शनिवार, 11 अप्रैल 2020

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ का रंगमंचीय विश्लेषण

सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक का रंगमंचीय विश्लेषण

प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
नाटक का रंगमंचीय होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सफल रूप से प्रदर्शित नाटक को ही सफल नाटक कहा जाता है। नाटककार नाटक की रचना रंगमंच पर प्रदर्शित करने केलिए ही करते है। नाटक में क्रिया ही प्रधान होती है। अर्थात नाटक में जो कुछ लिखा होता है उसकी अपेक्षा वही बात ज्यादा महत्वपूर्ण होती है जो रंगभूमि पर देखी जा सकती है। नाट्य लेखन का उद्देश ही है उसे रंगमंच पर प्रदर्शित करना। ऐसा नाटक जो प्रदर्शित की क्षमता न रखता हो वह सफल नाटक नहीं माना जा सकता है। प्रसिद्ध आधुनिक नाटककार मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल और सुरेन्द्र वर्मा भी इसी मत में विश्वास रखते हैं कि जो नाटक प्रदर्शन की क्षमता से वंचित हो, वह सफल नाटक नहीं है।

सुरेंद्र वर्मा ने नाटक में क्रिया को प्रधानता दी। रंगमंचीयता को दृष्टि में रखकर कथावस्तु के अनुरूप क्रियाशील पात्रों का सृजन, आकर्षणीय भाषा व संवाद, अभिनय, रंग सज्जा, ध्वनि एवं प्रकाश योजना एवं नकाब प्रयोग को महत्व दिया।

रंगमंचीय विशेषताओं को अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर परखने की प्रथा पाई जाती है। नाटक के प्रदर्शन के दौरान रसोद्रेक हो इसके लिए नाटककार अभिनय, रंग सज्जा, परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग आवश्यकतानुसार एवं सृजनात्मक रूप से करता है। नाटककार सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर अनेक विशेषताएँ पाई जाती है।

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक में शीलवती, ओक्काक, महामात्थ, महाबलाधिकृत और अन्य पात्रों द्वारा वाचिक एवं आंगिक अभिनय रसोद्रेक करता है। नाटक के प्रारंभ में महत्तरिका का गहरी साँस लेते हुए यह कहना “मुझसे सहन नहीं हो रहा है वह श्रृंगार इसलिए“।(1) दर्शक में उत्सुकता उत्पन्न कर देता है। फिर फीकी मुस्कान द्वारा अनहोनी की ओर ईंगित करते व्यंग्य करना भी नाटक के प्रारंभ से ही दर्शक को पकड़ कर रखता है। “ओक्काक का अन्तर्मुख-सा होकर दिन गिनती करना”(2), “दोनों हथेलियों से माथा ठोकना”(3), “दृष्टि बचाकर ग्लानिमिश्रित क्रोध में आना..”(4)। ओक्काक की ग्लानि, क्रोध आत्मविश्वास की कमी और निस्साहयता को दर्शाता है। नाटक के शुरू से अंत तक ओक्काक की आंगिक चेष्टाओं में और वाचिक अभिनय में निस्सहायता ग्लानि और क्रोध झलकता है। ओक्काक का अभिनय श्रोताओं में उसके प्रति सहानुभूति जगाता है। ईश्वर को संबोधित करता यह अभिनय ओक्काक की दुःस्थिति को प्रकट करता है यथा –

“ओक्काक – (खीझता हुआ) लेकिन कैसा है बनाने का यह ढंग? इसका रूप क्या होगा?

(कुछ आगे बढ आता है। दोनों हाथ ऊपर उठाकर, भर्राए स्वर में )

हे प्रभु। क्या संसार की सारी ग्लानि मेरे ही भाग में आनी थीं।“(5)

“ओक्काक - (दोनों कानों पर हाथ रखकर, ऊँचे स्वर में) मत बोलिए मेरे सामने यह शब्द । ...

