Review of Research Journal,
नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य
नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य
डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार,
पूर्वसहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय,
तमिलनाडु, भारत।
www.thehindiacademy.com
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ABSTRACT: व्यंग्य कविताओं में
नागार्जुन बेजोड़ है। नागार्जुन के काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा
राजनीतिक कविताओं से अटा पड़ा है। नागार्जुन की राजनीतिक कविताओं में दृष्टि का पेनापन और कबीर की तरह
खुली आँखों में जीवन का निरीक्षण है। समकालीन राजनीतिक और उससे संचालित जीवन से गहरे
जुड़े हुए थे। अवसरवादिता चुनाव के टिकट प्राप्त करने की दौड़-धूप, नेताओं के आडंबर आदि सब पर कवि की दृष्टि रही है और उसमें व्याप्त
बुराइयों पर व्यंग्य किया गया है। यही स्थिति आज हम इस साल चुनाव में भी प्रत्यक्ष
रूप से देख सकते है।
KEYWORDS: राजनीतिक व्यंग्य, सामाजिक
अव्यवस्था, अंध सत्तावाद, मानवीय सम्बंध, स्वार्थपरकता, भ्रष्टता एवं कर्तव्यविमुखता आदि।
नागार्जुन की कविताओं में राजनीतिक
व्यंग्य
डॉ.
प्रकाश चन्द्र भट्ट के अनुसार :
"अकेले
नागार्जुन की ही कविता पढ़कर हिन्दी कविता के व्यंग्य का आरंभिक रूप-विकास और
उत्कर्ष की अवस्थाओं को जाना जा सकता है। वे हिन्दी व्यंग्य काव्य के एक मात्र सबल
और सशक्त प्रतिनिधि है। व्यंग्य के विभिन्न स्तरों से उनकी कविता सजी हुई है। अशिव
का प्रतिकार और समाज के मंगल का ध्येय उससे ध्वनित हो रहा है”।1
डॉ.
शेरजंग गर्ग के शब्दों में :
"ऊवड़-रबाबड़
किन्तु चट्टान की सी मजबूती रखनेवाली, क्षिप्र और हथौड़ी सी चोट करने वाली, वे फक्कड़ और निर्भिक व्यंग्य रचनाएँ लिखने के कारण नागार्जुन का स्थान
अन्य व्यंग्यकारों की तुलना में हमेशा अलग रहेगा”।2
नागार्जुन ने राजनीतिक पर आधारित व्यंग्य कविताओं की खूब रचना की है।
उनका सबसे प्रखर रूप ही राजनीतिक व्यंग्य कविताओं में निखर कर आया है। जनता का
जीवन और उसके भूत, वर्तमान और भविष्य का निर्णय राजनीति कर रही है। नागार्जुन के काव्य का
बहुत बड़ा हिस्सा राजनीतिक कविताओं से अटा पड़ा है। उनकी प्रारंभिक कविताओं में
नेहरू युग, गाँधी युग की पहचान मिलती है तो इधर की कविताओं
में इंदिरा युग जनता शासन काल, लोकतांत्रिक उथल-पुथल,
राजनीतिक हिंसा, भ्रष्टाचार, अंध सत्तावाद तथा राजनीतिक की जनविरोधी नीतियों का हाल चाल अंकित है।
नागार्जुन राजनीतिक दृष्टि से एक सजग लेखक थे, जो तमाम चीजों को गहराई
से समझते थे, और परखते थे, "नागार्जुन
प्रगतिशील कवियों के सिरमोर थे, खास बात यह है कि उनमें वे
राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक सजग थे, ऐसी स्थिति में
राजनीतिक उथल-पुथल के युग में वे भारी संख्या में राजनीतिक कविताएँ लिखते थे,
तो यह उनके लिए आकस्मिक नहीं था, राजनीतिक
कविताओं को साहित्य में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है। कारण यह है कि उनमें
राजनीति बहुत स्पष्ट रूप से आती है और उनकी शैली में प्रायः एक ऐसा ‘सीधापन' होता है, जो अभिजात
साहित्यिक कवि को बर्दाश्त नहीं होता है”।3 इस प्रकार नागार्जुन की राजनैतिक विचार एकदम स्पष्ट थी। वे समकालीन
राजनीतिक और उससे संचालित जीवन से गहरे जुड़े हुए थे। अपनी सीधी सादी भाषा में
उनकी व्यंग्य वद्रुपता देखिए जिसमें जिसपर व्यंग्य किया गया है वह तिलमिलाकर रह
जाता है तो उसे कवि चुनौती भी देता है –
“सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा
चूक
