सोमवार, 30 जनवरी 2017

आजकल - अजयकुमार

 आजकल….


कैसे निज़ाम है इस शहर में आजकल

बाहर से ज्यादा खतरा है घर में आजकल

अखबार पढके लगता है, शहरों का मुकद्दर

जैसे हो शिव की तीसरी नजर में आजकल

सुबह का गया शाम को लौटे न जब तलक

आता सुकून जर नहीं जिगर में आजकल

इतनी अदावतें है जमाने को मुझसे क्यों

आता है मेरा नाम हर खबर में आजकल

हम तो लगाके तरकीब और तरतीब थक गये

फिर भी नसीब अपना है भंवर में आजकल

मौला ! चुनावी खेल भी आता नहीं समझ

हुक्काम मिल रहे हैं रह - गुज़र में आजकल

दे दे के हारा पर, न टली उसकी बलाएं

रिश्ता खतम है, दुआ और असर में आजकल

उम्मदी की हवा करे मौसम को खुशगवार

पत्ते नये आने लगे शजर में आजकल

इंसान अपनी ख्वाहिशों का खुद शिकार है


सोता नहीं अजेय किसी पहर में आजकल....


Mr. AJAY KUMAR,
Education Officer (EO)
UGC.