मुझे इस शब्द से घृणा है.....धर्मनटी”(6)।

विवश रूप में लम्बी साँसे लेना, और दोनों कानों पर हाथ रखने का अभिनय ओक्काक की मानसिक स्थिति को प्रकट करता हैं।

शीलवती का अभिनय इस नाटक की सफलता का मूल कारण है। पहले अंक के अभिनय में शारीरिक भंगिमाओं की कमी शीलवती के आत्म विश्वास का सूचक है जबकि दूसरे अंक में प्रतोष के साथ उत्साह देखा जा सकता है। “प्रतोष के बाहुमूल पर कपोल रगड़ना, अधरों से छूकर फिर उसके बाँहों में समेटने”(7) का अभिनय दर्शक की धडकन को तेज कर देता है। शीलवती के द्धारा ऐसा अभिनय करवाकर सुरेन्द्र वर्मा दर्शक के इन्द्रियों को उत्तेजित करता है। तीसरे अंक में, प्रतोष से शारीरिक तृप्ति पाकर लौटने के बाद शीलवती के आंगिक एवं वाचिक अभिनय में तीव्रता देखी जा सकती है जो उसके आत्मविश्वास, तृप्ति एवं परिपूर्णता को बताता है। शीलवती की कसमासाना, ठंडी साँस भरना, गहरी साँस लेकर सूँघने का अभिनयन करके ओक्काक को चिढ़ाने का यह उदाहरण द्रष्टव्य है –

“ओक्काक – (मन्द स्मित से) तो ....... ? कैसी बीती रात?

शीलवती - (कसमासाकर, ठंडी साँस के साथ) पता ही न चला कि कब भीर हो गई।...और तुम्हारी?

ओक्काक – (कुछ ठहरकर, हल्की मुस्कान से) यह शयनकक्ष साक्षी है.....ये भितियाँ और गवाक्ष.... यह गन्ध कैसी है?.....(शीलवती हँसती है। कुछ ऊँचे स्वर में ) बोलो न ? कैसी है यह गन्ध? (फिर हँसती है) अंगराग? ... (हर शब्द पर नाहीं में सिर हिलाती हैं) गोरोचन? ..... लाक्षारास ? ...... सुरभि ?

शीलवती – (उन्मादिनी – सी) नहीं.... कुछ भी नहीं..... ?

ओक्काक - )विह्वल होकर) तब फिर।

शीलवती – (सूँघने की गहरी साँस लेकर) .....पहचानो....।

ओक्काक – (तीव्र स्वर में) शीलवती।

शीलवती – (स्थिर दृष्टि से देखती है) इस गन्ध से तुम्हारा कोई परिचय नहीं।......अगर होता, तो कल की यह रात न मेरे जीवन में आती, न तुम्हारे।

ओक्काक – (किंकर्तव्यविमूढ़) – सा कक्ष का आधा चक्कर लगाता है। यकायक, दाँए द्वार की ओर मुड़कर) महत्तरिका.... महादेवी के स्नान की व्यवस्था हो।

शीलवती – (उतनी ही ऊँचे स्वर में) नहीं.... (सहज स्वर में ) अभी नहीं।.....”(8)

शीलवती का अभिनय दर्शक को यह अनुभव करता है शीलवती ने प्रतोष के साथ काम में कैसी तृप्ति पाई है। शीलवती का अभिनय इतना प्रभावशाली है कि मानो विवाहित दर्शक अपने अनुभवों को याद करने लगता है और अविवाहित दर्शक इस प्रक्रिया से गुजरना चाहता है।

उसके बाद शीलवती का एक के बाद एक करके महामात्य, महाबलाधिकृत और राजपुरोहित से आत्मविश्वास के साथ आँखों में आँखें मिलाकर प्रश्न करने का अभिनय अति उत्तम है। शीलवती से ऐसा अभिनय करवाकर नाटककार दर्शक को उत्तेजित करता है और दर्शक शीलवती से पूरी तरह जुड़ जाता है और रचनाकार के उद्देश्य को स्वीकार करता है।

