सूर के काव्य में
निर्गुण सिद्धांत का खंडन तथा सगुण सिद्धांत का मंडन हुआ है। इस कथन की
युक्ति-युक्त परिक्षा कीजिए।
भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का नाम अग्रणीय
है। उनके काव्य भक्ति के तत्वों से इतना ओतप्रोत है कि उसे भक्ति के गान के अतिरिक्त अन्य कुछ मानने से
संकोच होता है। वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पूर्व सूर भारत वर्ष में प्रचलित
अन्य भक्ति पद्धतियों एवं उपासना प्रणालियों से प्रभावित है। वे जाति-पाँति का
विरोध करते हुए लिखा है कि –
“जाति-पाँति कोअ पूछन नहिं श्रीपत के दरबार”।
इसके साथ-साथ सत्
पुरूषों की प्रशंसा भी किया –
“जौ लौं सत् स्वरूप नहिं सूज”।
वल्लभाचार्य के संपर्क में आते ही सूर पुष्टिमार्गीय
भक्त हो गए। भक्ति के क्षेत्र में वल्लभाचार्य का साधना मार्ग पुष्ट मार्ग के नाम
से प्रसिद्ध है। सूरदास ने उस समय में प्रचलित योग मार्ग की निंदा की है। उनके
पदों में भक्ति के सामने योग मार्ग की निरर्थकता का प्रतिपादन किया गया है।
वैराग्य योग मार्ग का प्रधान साधन है परंतु सूरदास वैराग्य को भक्ति का साधक मानते
है जबकि योग मार्ग के साधुओं की निंदा करते है –
“भक्ति बिना जौ कृपा न करतौ सौ आस न करती”।
सूरदास की प्रेम
भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति है और गोपियाँ उसकी प्रतिनिधित्व करती है। प्रेम-भक्ति
की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है –
“प्रेम भक्ति बिन मुक्ति न होय नाथ कृपा कर दीजौ
सोय”।
सूरदास ने भागवत्
पुराण से प्रभावित होकर सूरसागर की रचना की थी। सूरदास के मतानुसार...
श्रीमुख चारि श्लोक दूए ब्रह्मा कौ समुझाई।
ब्रह्मा नारद सौं कहें, नारद व्यास सुनाई।
व्यास कहे सुकदेव सौं, द्वादस स्कंध बनाई।
सूरदास सोइ कहे, पद भाषा करि गाई।।
नारायण ने ब्रह्मा से चार श्लोक कहें, ब्रह्मा ने
नारद से, नारद ने व्यास से, व्यासने सुकदेव से कहा। उसे बारह स्कंधों में बनाकर भगवान के रूप में
व्यक्त किया। यदी श्रीमद् भागवत को सूरदास ने अपनी भाषा में अर्थात पदों में
व्यक्त किया। सूर के समय में ज्ञान, याग और भक्ति का त्रिकोण संघर्ष चल रहा था।
वेदांती लोग अंतःकरण की शुद्धी, जप, तप आदि को प्रमुखता देते थे और नाथपंती योग को
एक ओर संत मत दोनों ही संप्रदायों को अपनाकर, निराकार, निर्गुण उपासना का प्रचार
कर रहा था। साथ ही साकार की उपासना और भक्ति का आंदोलन भी जोर पकड चुका था। इस
प्रकार भ्रमरगीत में निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों का संघर्ष है।
सूरसागर के बारे में आचार्य शुक्लजी का कथन है कि
– “सूरसागर का सबसे मर्म स्पर्शी और वाग्वैदगध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है, जिसमें गोपियों की वचन वक्रता
अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता”।
डॉ. स्नेहलता
श्रीवास्तव ने भ्रमरगीत के उद्देश्य को निश्चित करते हुए हिन्दी में भ्रमरगीत
काव्य और उसकी परंपरा में लिखा है – “ज्ञान पर
प्रेम की, मस्तिष्क पर हृदय की विषय दिखाकर, निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना की
अपक्षा सगुण साकार ब्रह्म की भक्ति-भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन”।
