अरस्तू के काव्य सिद्धांत
अरस्तू प्लेटो के शिष्य है,लेकिन उनकी मान्यताएँ उनके गुरू से सर्वथा भिन्न थीं। अरस्तू ने महाकाव्य और त्रासदी के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया और काव्य जगत् को अनुकरण सिद्धांत तथा विरेचन सिद्धांत नामक दो महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए। उन्होंने प्लेटो की मान्यताओं का खण्डन करते हुए कहा कि कला प्रकृति का सृजनात्मक अनुकरण है और कव्य से श्रोताओं की दुर्वृत्तियों का पोषण नही,विरेचन होता है।अरस्तू का मानना है कि कला प्रकृति का अनुकरण है। वह प्रकृति को पूर्णता प्रदान करती है। हम किसी वस्तु को जिस रूप में देखना चाहते है,उसे वह रूप कला ही देती है। अतः कला वस्तु जगत् से ज्यादा सुंदर है। काव्य प्रकृति को पूर्णता प्रदान करता है। कवि या कलाकार वस्तु को प्रतीयमान रूप में भी चित्रित कर सकता है, संभाव्य रूप में भी और आदर्श रूप में भी। अतः अनुकरण केवल स्थूल और तथ्यपरक चित्रण नही है। उसमें कवि की भावनाओं और कल्पनाओं का भी य़ोग रहता है। अंग्रेजी का ‘इमिटेशन’ शब्द नकल करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है,परंतु अरस्तू का अनुकरण नकल करने का नही,पुनः सृजन का वाचक है। पाश्चात्य काव्यशस्त्र में अनुकरण सिद्धांत का प्रायः वही स्थान है,जो भारतीय काव्यशस्त्र में रस सिद्धांत का। अरस्तू अनुकरण को सभी कलाओं का मूल मानते हैं।
सामान्यतया चिकित्साशास्त्र में विरेचन से अभिप्राय है—‘रेचक औषधियों द्धारा शरीर के मल या अनावश्यक पदार्थ का निष्कासन’। अरस्तू ने यह शब्द चिकित्साशास्त्र से ग्रहणकर काव्य में इसका लाक्षणिक प्रयोग किया है। मानव भावनाओं का विरेचन विशेषकर त्रासदी (ट्रेजेडी) में होता है तथा साहित्य में दुखांत नाटक का महत्व इसलिए है कि उसके द्धारा मनोभावों का विरेचन सफलतापूर्वक हो जाता है। अरस्तू ने लालित कलाओं में एक ओर संगीत से और दूसरी ओर त्रासदी से मनोविकारों का रेचन या शुद्धीकरण मानते हुए कलाओं का लक्ष्य मनोविकारों का विरेचन माना है। अरस्तू के पूर्ववर्ती विद्धानों में प्रो.गिलबर्ट मरे ने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या की है तो जर्मन विद्धान बरनेज ने नीती परक,जो कि इस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या है। प्रो.बूचर का कलापरक अर्थ ही अधिक स्वीकार्य रहा। बूचर की मान्यता थी कि नाटककार या कवि दर्शक के भावों को सार्वजनिक बना देता है। उसका ‘स्व’ विगलित हो जाता है, जिससे दुःखद अनुभूतियाँ भी कला का स्पर्श पाकर आनंदप्रद हो जाती हैं।
वस्तुतः अरस्तू को पाश्चात्य काव्यशास्त्र का आद्याचार्य कहा जाता है और इसमें संदेह नही कि उसने ही सर्वप्रथम काव्य एवं कला की सुनिश्चित और क्रमबद्ध व्याख्या की है। तथा काव्य कला को राजानीति एवं नैतिकता के बंधन से पृथक कर उसमें सैंदर्य की प्रतिष्ठा कर उसे गौरव प्रदान किया।