दृश्य योजना को लेकर समय के साथ अनेक बदलाव आ रहे है। विज्ञान सामान्य से विशिष्टता की ओर का प्रभाव रंगमंच पर भी पडने लगा है इसलिए एक सा प्रतीत दृश्य योजना रंग सज्जा और दृश्य बंध को अलग-अलग करके देखा जा रहा है।

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में नाटक का दृश्यबंध राजप्रसाद का शयनकक्ष है। नाटक सूर्यास्त, रात्रि के विभिन्न पहर और सूर्योदय, तीन अंकों में पूरा होता है। तीनों के एक ही दृश्यबंध में बांध दिया गया है। नाटककार ने इसके लिए संदूकिया दृश्यबंध (बाक्स सेट) की कल्पना की है। नाटक का दृश्यबंध ऐसा है –

“राजाप्रसाद का शयनकक्ष। मंच की अगली सीमा पर दाई और बाई ओर एक-एक द्वार।

दाँए के बाद मदिराकोष्ठ, बाँए के बाद चौकी पर दर्पण एवं प्रसाधन-सामग्री, सामने आसन्दी।

बाई ओर बडा जालगवाक्ष, बाई तथा सामने की दीवार के लगभग मध्य भाग से लेकर दोनों

(दीवारों) के सम्मिलन तक। मंच के घीचोंबीच ऊपर से लटकता मुक्तालाप।

सामने की दीवर के पास शैय्या। कुछ आसन एवं चौकियाँ”(9)।

इस एक दृश्यबंध के द्वारा नाटककार ने तीन अंकों और तीन अलग-अलग समय के पहरों को आसानी से प्रस्तुत किया है। नाटक में शैया एक प्रमुख बिंदु के रूप में उभरकर आता है। शैया सारे नाटक की केन्द्रीय संवेदना को प्रकट करता नाटक का निर्णायक बिन्दु रखता है। इस दृश्यबंध की सराहना करते हुए जयदेव तनेजा लिखते हैं – “नाटककार ने दृश्यबंध को पर्याप्त लचीला बनाकर ओक्काक तथा महत्तरिका और प्रतोष तथा शीलवती के समानान्तर चलते दृश्यों को उनके पूरे वैषम्य और नाट्य-वैभव के साथ कलात्मकता से प्रस्तुत किया है”(10)। एक ही सेट में नाटककार ने दृश्य बदलते ही कभी ओक्काक तथा महत्तरिका, फिर प्रतोष तथा शीलवती और फिर ओक्काक को बताया है।

नाटक के पहले अंक में राजप्रांगण के दृश्य को महत्तरिका गवाक्ष से देखते और राजप्रांगण में नागरिकों की भीड़ और शीलवती का प्रतोष को जयमाला पहनाने के कृत्य की जानकारी ओक्काक को देने का दृश्य सुरेन्द्र वर्मा की प्रयोगशीलता का परिचय देता है। जयदेव तनेजा के शब्दों में – “इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से यह प्रसंग दृश्य और सूच्य के बीच की स्थिति का है, जहाँ नाटककार ने केवल स्थूल बाह्य यथार्थ का प्रत्यक्ष दृश्याकन न करके उसके भीतर के साथ और उससे पडनेवाले प्रभाव को प्रस्तुत करके अपनी आधुनिकता का परिचय दिया है”(11)। नाटककार ने यहाँ पर राजप्रांगण के दृश्य को न बताकर एक ही सेट से काम लिया और राजप्रांगण के दृश्य को बताने से ज्यादा महत्वपूर्ण शयनकक्ष में पीडा, विवशता, जिज्ञासा और करूणा क अनुभव कर रहे ओक्काक और उसकी प्रतिक्रिया को दर्शकों तक पहुँचाकर उस पात्र के साथ सहानुभूति उत्पन्न करना है। इसी दृश्य के बारे में पान्डेय विनय भूषण का कहना है कि – “महत्तरिका द्वारा गवाक्ष से राजप्रांगण के दृश्य का चित्रण शास्त्रीय दृष्टि से सूच्य और दृश्य का मित्र प्रयोग होने के कारण एक अनूठा शिल्प प्रयोग बन गया है”(12)।