जहाँ वहाँ दगने लगी, शासन की बंदूक
जली ढ़ूँठपर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक”।4
स्पष्टवादिता नागार्जुन को सबसे बड़ी विशेषता थी, इतनी स्पष्टवादिता हिन्दी
के किसी भी कवि में नहीं मिलेगी वे बराबर शासक हो या राजनीतिक दल, सब पर गहरी नजर रखते हैं।
सच्चा जन कवि अपने आस पास होने वाली घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं
रह सकता, हमारे रोजमर्रा के जीवन
में आम आदमी कितनी दयनीय स्थिति के बीच जी रहा है और आज की राजनीति इतनी फुदड़
होती जा रही है कि उसे साधारण जन के दुःख दर्द से कोई मतलब नहीं, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए वोट की राजनीति के लिए कभी हरिजनों पर
अत्याचार तो कभी सांप्रदायिक दंगों की आँच में अपने-अपने हाथ सेंकते हैं।
नागार्जुन जन कवि होने के कारण राजनीतिक रूप से अधिक संयत कवि हैं। इसी क्रम में
उन्होंने गाँधी, नेहरू और इंदिरा पर तो कविताएँ लिखते ही थे
मोरारजी, राजनारायण, संजयगाँधी आदि पर
भी व्यंग्य कविताएँ लिखी है। अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और राजनीति से संबंधित कविताओं
की भी रचनाएँ की थी।
‘भूस का पुतला' शीर्षक कविता कांग्रेसी
विचारधारा को उपहासात्मक संदर्भ को संकेतिक शैली रेखांकित-व्याख्यायित करती है। इस
कविता में कवि ने भूस के पुतले को कांग्रेसियों का प्रतीक माना है। जिस
प्रकार ‘भूस का पुतला' हल्का,
भीतर से खोखला निष्प्राण और निष्क्रिय हो गये हैं, कवि की दृष्टि में उसी प्रकार कांग्रेसी भी खोखले, निष्प्राण
और निष्क्रिय हो गये हैं। कवि कहते है कि “भूस का पुतला’ टांग फैलाकर, बाँहे उठाकर खड़ा है। यह ककड़ी तरबूज
की खेती की निगरानी करता है। लेकिन उसका मालिक घर में निश्चिंत होकर अपाहिज की
भांति सोया है। व्यंजना है कि यही स्थिति देश की भी है। जनता निश्चित सो रही है और
देश की रक्षा का दायित्व कांग्रेसी रूपी भूस के पुतले को दे दिया है। कविता के अंत
में कवि 'दिल, दिमाग भूस की खद्दर की
थी खान' कहकर स्पष्ट रूप में परिधान के आधार पर कांग्रेसियों
पर व्यंग्य करता है”।5
‘आये दिन बहार के’ शीर्षक कविता चुनाव के
संदर्भ को सत्ता की तरफ से टिकट मिलने के परिप्रेक्ष्य में उजागर करती है। कवि
कहते हैं कि दिल्ली से नेता भिन्न-भिन्न गति लय में चुनाव टिकट लेकर लौट रहे हैं।
कवि कहते है कि इन नेताओं में सत्ता की तरफ़ से टिकट मिलने पर प्रस्नता की लहर
दौड़ गयी है। कोई रीतिवादी नायिका अपने प्रियतम को देखकर भी इतनी प्रसन्न नहीं हुई
होगी, जितना कि कांग्रेसी नेता टिकट मिलने पर प्रसन्न है।
स्वेत-स्याम रतनार आँखियाँ' रीतिवादी नायिका की ओर संकेत
करता है और ‘दाने अनार के’ नौटंकी
संस्कृति वाले नये लोकगीत की तरफ। कवि स्वेत-स्याम रतनार' तथा
'दाने अनार के’ आदि आलम्बनों का प्रयोग
कर व्यंग्य में प्रौढ़ता की गहराई पैदा कर देता है।
"स्वेत-स्याम रतनार आँखिया निहार के
सिण्डिकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के
दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के
खिले है दाँत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के।"6
‘रहा उनके बीच मैं” शीर्षक कविता में कवि नेताओं पर व्यंग्य
करते हुए कहते हैं कि नेतागण राजनीति के दाँव पेच को जानकर भी यह पार्टी अच्छी है
वह पार्टी अच्छी है उसमें लगे रहते हैं। पार्टी के अंतर्गत अच्छे-बुरे कामों के
बीच लगे रहते हैं। किसी की हार होती है तो घँस जाते है और फिर दुबारा चुनाव के समय
आने पर चौराहों नुक्कड़ों पर स्पीच देते है। इस प्रकार कवि राजनीति दाव पेंच को
रेखांकित कर नेताओं पर व्यंग्य किया है।
“रहा नके बीच मैं!