भ्रमरगीत प्रसंग का प्रतिपाद्य गोपियों के माध्यम
से प्रेम तत्व का निरूपण है। श्रीकृष्ण की लीलाओं में जहाँ माधुर्य है, प्रेम है
उसके वर्णन में कृष्ण भक्त कवियों का माधुर्य बहुत रमा है। गोपियों के मध्य के
कृष्ण और द्वारका के कृष्ण में से सूर ने गोपियों के प्रेम तत्व को उभारा है।
गोपियों का प्रेम अद्भुत है, गंभीर है, समर्पण भरा है और अलौकिक है। आचार्य
शुक्लजी के अनुसार कृष्ण भक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ती को ही
लेकर प्रेम तत्व की बडे विस्तार के साथ व्यंजना हुई है।
उद्धव के निर्गुण
ब्रह्म का मज़ाक उड़ाते हुए गोपियाँ कहती है कि –
“निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुकर! हाँसी समुझाय, सौंह दै बूझनि सांच न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो वरन, भेस है कैसो के हि रस अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगौ गासी।
सुमन मौन है रहयो उच्यो सो सूर सबै मवि नासी”।।
निर्गुण किस देश का रहनेवाला है, उसका कैसा वर्ण,
कैसा वेश, ये प्रश्न तथा गोपियों के योग का उपदेश कैसे दिखा जा सकता है, ये सब
प्रश्नों के नाते सूरदास के खंडन करने की दृष्टि को प्रकट करती है। सबसे बडी बात
यह है कि उद्धव का मौन ले जाना, उसके परास्थ तो जाने के लक्षण है और जो स्पष्ट रूप
से सगुण भक्ति के सामने निराकार निर्गुण उपासना पद्धति और योग साधना के कुछ और
छोटा दिखाने का भाव है।
सूरदास ने भ्रमरगीत के प्रतिपाद्य का प्रमुख अंश
सगुम भक्ति की प्रतिष्ठा को ही अंकित किया है। सुरदास योग की अपक्षा भक्ति के
महत्व का अधिक प्रतिपाधन करते है किन्तु वे योग को सर्वदा हीन दृष्टि से नहीं
देखते। योग का मजाक उडाने से उनका तात्पर्य यही है कि भक्ति योग की अपेक्षा सहज
साध्य है। योग की साधना कठिन है। अतः सुकुमार नारियों को योग साधना की सलाह देना
एक विषमता मात्र है। उनके भावुक हृदय केलिए तो प्रेम मार्त्र का अनुकरण ही
श्रेयस्कर है। चित्ता वृत्तियों को रोकना ही योग है, लेकिन गोपियों का चित्ता तो
श्रीकृष्ण ने चुरा लिया फिर योग साधना कैसा, कौन से मन से योग साधना की जाय –
“उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग,
को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि,
जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के,
सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस”॥
कृष्ण के मधुरा चले जाने पर गोपियों के प्रेम की परिक्षा होती है।
प्रेम विरह में तप गया है और निखर गया है। भ्रमरगीत के माध्यम से गोपियों के प्रेम
को प्रकाशित होने का अवसर सूर ने निकल लिया है। संयोग के सभी सुखद व्यापार वियोग
में दुःखद बन जाते हैं –
“बिनु गोपाल बैरिन भई
कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल¸
अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।
बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸
बिरह करद करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸
अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं”।
वियोग की अनुभूति भी विचित्र होती है। जहाँ एक ओर गोपियों का नारी
