जायसी-पद्मावत में रूपक–तत्व
पद्मावत की कथा समाप्त करते हुए उपसंहार में जायसी ने रूपक का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है –
“तन चितउर, मन राजा कीन्हा हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा।
गुरू सुआ जेई पन्थ देखावा बिनु गुरू जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया–धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा।।
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू”।।
समालोचकों की दृष्टि में पद्मावत का रूपक कथा को विकृत करता है और पद्मावत की कथा रूपक का मजाक उडाती है । कथा और रूपक एक दूसरे के नितांत अनुपयुक्त हैं। उनका यह कथन पर्थाप्त अशों में सत्य है क्योंकि रूपक में कई त्रुटियाँ पाई जाती है ।
रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रतनसेन आत्मा का, पद्मावत सात्विक बुद्दि के अलाव परमात्मा का प्रतीक माना। इस से आत्मा और परमात्मा के बाद रूपक आगे नहीं बढ पाता। रूपक पद्मावत के पूर्वार्द्ध पर ही लागू होता है, उत्तरार्द्ध पर नहीं।
डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल के अनुसार रूपक कल्पना की तीन बातें खटकती है।
1. कवि ने कथा के प्रकरणों में रूपक का एक समान निर्वाह नहीं किया है।
2. कुछ प्रस्तुतों एवं अप्रस्तुतों में रूप, गुण और प्रभाव का साम्य नहीं दिखाई देता ।
3. अप्रस्तुतों के जो पारस्परिक सम्बंध और कार्य–व्यापार है,वह प्रस्तुतों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं कृत्यों को न तो पूर्णतः प्रकट करते हैं और न उनके अनुकूल है ।
पद्मावत की विशोषता रूपक का निर्वाह करने में नहीं, कथा प्रस्तुत करने में है, बीच–बीच में अत्यन्त मनोहर रहस्यात्मक संकेतों का सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है, परन्तु पकड में नही आता ---
“सरवर देख एक में सोई।
रहा पानि, पै पान न होई”।।