नाटककार ने राजप्रसाद के शयनकक्ष का प्रयोग प्रतोष के शयनकक्ष के रूप में किया है। नाटक में ओक्काक और प्रतोष के लिए वह एक शैया अलग-अलग शैया लगे। श्रोता केलिए वह शैया एक ही है, उस पर शीलवती को लेने – देने वाला व्यक्ति अलग है।

सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में कथावस्तु के अनुकूल वातावरण पाया जाता है। नाटककार ने ध्वनि का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया है। “‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में राजाप्रांगण में एवं उत्सव के वातावरण में मंगलवाद्य-ध्वनि सुनने को मिलता है। मधुर संगीत का प्रयोग नाटक को भावात्मक स्तर पर प्रभावशाली बनाकर प्रस्तुत करता है। नेपथ्थ से धीमी उद्घोषणा। धीरे-धीरे प्रकाश होता है। नेपथ्य में मंगलवाद्य-ध्वनि, जो क्रमशः बहुत गन्द हो जाती है”(13)। मधुर संगीत श्रोता को राजप्रांगण और उत्सव का आभास दिलाता है। कुछ क्षण बाद ध्वनि की उँची नीची लय का प्रयोग करके नाटककार ने महाराज ओक्काक की मनःस्थिति को प्रभावशाली रूप से दर्शाया है।

“महामात्य – आज सारी रात तुम महाराज के साथ रहना। उनका मन बहुत अस्थिर है। कही कुछ कर बैठें।

महत्तरिका – जो आज्ञा।

महामात्य का प्रस्थान। महत्तरिका फिर गवाक्ष के सम्मुख आ जाती है। वाद्य – ध्वनि की ऊँची-

नीची लय।

ओक्काक महाराज का निःशब्द प्रवेश। कुछ क्षणों महत्तरिका की ओर देखता रहता है”(14)।

शीलवती का धर्मनटी बनकर अपने साथ रात बिताने केलिए पर पुरूष चुनना ओक्काक को पसन्द नहीं था। ओक्काक के भीतर की ग्लानि, आक्रोश, निस्सहायता और उथल-पुथल को नाटककार ने संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया है। “नगाडे की ध्वनि के साथ घोषण करवाकर”(15) नाटककार ने नाटक के साथ न्याय किया है। “वाधों की ऊँची-नीची लय, यकायक वाद्य-ध्वनि का विलुप्त होना”(16) नाटक में जिज्ञासा उत्पन्न करता है। नाटककार ने साँसों, वस्त्रों की सरसराहट, आभूषणों की झंकार जैसे सूक्ष्म ध्वनियों का भी प्रयोग किया है जो नाटक को बहुत प्रभावशाली बनाता है। प्रतोष और शीलवती के सम्भोग के समय अँधेरे में साँसों और वस्त्रों की सरसराहट बहुत ही रोमांटिक लगता है और नाटककार की सृजनशीलता को दर्शाता है।

सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक नाटक को प्रारंभ करने के लिए मंच पर प्रकाश होता है। प्रथम अंक में कहीं और प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग नहीं हुआ है।

अन्य अंक में दृश्य को बदलने केलिए प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग हुआ है। ओक्काक और महत्तरिका के दृश्य से शीलवती और प्रतोष के दृश्य को बदलने केलिए मंच को बदले बिना प्रकाश व्यवस्था की सहायता ली गई है।

“मंच का प्रकाश क्रमशः मंद होते हुए बुझ जाता है – केवल गवाक्ष पर चंद्र किरणों सा बहुत धूमिल आलोक रहता है। (विराम) मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश होता है। ओक्काक एवं महत्तरिका के स्थान पर क्रमशः शीलवती तथा प्रतोष दिखाई देते है”(17)।

