूखण्ड से हम को मिलाती है । 

और वह भूखण्ड अपना पितर है । 

नदी, तुम बहती चलो । 

भूखण्ड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है, 

मांजती, संस्कार देती चलो । यदि ऐसा कभी हो – 

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से, अतिचार स्र, 

तुम बढो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे- 

यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय- 

तो हमें स्वीकार है वह भी । उसी में रेत होकर 

फ़िर छनेंगे हम । जमेंगे हम । कहीं फ़िर पैर टेकेंगे । 

कहीं भी खडा होगा नये व्यक्तित्व का आकार । 

मातः उसे फ़िर संस्कार तुम देना ।