था पतित मैं नीच मैं
दूर जाकर गिरा बेबस पतझढ़ु में
धँस गया आकंठ कीचड़ में सड़ी लाशे मिलीं
उनके मध्य लेटा रहा ऑखें मींच, मैं
उठा भी तो झाड आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं!
रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं नीच मैं!!”7
‘इन्दुजी क्या
हुआ आपको’ शीर्षक
कविता व्यक्तिगत राजनीतिक कविता श्रीमती इंदिरागाँधी की कूटनीतिज्ञता, सत्तामदांघता, भ्रष्टता और तानाशाही प्रशासनिकता के संदर्भ को तीखी व्यंग्यात्मक
प्रतिक्रिया के तौर पर रेखांकित- व्याख्यायित करती है। कवि
को श्रीमति गाँधी के व्यक्तित्व से काफ़ी क्षोभ है तथा उसके प्रति कार्य विद्रोह
की भावना भी प्रबल है। कवि मानवतावादी विचारधारा के पोषक है। वह जन जीवन को शांत
सुरक्षित एवं सुखी देखना चाहते हैं। इसलिए वह कथाकधित प्रशासन के जुल्म अन्याय का
विरोध करता है। वह तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रति तीव्र
प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ कहता है :-
“क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को।
इन्दु जी, इन्दु
जी, क्या हुआ आपको?
बेटे के तार दिया,
वोट दिया बाप को
इन्दु जी क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?”8
इसी प्रकार कवि श्रीमति गाँधी के प्रति रोष प्रकट करते हुए कहते हैं
कि कथाकथित प्रधानमंत्री ताशाह बन गयी है। वह सत्ता के मद में बेहोश हो गयी है।
बाप के नाम पर वोट माँग रही हैं, वे छात्रों के आन्दोलन को दबाने के लिए बन्दूकें
चला रही हैं। उनका कूर प्रशासन छात्रों के खून का प्यासा हैं। यद्यपि कथित
प्रधानमंत्री बचपन से गाँधी और टैगोर के पास रही, फिर भी उनके संगत के छाप नहीं पड़ी। अन्त में कवि
कहते हैं कि वह रानी-महरानी हैं वह नवाबों की नानी है। वह नफाखोर सेठों की सगी माई
है। वह काले बाजार की कीचड़ है। अंत में कवि उसके तानाशाह को हिटलर से साम्य करता
है :-
“सुन रही गिन रही / एक एक टाप को
हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की
एक एक टाप को
छात्रों के खून से नशा चढ़ा आपको
यही हुआ आपको / यही हुआ आपको”।9
इस प्रकार इस कविता में कवि ने श्रीमति इंदिरा गाँधी की नृशंस हिंसा
प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य किया है।
‘तीनों बन्दर गाँधी’ के कविता में अपने-आपको गाँधी का पटु
शिष्य मानने वाले तीन बन्दरों पर कवि ने व्यंग्य की मीठी चुटकी ली है। ये बन्दर
गाँधी के भी ताऊ है, जो गांधी सूत्रों को अपनी इच्छानुसार परिभाषित कर रहे हैं।
“बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के”10
आगे हैं
: -
“दिल की कली खिली है, खुश है
तीनों बन्दर बापू के
बूढे है फिर भी जवान है तीनों बन्दर बापू के
सेठों के हित साध रहे हैं ..........................
