प्लेटो-कला संबंधी दृष्टिकोण
प्लेटो का जन्म यूनान की राजधानी एथेन्स के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इसका कालखंड 427ई.पू से 347ई.पू माना जाता है। प्लेटो ग्रीक विचारक और दार्शनिक ‘सुकरात’ का शिष्य था। प्लेटो का परिवार राजनीति से संबद्ध रहा था। प्लेटो भी राजनीति में भाग लेने का इच्धुक था। पाश्चात्य काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र का तो वह जन्मदाता ही माना जाता है। वास्तव में तो वह दार्शनिक था, साहित्य विषयक उसके विचार प्रायः आनुषंगिक ही हैं।
प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में स्पष्ट कहा कि भाव अथवा विचार ही आधारभूत सत्य है। प्लेटो अनुकरण को समस्त कलाओं की मौलिक विशेषता मानते हैं । इस दृष्टि से प्लेटो की दृष्टि में समस्त कवि और कलाकर अनुकरणकर्ता मात्र हैं। प्लेटो के अनुसार अनुकरण वह प्रक्रिया है जो वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत न करके आदर्श रूप में प्रस्तुत करती है।
प्लेटो कला में ऐन्द्रिय ऐक्य अनिवार्य मानता था। अर्थात कलाकार को अपनी कृति के समस्त अंगों का विन्यास एक निश्चित क्रम से पूर्ण संगति के साथ करना चाहिए। प्लेटो की मान्यता है कि ‘अच्छी काव्य-कृति के निर्माण के लिए कवि को अपने विषय का पूर्ण एवं स्पष्ट बोध होना चाहिए और उसकी अभिव्यक्ति में गतिपूर्ण योजना होनी चाहिए।‘ इसी आधार पर उसने संगीतकला, चित्रकला आदि को ललित कलाओं के वर्ग में रखा और उनका उद्देश्य मनोरंजन बताया है। दूसरा वर्ग उपयोगी कला माना है, जिसका उद्देश्य व्यावहारिक उपयोग है।
प्लेटो एक आदर्शवादी विचारक था। उसने कवियों के लिए मार्गदर्शन दिया कि कवि को ऐसी काव्य रचना नहीं करना चाहिए जो न्याय, सत्य एवं सौंदर्य के विरूद्ध हो। प्लेटो सामाजिक-व्यवस्था की माँग को लेकर सामने आए थे। उसके लिए उन्होंने प्रत्येक ज्ञान, व्यवहार, वस्तु आदि को सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि में परखा था । प्लेटो के कला–विषयक दृष्टिकोण की विशेषता यह है कि वह भारतीय चिंतन के पर्याप्त अनुकूल और निकट है। ‘उपयोगितावादी’ दृष्टिकोण भारतीय धारणा ‘शिव’ के अति निकट है।