डॉ ए.सी.वी.रामकुमार
सहायक प्राध्यापक
हिंदी विभाग, तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय।
निर्मलवर्मा |
उपन्यास में कथानायक ‘मैं’ (शायद यह निर्मल वर्मा हो सकता है, न भी हो सकता है या कोई भी प्रवासी भारतीय भी हो सकता है) को एक दिन टूरिस्ट एजेन्सी से उनके होस्टल को फोन आती है कि तुरन्त यहाँ आओ। वहाँ टूरिस्ट का मुख्य अधिकारी उसे आस्ट्रिया से आए कुछ जर्मन यात्रियों को शहर घुमाने के लिए गाइड़ के रुप में काम सौंपता है। जर्मन लोग थोड़ी अंग्रेजी भी जानते हैं। नायक छोटी सी आर्थिक सहायता के रुप में ऐसा काम छुट्टियों में करता रहता है। इससे पैसे भी मिलते हैं। उस रात वह पेलिकान में देर तक बैठकर वोट्का पी लिया। छात्रावास के चौकीदार को देर से आने की खीझ से बचने के लिए तीन क्राउन दिए। चौकीदार ने दो पत्र दिए, एक बहन का, जिसे देखकर उसकी उत्सुकता मर गई। थानथुन, बर्मी छात्र जिसे टी०टी० कहा जाता है, फ्रांज पेटर और उसकी गर्लफ्रेंड मारिया - ये तीन पात्र और हैं, जो उपन्यास में गाहे और बेगाहे आते रहते हैं।
मुख्य कथा होटल योरूपा की दूसरी मंजिल कमरा नं० 11 में अपने लघुवयस पुत्र मीता के साथ ठहरी रायना रैमान और ‘मैं’ के साथ चलती रहती है। कथा कुल ढ़ाई दिन की है। नायक रायना को प्राग घुमाता है। वहाँ के सभी दर्शनीय स्थान और चीजें दिखलाता है। रायना पहले भी प्राग आ चुकी है, पर कुछ भूल गई है। उसे दो ही चीजें याद हैं, कासल के पास का सेंट वाइट्स और यहूदियों का पुराना कब्रिस्तान। सेंट वाइट्स इसलिए याद है कि रायना अपने पति जाक के साथ वहाँ तभी तक रुकी थी, जब वे गाथिक स्थापत्य पर किताब लिख रहे थे। अब जाक से उसका संबंध टूट चुका है। मीता को पति-पत्नी बाँट लेते हैं, कभी वह मैं के साथ रहता है, कभी बाप के साथ। रायना को कहीं बंधकर एक शहर में रहना पसंद नहीं। यहूदी कब्रिस्तान इसलिए याद है कि वह नाजी अत्याचारों की हल्की याद दिला जाता है।
बीच-बीच में अपने तीनों मित्रों की खोज-खबर भी लेता रहता है। मारिया को अंग्रेजी नहीं आती थी, फ्रांज को चेक, नायक और टी०टी० को जर्मन। कभी-कभी वे जल्दी में बोलते हुए गड़बड़ जाते थे कि किसके साथ हमें किस भाषा में बोलना चाहिए। फ्रांज प्राग से बाहर जाने के लिए अनुवेश-पत्र चाहता है। प्रांज जर्मन है। मारिया उसके साथ तभी जा सकती है, जब वह उसकी पत्नी हो। पर फ्रांज अनुवेश पत्र के लिए नहीं, अपनी इच्छा और अवसर पर ही मारिया से विवाह कर सकता था। ये विषय मारिया, फ्रांज, टी०टी० तथा 'मैं' नायक भी जानते हैं।
रायना आर्थिक रुप से स्वतंत्र है। ऐसी रायना को कुछ दिन नायक 'मैं'। प्राण के दर्शनीय स्थानों में घुमाता है। वे स्थान कैसे हैं और मन पर उनका प्रभाव कैसा पड़ता है, यह उपन्यास में सहज चित्रित होता चलता है। साथ घूमने से रायना और नायक 'मैं' के बीच आकर्षण जगता है। मानो दोनों, एक-दूसरे को चाहने लगे हैं। स्थिति में आवेग नहीं, अजीब-सी ठंडक, उदासीनता और उदासी है। वे जानते हैं कि इस संग-साथ, यहाँ तक कि शारीरिक मिलन की परिणति का कोई स्थाई रागात्मक संबंध नहीं बनने जा रहा। एक बार रायना मीता को अकेला छोड़कर 'मैं' के साथ छात्रावास आई। छात्रावास के उस कमरे में वह काफी खुल-सी गई। उस कमरे में उस रात दोनों ही सहसा अकेले हो गए थे। अकेलापन जो दुःख, पीड़ा और आँसुओं से बाहर हैं, जो महज जीने के नंगे बनैले आतंक से जुड़ा है - जिसे कोई दूसरा व्यक्ति निचोड़कर बहा नहीं सकता। वे किसी विशद जलधारा में डूबते-उतरते भटकते दो तिनकों जैसे हैं, जो मात्र संयोगवश कुछ क्षणों के लिए निकट आ गए हैं और शीघ्र सदा-सदा के लिए दूर हो जाने वाले हैं। कुछ दिन साथ रह लिए मन में कहीं ज्वार उठा और शरीर ने अपनी इच्छा पूर्ति तक कर ली, फिर भी यह सब कोई संबंध नहीं बना सके। आज इतना समय बीतने के बाद मैं उन दिनों को याद करने बैठा है और उनका हाल अपने ढंग से खोया-खोया सा कह चला है। बस, कुल इतनी कहानी है, जिसमें घटना के नाम पर बहुत थोड़ा सा है किंतु उस अनुभूति की जो हल्की सी छाप मन के किसी कोने में शेष है, वह कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ है।