हृदय सौतिया डाह वश मुरली और कुब्जा को उपालंभ देता हुआ नहीं थकता वहाँ प्रिय की
ममता उनसे यह भी कहलवा लेती है – कृष्ण चाहे लाखों विवाह कर लें, दसों कुब्जाओं के
रख ले पर रहेंगे हमारे ही।
“ब्याहौ लाख धरौ दस
कुबरी,
अन्तहि कान्ह हमारो”।
यह गोपियों के प्रेम की उच्चता है जिसको सूरदास भ्रमरगीत में व्यक्त
करना चाहते है। जीव का स्वभाव प्रेम करना है। संसार का प्रेम, स्त्री-पुरूष का
प्रेम, धन, वैभव, पद, यश का प्रेम लौकिक है। वियोग की जितनी अंतर दशाएँ ले सकती
हैं, जितनी ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता
है वे सब भ्रमरगीत में मौजूद है। रीति आचार्यों के अनुसार विरह की ग्यारह अवस्थाएँ
हैं –
1) अभिलाषा 2) चिंता 3) स्मरम 4) गुण-कथन
5) उद्देश
6) प्रलाप 7) उन्माध 8) व्याधी
9) जड़ता
10) मूर्चा 11) मरण
सूरदास की आँखें एक भक्त की आँखें है। वे शान को जानते थे। परंतु
चित्त की द्रवनशीलता के लिए भावना का उपाय सहज और सरल माना गया। उन्होंने ब्रह्म
से मिलकर अद्धैत हो जाने का एक हो जाने का भाव भी व्यक्त किया है –
“सूर उड़ चल तहाँ
जहाँ ते बहुरि उडियाँ नाहिं”।
अर्थात हे सखि! अब वहाँ उड़ चलो जहाँ से फिर उडना ही न पडे। फिर भी इन अद्धैत के
भावों के होते हुए भी सूरदास का मार्ग भक्ति है, प्रभु की समीचता के सुख की कामना
है। भ्रमरगीत सार में गोपियों के माध्यम से वे यही प्रतिपादन करना चाहते हैं कि
भगवान प्राप्ति केलिए सरल मार्ग भक्ति है। यही भ्रमरगीत का सार है।
सूरदास ने अपने भ्रमरगीत की रचना करते समय अपना उद्देश्य यह रखा है कि
सगुण ब्रह्म की विजय की प्रतिष्ठा की जाए। इस कारण उन्होंने अनेक स्थलों पर ब्रह्म
के समर्थन में तो अनेक तर्क दिए हैं पर निर्गुण ब्रह्म की ओर से तर्क प्रस्तुत
नहीं किए। उद्धव को तो बोलने का अवसर ही अधिक नहीं दिए गया है। गोपियों के तर्कों
के समक्ष उद्धव का पराजित होना और भी स्पष्ट रीति से कवि के मन्तव्य को प्रत्यक्ष
करता है।
निर्गुण पर सगुण की विजय इस बात से भी व्यक्त होती है कि उद्धव-गोपी
संवाद के समय उद्धव सिर झुकाकर अपनी हार स्वीकार कर लेते है। सूरदास ने भ्रमरगीत
में उद्धव द्वारा गोपियों के उपदेश दिलवाया है और उसका खंडन किया है। यह खंडन दो
प्रकार का है – एक तो कबीरदास जैसे संतों की निर्गुण उपासना का और दूसरे योगियों
की साधना का। निर्गुण उपासनावालों का कहना है कि भगवान का जो पूर्ण ब्रह्म है
ध्यान करो। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है। उस ब्रह्म के न रूप है न नाम।
महात्मा सूरदास ने पुष्टिमार्गीय प्रेमाभक्ति को ही अपनाया है। इसीलिए
उनके सूर-सागर में प्रेम के विविध रूप – दास्य, वात्सल्य, माधुर्य, दाम्पत्य आदि
की छटा विद्यमान है। यहाँ भगवान कृष्ण को भी प्रेममय माना गया है, जिन्होंने प्रेम
के वशीभूत होकर ब्रज में अवतार लिया है। इसीलिए सूर ने ‘प्रीत के वस नटवर
रूप धरयौ’ कहकर इसी बात का समर्थन किया है। सूरने प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन
करते हुए विरह की तीव्रानुभूति में ही विशुद्ध प्रेम के दर्शन किये हैं और
वियोग-विह्लता, विरह-वेदना आदि के अंतर्गत सच्चे भक्त की अभिलाषा, व्याकुलता एवं
विवशता को चित्रित किया है।
