पर्वत प्रदेश में पावस - सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल।
गिरि का गौरव गाकर झर झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर।
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर।
उड़ गया अचानक लो, भूथर
फड़का अपार पारद के पर।
रव-शेष रह गए हैं निर्झर
है टूट पड़ा भू पर अंबर।
धँस गए धरा में सभय शाल
उठ रहा धुआँ जल गया ताल
यों जलद यान में विचर विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।