प्रकाश - परिवर्तन करके लेखक ने ओक्काक के राजप्रासाद के शयन-कक्ष को प्रतोष के शयनकक्ष में बदल दिया है। जयदेव तनेजा के शब्दों में – “यह नाटककार की कुशल प्रकाश व्यवस्था का प्रमाण है कि उसने दृश्यबंध को लचीला बनाकर ओक्काक तथा महत्तरिका और प्रतोष तथा शीलवती के दो-दो दृश्यों को उनके पूरे वैषम्य और नाट्य-वैभव के साथ क्रमशः समानांतर दृश्यों के रूप में कलात्मकता से प्रस्तुत किया है”(18)। इस प्रकार प्रकाश की उपयुक्त व्यवस्थाओं से नाटक की मंचीय प्रस्तुति का प्रभाव दुगुना हो जाता है। नाटक का तीसरे अंक का प्रकाशीय व्यवस्था का सफल नमूना है –

“अन्धकार एक पुरूषाकृति का आभास, जो धीरे धीरे मंच पर टहलती रहती है –

महत्तरिका – (आवेश में ) बधाई हो महाराज।......उजाला । ...प्रकाश......आलोक। (पूर्ववर्ति तीनों शब्दों के साथ तत्क्षण-तीन बार में.......पूर मंच आलोकित हो जाता है”(19)।

मचं पर अन्धकार है, और पुरूषाकृति अर्थात ओक्काक टहल रहा है क्योंकि यह रात्रि उसने बेचैनी की अवस्था में काटी है। इसलिए अन्धकार है। महत्तारिका का प्रातःकाल प्रवेश और संवादों के साथ-तीन बार मंच पर तत्क्षण आलोक हो जाता है। शीलवती राजप्रासाद लौट आई है। ऐसे वातावरण की सृष्टि के लिए तथा नाटक के मूलभाव को संप्रेषित करने केलिए पूरा मंच आलोकित हो जाना, नाटक की गति को तीव्र करता है।

अंधकार के समय प्रकाश-वृत्त का शैया पर केन्द्रित रहना, शैया को बिम्ब साबित करता है। इस नाटक में शैया का महत्वपूर्ण स्थान है – ओक्काक के जीवन में और शीलवती के नारीत्व में भी। इस नाटक में अंधकार के दौरान हल्की कुनमुनाहट, वस्त्रों की सरसराहट आदि ध्वनि दर्शक को स्मृति लोक में ले जाता है।

नाटककार ने नाटक की कथावस्तु को ध्यान में रखकर अंधकार में प्रतोष और शीलवती के बीच संवादों की सृष्टि की है –

“प्रतोष – शीSSल...।

विराम

शीलवती, हूँ..।

विराम

प्रतोष – दीप जला दूँ..।

शीलवती – नहीं.....सब कुछ बदल जाता है प्रकाश के साथ.....।

विराम। चपक में मदिरा डाले जाने की ध्वनि।

प्रतोष – आधी रात बीत गई....।

शीलवती – सजग होकर कैसे कठोर वचन बोलते हो।

प्रतोष – क्यों क्या हुआ

शीलवती – (फिर उसी स्वर में) यह कहो कि आधी रात....और बची है.....।

हँसी। वस्त्रों की सरसराहट । आभूषणों की झंकार”(20)।

अंधकार में बोली जाने वाले इन संवादों को सुनकर दर्शक अपनी सृजनात्मकता के अनुसार दृश्य देखता है। नाटक के अंत में शीलवती जब ओक्काक पर सामर्थ्थ न होते हुए भी विवाह करके उसका जीवन नष्ट करने का आरोप लगाते समय प्रकाश शीलवती और ओक्काक के साथ-साथ शैया पर केंद्रित रहता है। 


संदर्भ सूची – 

1. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.20

2. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

3. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

4. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.25

5. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.26

6. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.27

7. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.58

8. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.68,69

9. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.19

10. समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंच – जयदेव तनेजा – पृ.सं.17

11. आज के हिन्दी रंगनाटक, परिवेश और परिदृश्य – जयदेव तनेजा – पृ.सं. 142

12. हिन्दी के नये नाटकों में प्रयोग तत्व – पांण्डेय विनय भूषण – पृ.सं.125

13. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.20

14. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.22

15. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.35

16. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.41

17. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.54

18. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.54

19. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

20. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.63