साधारणतः पाँच प्रकार की भक्ति प्रचलित हैं –
1) शान्तभाव की भक्ति जिसमें पूज्य-पूजक-भाव रहता
है, अर्थात भगवान पूज्य और भक्त-पूजक होता है।
2) वात्सल्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ
जन्य-जनक भाव रहता है।
3) दाम्पत्य भाव या माधुर्य भाव की भक्ति, जिसमें
भगवान के साथ पतिभाव रहता है।
4) दास्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ
सेव्य-सेवक-भाव रहता है।
5) सख्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ
सखा-भाव रहता है।
सूर की भक्ति दास्य-भाव की है, जिसमें सूर के अपने आराध्यदेव कृष्ण को
अपना सखा मानकर अपनी भक्ति-भावना प्रकट की है और पुष्टिमार्गीय सेवा-भाव को अपनाया
है, जिसके तीनों रूप गुरू-सेवा, संत-सेवा तथा प्रभु-सेवा सूरदास में विद्यमान हैं।
दार्शनिक दृष्टि से सूर के श्रीकृष्ण, मुरली तथा गोपियाँ कमशः ब्रह्म,
माया और जीव के प्रतीक माने गये है। माया के दो रूप माने गये हैं- विद्या रूप और
अविद्या रूप। विद्या रूप यह है जो ब्रह्म एवं जीव को मिलाने का कार्य करती है और
जिसके फलस्वरूप जीव अन्य सभी जीवों को
ब्रह्मवत् समझता है। श्रीकृष्ण की मुरली ही विद्या माया है, जो जीव और
ब्रह्म से मिलाने का कार्य करती है। दूसरी अविद्या माया वह है, जो जीव और ब्रह्म
में भेद उत्पन्न करती है तथा जिसके कारण जीव संसार के प्रपंच में फँसकर नाना कष्ट
सहन करता है। सूर ने इस अविद्या रूप माया को ही ‘माधव नैकु हटकौ गाय’ कहकर बडा ही सुन्दर
निरूपण किया है और उसे त्रिगुणात्मिका कहकर सम्पूर्ण विश्व को भ्रम में डालने वाली
बताया है।
सूर ने पुष्टिमार्ग के अनुसार सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सामुज्य
नामक चारों प्रकार की मुक्तियों की ओर संकेत किये है। भगवान के लीलाधाम में
पहुँचना ही ‘सालोक्य मक्ति’ है, उनके चरणारविन्द का सान्निध्य ‘सामीप्य मुक्ति’ है, कृष्ण के साथ उन्हीं के समान आचरण करना ‘सारूप्य मुक्ति’ है तथा ईश्वर के
साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाना ‘सायुज्य मुक्ति’ कहलाती है। इनमें से सूर ने मुख्यतया सायुज्य मुक्ति को ही महत्व
दिया है। सायुज्य मुक्ति के भी जो रूप होते हैं – 1) संसार के दुःख से मुक्ति और
2) नित्य सुख की प्राप्ति। परंतु दोनों ही अवस्थाओं में जीव भगवान का अंग नहीं
बनता। केवल लयात्मक सायुज्य मुक्ति में ही जीव ब्रह्म का अंग बनता है। सूर ने
लयात्मक सायुज्य मुक्ति का वर्णन संयोग एवं वियोग श्रृंगार के अंतर्गत किया है।
इसलिए सूर का रास-लीला वर्णन तथा भ्रमर-गीत दोनों ही लयात्मक सायुज्य मुक्ति के
दोनों रूपों के द्योतक है।
सूर का वात्सल्य-वर्णन अत्यंत विशद् एवं गम्भीर है। इसका सम्यक्
अध्ययन करने के पहले इसे दो भागों में विभक्त किया ज सकता है – 1) वात्सल्य का
संयोग पक्ष और 2) वात्सल्य का वियोग पक्ष। संयोग पक्ष को भी पाँच भागों में विभक्त
किया जा सकता है – 1) बालोचित वेश-भूषा का वर्णन 2) बालोचित चेष्टाओं एवं क्रीडाओं
का वर्णन 3) बाल विभावों एवं अन्तःप्रकृति का चित्रण 4) बालक के संस्कारों,
उत्सवों एवं समारोहों का वर्णन, 5) गो-दोहन तथा गो-चारण का वर्णन। इसी भाँति
