जायसी का “पद्मावत” प्रेमगाथा परम्परा का परिपुष्ट ग्रन्थ है। पद्मावत की कथा का आदि, मध्य और अंत प्रेम से ओत-प्रोत है। तन, मन और प्राण की समस्त साधना और समस्त दार्शनिक चिन्तन प्रेम को ही पृष्ट करने के लिए क्रियाशील हैं। जायसी ने मसनवी पद्धति पर लिखी प्रेम-गाथा को भारतीयता का आवरण पहना दिया है। प्रेम-लोक ऐसा ज्योतिपूर्ण है कि जो उसका एक बार दर्शन कर लेता है तो उसे यह लोक अन्धकार पूर्ण लगता है, और इससे वह आँखें हटा लेता है।
“सुनि सो बात राजा मन जागा। पलक न मार प्रेम चित लागा।
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा। जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा।
हिऐ की जोति दीप वह सूझा। यह जो दीप अँधिंअर भा बूझा।
उलटि दिस्टि माया सौं रूठी। पलटि न फिरी जांनि कै झूठी”।
जायसी ने प्रेम के संयोग और वियोग दोनों का मार्मिक वर्णन किया है। जायसी के प्रेम-पीर के आँसुओं से सिंचकर लता नागमती अमर हो गई। उसके आँसुओं से समस्त सृष्टि गीली हो गई। पद्मावत में संयोग पक्ष का अत्यंत सांगोपांग स्वरुप है। प्रेम सैंदर्य की सृष्टि करता है इस सृष्टि सैंदर्य प्रेम के अतिरिक्त कुछ नही है।
“तीन लोक चौदर खंड, सबै परै मोहि सूझि।
प्रेम छाँडि किछु और न लेना,जौ देखौ मन बूझि”।
प्रेम की प्राप्ति से दृष्टि आनंदमय और निर्मल हो जाती है। प्रेम की यदि एक चिनगारी हृदय में सुलगाते अग्नि प्रज्वलित हो सकती है, जिस से सारे लोक विचलित हो जाय----
“मुहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, जहँ अस अगिनि समाइ”।।
जीवात्मा एवं परमात्मा दोनों मे सर्वात्मना एक्यभाव प्रदर्शित होता है। यह स्वाभाविक हैं कि नारी से बढकर मधुर प्रेममयी प्रतीक कहाँ मिलेगा। फलस्वरूप इसी प्रतीक को अपनी साधना का माध्यम बनाकर जायसी ने “प्रेम तत्व” की महत्ता प्रतिष्ठित की तथा आत्मा-परमात्मा के महामिलीन की परिकल्पना द्धारा अपने महान आध्यात्मिक दर्शन की रहस्यवादी पृष्ठभूमि तैयार की। जीवात्मा के आधार पर उस चिन्मय स्वरूप में एकाकार करना ही उनके प्रेमतत्व का मूलाधार हैं। जायसी के प्रेम सम्बंधी दृष्टिकोण का सार निम्नांकित नौ शब्दों में निहित है-----
“मानुस प्रेम भएउ बैकुण्ठी।
नाहित काह छार भरि मूठी”।
जायसी के लिए प्रेम विरह–मिलन की क्रीडा मात्र नहीं, एक कठोर साधना है।