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं .......................”।11
सर्वोदयी समाज के ये मठाधीश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सत्ताधारी
कांग्रेस से लाभान्वित हो रहे हैं, फिर भी प्रत्यक्ष रूप से दलातीत सिद्ध करने में कोई
कसर नहीं उठा सकते : -
“दल से उपर दल से नीचे
मुस्काते आँखे मींचे हैं तीनों बन्दर बापू के
करें रात दिन टूट हवाई
बदल बदल कर चखे मलाई तीनों बन्दर बापू के,”12
प्रस्तुत कविता गांधीवाद के तहत नेताओं की स्वार्थपरकता, भ्रष्टता एवं
कर्तव्यविमुखता के संदर्भ में स्वर को मुखरित करती हैं।
समसामयिक राजनीति में बापू के
तीनों बन्दर गीता की खाल छील रहें हैं। उपनिषदें उनकी दाल हो गये हैं। कवि इन
नेताओं की स्वार्थपरकता पर व्यंग्य करता हुआ कहता है :-
“छील रहे है गीता की खाल
उपनिषदें हैं उनकी ढाल
उधर सजे मोती के थाल
इधर जमें सतयुगी दलाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल।“13
नागार्जुन परिवेश की एक-एक महत्वपूर्ण घटना पर कविता लिखते हुए उन
सारी कविताओं के द्वारा इन घटनाओं के बीच समानता का एक बिन्दु उकेड़ते हैं और
समकालीन यथार्थ सम्पूर्णता में परिभाषित हो जाता है। समानता के इस बिन्दु की ओर
नागार्जुन अपनी ओर से निश्चित संकेत नहीं करते, दरअसल कविता का पाठक विभिन्न सामाजिक राजनैतिक घटनाओं
पर लिखी गयी इन कविताओं से गुजरते हुए अपनी संवेदना के स्तरपर इन घटनाओं के कारण
का प्रस्थान बिन्दु को स्वयं ही महसूस करने लगता है। समय के एक दौर में लिखी गयी
अपनी कविताओं का निहितार्थ प्रेषित करने की प्रक्रिया में अपने पाठक या श्रोता की
अपनी रचना में यह हिस्सेदारी एक जन कवि द्वारा ही संभव है। इस प्रकार नागार्जुन एक
जन कवि थे।
"नागार्जुन के पास जो वैविध्य है समूचे विश्व का
जो चित्र नागार्जुन में है, जो गहरी सहानुभूति आस्था तथा
सहभागिता उनकी जनता के साथ थी, जिस तरह वे अपनी सारी ताकत
देश से प्राप्त करते थे, अपनी संस्कृति तथा विश्व संस्कृति
से प्राप्त करते थे, वह सिर्फ वाल्ट पिटर्मन में देखने में
आती है”।14
निष्कर्ष
:
नागार्जुन
की यह विशेषता है कि सामयिक समस्याओं पर उनकी प्रतिक्रिया तुरन्त व्यक्त हो रही
है। देश की आजादी का दुरुपयोग करने वाले नेता, जमींदार और पूँजीपति सबका उन्होंने व्यंग्य का निशाना
बनाया है। कवि की इधर की कविताओं में राजनीतिक घटनाओं पर काफ़ी सुन्दर व्यंग्य
लिखे गये हैं। अवसरवादिता चुनाव के टिकट प्राप्त करने की दौड़-धूप, नेताओं के आडंबर आदि सब पर कवि की दृष्टि रही है और उसमें व्याप्त
बुराइयों पर व्यंग्य किया गया है। सदैव जनशक्ति का आदर करनेवाला, अवसरवादी नेताओं का नकाव उलटनेवाला रूप लेकर यह जन-कवि उपस्थित हुआ है। नागार्जुन
कहता है कि – “आज सच बोलना जुर्म हो गया है। सच बोलने पर
हानि उठानी पडती है और झूठ बोलने पर मेवा-मिसरी चखते हैं। चापलूसों की इस बढती हुई
कद्र पर कवि ने व्यंग्य किये हैं, जिसमें सामाजिक अव्यवस्था स्पष्ट हो रही है। पर
इसका मूल दूषित राजनीति ही है”।15
संदर्भ
सूची :
1) नागार्जुन - सत्यनारण – पृ.52
2) नागार्जुन - सत्यनारण –
पृ.52
3) नागार्जुन - सत्यनारण -
पृ.130
4) नागार्जुन - सत्यनारण -
पृ.118
5) नामवर सिंह - नागार्जुन
की प्रतिनिधि कविताएँ – पृ.93
6) नामवर सिंह - नागार्जुन
की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.102
7) नामवर सिंह - नागार्जुन
की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.22
8) नामवर सिंह - नागार्जुन
की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.104
9) नामवर सिंह - नागार्जुन
की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.104
10) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
11) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
12) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
13) नामवर सिंह - नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताएँ - पृ.108
14) नागार्जुन - सत्यनारण –
पृ.130
15) नागार्जुन : जीवन और
साहित्य – पृ. 59