वात्सल्य के वियोग पक्ष को भी मुख्यतया तीन भागों में विभक्त कर सकते है – 1)
कृष्ण के मथुरा-गमन पर 2) मथुरा से नंद के अकेले रहने पर और 3) कृष्ण के मथुरा में
ही निवास करने पर।
सूर का काव्य ब्रज-प्रदेश की सुरम्य प्रकृति का रमणीय स्थल है। इसमें
ब्रज की प्रकृति-सुंदरी का मनोहारी नर्त्तन पद-पद पर सुनाई पडता है, उसका
रूपमाधुरी स्थान पर दिखाई देती है और उसका आनंदोल्लासपूर्ण मधुर कलरव प्रत्येक पद
में गुञ्जायमान हो रहा है। सूर ने प्रकृति-नटी की रमणीय झाँकी अंकित करते हुए उसके
षड्ऋतुओं में परिवर्तित होने वाले दिव्य सौन्दर्य का अच्छा निरूपण किया है। इसिलिए
वसंत ऋतु में ब्रज के अंतर्गत सदैव कोकिल शोर मचाती रहती है, सदा मन्मथ चित चुराता
रहता है, दुम-डालियाँ विविध वर्ण के सुमनों से भर जाती है, जिन पर भ्रमरावली उन्मत
होकर घँजने लगती है, सर्वत्र हर्ष एवं उल्लास छा जाता है और कोई भी उदास नहीं रहता
–
“सदा बसंत रहत जहँ
बास। सदा हर्ष जहँ नहीं उदास।।
कोकिल कीर सदा तहँ रोर। सदा रूप मन्मथ चित घोर।।
विविध सुमन बन फूले डार। उन्मत मधुकर भ्रमत अपार”।।
ऐसे ही शरद ऋतु में भी ब्रज की प्रकृति एक अद्भुत सौंदर्य से सुसज्जित
हो उठती है, क्योंकि सरोवरों में नए-नए सरोज और कुसुदिनी के फूल खिल उठते है,
चन्द्रिका में सम्पूर्ण वन-प्रदेश स्नान करने लगता है, जल से कोई हट जाती है और वह
निर्मल हो जाता है। आकाश भी स्वच्छ रहता है, पृथ्वी रंग-बिरंगे फूलों से आच्छादित
हो उठती है और शीतल शशि पीयूष की वर्षा करने लगता है, कुञ्जों में विविध प्रसून
मँहक उठते है, कोयल कूकने लगती है और रोम-रोम केलिए सुखदायक शीतल पवन चलने लगते
है। सूर ने शरद की इस दिव्य आभा का निरूपण करते हुए लिखा भी है –
“आजु निसि सोभित सरद
सुहाई।
सीतल मन्द सुगन्ध पवन वहे रोम-रोम सुखदाई”।।
अथवा –
“सरद चांदनी रजनी
सोहै वृन्दावन श्रीकुन्ज।
प्रफुलित सुमन, विविध रंग जहँ-जहँ कूजत कोकिल पुंज”।।
सूर ने वर्षा ऋतु में विविध आकृति धारण करने वाली ब्रज-प्रकृति की रमनीय
झाँकी भी संकेत की है क्योंकि उस समय वन-उपवन हरीतिमा से भर जाते है, जलाशय जल से
परिपूर्ण हो जाते है, इन्द्रधनुष चमकने लगता है, घन-घटा के बीच दक-पंक्ति दिखाई देने लगती
है, चारों ओर घटाएँ घिर
आती हैं, दामिनी चमकने लगती है, पपीहा पी-पी रटने लगता है, दादुर पिक और मोर
शोर करने लगते है और हरी-रही घास पर अरूण बीरबघूटी चित को चुराने लगती है। उस क्षण
बादल मदन के हाथी जैसे दिखाई देने लगते है।
सूर के काव्य की भाषा ब्रज-प्रदेश की प्रसिद्ध बोली है, जो ब्रजभाषा
के नाम से अभिहित की जाती है, परंतु सूर की ब्रजभाषा एवं उसके शब्द-भण्डार का
अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि सूर ने अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं एवं समकालीन
विभाषाओं के अनेकानेक शब्द अपनाये है और अन्धे होने पर भी भाषा का साहित्यिक गुणों
से श्रृंगार किया है। सूर की भाषा में संस्कृत,पाली, अपभ्रंश आदि के अतिरिक्त
गुजराती, राजस्थानी एवं पंजाबी भाषा के भी शब्द मिलते है। इतना ही नहीं, खडीबोली,
अवधी, कन्नौजी, बुन्देलखण्डी आदि बोलियों के अतिरिक्त अरबी, फारसी एवं तुर्की के
भी शब्द मिल जाते हैं। सूर का शब्द-भण्डार बडा विस्तृत है।