जायसी–सौंदर्य दृष्टि
जायसी के अनुसार प्रेम ही वह तत्व है जो सौंदर्य की सृष्टि करता है, इस सृष्टि में जो सौंदर्य है वह प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
“तीन लोक चौदह खंड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँडि किछु और न लेना, जौ देखौं मन बूझि”।
सौंदर्य जीवात्मा में स्थित प्रेम को जागृत करके उसे अपनी ओर आकर्षित करता है। परमात्मा परम सुन्दर है। समस्त जगत् दर्पण है, जिस में उस परम सौंदर्यमय का प्रतिबिम्ब पडता है, अतएव समस्त जगत में जहाँ-जहाँ आकर्षण हो वहाँ–वहाँ उसी के सौंदर्य की छाया है। जायसी के शब्दों में....
“सबै जगत दरपन के लेखा।
आपुहिं दरपन आपुहि देखा”।।
सौंदर्य एक मुक्ता–बिन्दु है, जिसे प्रेमी साधक के नेत्र–कौडिया अनायास उसके हृदय–समुद्र से चुगते रहते हैं, जब वह आन्दोलित होकर उमडता है..........
“सरग सीस धर धरती हिया सो प्रेम समुंद।
नैन कौडिया होर रहे लै लै उठहिं सो बुंदा”।
सौंदर्य का क्षेत्र यह हृदय-कमल देखने में भले ही विकट ज्ञात होता है किन्तु इसे प्राप्त करना दृष्कर है..........
“अहुठ हाथ तन सरवर हिया कँवल तेहि माँह।
नैनन्हि जानहु निअरें कर पहुँचत अवगाह”।
रतनसेन तोते से पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन सुनकर प्रेम–विहृल होकर मूर्छित हो जाता है। सौंदर्य प्रेम का जनक है।
“परा सो पेम समुंद अपारा।
लहरहिं लहर होइ बिसंभारा”।।
पद्मावती के सौंदर्य का निरूपण कवि ने “नख-शिख वर्णन” की परम्परा के निर्वाह के रूप में भी किया है। सौंदर्य की दिव्यता व्यंजित करने के लिए कवि ने कही-कही फलोत्प्रेक्षा के सहारे ऐसे प्रसंगों की अवतारणा की है जिनमें साधना की पावनता प्रतिष्ठित है, जैसे एक स्थल पर कवि कहता है तपस्वी करपत्र साधना कर अपने को बलि कर देते हैं ताकि पद्मावती रूपी आराध्य उनके खून को माँग में भरे अर्थात उनका रक्त आराध्य के मस्तक तक पहुँच जाय और उनकी साधना सार्थक हो जाय। पद्मावती के सौंदर्य–वर्णन में कवि ने यत्र-तत्र आध्यात्मिक अर्थ का समावेश करने की चेष्टा की है। जैसे.........
“रवि ससि नखत दीन्ह ओहि जोती।
रतन पदारथ मानिक मोती”।।
इससे स्पष्ट है कि कवि पद्मावती के रूप में अलौकिकता का समावेश कर उसे आध्यत्मिक स्वरूप देने के प्रति आग्रहशील है।