संबंधों का विघटन :
पूर्व काल में संयुक्त परिवार परंपरा अधिक है। कालक्रम में विभिन्न परिणामों-औद्योगिक क्रांति, शहरी जीवन के प्रति मोह, कृषि के प्रति नीरस भाव, आधुनिकतम विलासपूर्ण जीवन के प्रति आकर्षित होना आदि के कारण सम्मिलित परिवार व्यवस्था का विघटन हुआ। बाद में शहर में भी स्त्री-पुरुष दोनों भी निरंतर धन के पीछे पड़ने के कारण अपने व्यक्तिगत जीवन में भी बेचैन का अनुभव कर रहे हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष के संबंधों में विघटन शुरु हुआ। प्रस्तुत उपन्यास में युवपीढ़ी के संबंधों में विघटन का चित्रण निर्मलवर्मा ने अत्यंत सहज शैली में यथार्थ के धरातल पर किया है।
नायक ‘मैं’ को चौकीदार सेंट पीटर दो पत्र देते हैं, एक तो बहन की दूसरी तो कालेज पुस्तकालय से पुस्तक वापस देने की। इन दोनों को बिना पढ़कर देखते ही समाचार समझ में आता है और विशेषकर बहन द्वारा लिखी गई पत्र से उनका दिमाग अस्त-व्यस्त हो जाती है। वह पत्र को पढ़ना नहीं चाहता था। यथा – “मैंने बत्ती बुझा दी। बहन का पत्र अब भी मेरी जेब में था, लेकिन मैंने उसे अगले दिन के लिए छोड़ दिया।“1
“मुझे अपनी बहन की चिट्ठी पढ़ने की इच्छा हुई…………….. फिर याद आया, बत्ती नहीं है। मैंने उसे मेज पर रहने दिया। मुझे हल्की-सी खुशी भी हुई कि उस रात मैं उसे नहीं पढूँगा।“2 इससे पता चलता है कि नायक मैं बत्ती न रहने के कारण बहन की चिट्ठी पढ़ने में असमर्थ हो गया। लेकिन इससे वह अत्यंत प्रसन्न होता है। साधारणतः घर की छुट्टी के लिए इंतजार करते हैं, लेकिन घर से संबंध ठीक न रहने के कारण बहन की चिट्ठी भी बहुत असहनीय जैसे हो गया। इसमें उपन्यासकार निर्मलवर्मा ने पारिवारिक संबंधों के विघटन की विषम स्थिति का सफल अंकन किया है।
रायना के साथ जाते समय नायक शहर दिखाते-दिखाते प्रश्न पूछता है कि क्या आप पहली बार प्राग आई थी। इसके उत्तर में रायना कुछ नहीं कहकर चुप रहती हैं, क्योंकि पहली बार अपने पति के साथ मिलकर आई थी, अब पति से संबंध टूट गया। इस संबंध विघटन के कारण अपने पति के बारे में फिर याद करना नहीं चाहती थी। बाद में वह कहती है कि “मैं अपने पति के साथ आई थी। वह गोथिक आर्किटेक्चर पर एक किताब लिख रहे थे, इसलिए चर्चा के अलावा हम कोई और चीज नहीं देख सके।“3
‘वे दिन' उपन्यास की और एक पात्र टी०टी० अपने दोस्तों से सब विषय बात करते हैं, लेकिन अपने घर के बारे में विशेषकर अपने पिता के बारे में कुछ नहीं बताते। कारण यह है कि उसका पिता अपनी माँ से दूर रहता है – “वह अपने पिता के बारे में चुप रहा करता था और कोई उसके बारे में नहीं पूछते थे। उसकी माँ दूसरा विवाह करने के बाद पश्चिमी बर्लिन में बस गई थी।“4
घर में पारिवारिक संबंध ठीक न रहने के कारण घर से लोग विमुख होते जा रहे हैं। पारिवारिक संबंधों में तनाव और टूटन के फलस्वरूप लोग बाहर रहना ही अधिक पसंद करते हैं। उपन्यास के नायक मैं भी इस प्रकार ही सोचते हैं। रायना ‘मैं’ से पूछती है कि - "आपको अपने घर की याद नहीं आती?5 इसके उत्तर में ‘मैं’ कहता है कि “मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा, नही…. मुझे यहाँ अच्छा लगता है।”6 इसी संबंध में नायक अपने दोस्त टी०टी० को भी इसी प्रकार का उत्तर देते हैं। “नहीं। मैं ने कहा। मैं हमेशा नहीं कहा करता था, ताकि मुझे कुछ ज्यादा न कहना पड़े।"7 इसी सिलसिले में टी०टी० भी कहता है कि - "मुझे घर की अब याद नहीं आता?”8
आधुनिक मशीन युग में जीवन भी मशीन की तरह हो गया है। जो भी हो बहुत संयम से रहते हैं। और पारिवारिक जीवन विशेषकर पति-पत्नी के संबंध टूटने पर भी कुछ भी परवाह नहीं करते हैं। ‘वे दिन’ उपन्यास में ‘मैं’ और रायना के बीच में रायना के पति का संदर्भ आते ही वह कहती है कि – “हम साथ नहीं रहते। उसका स्वर बहुत धीमा था। कुछ देर बाद उसने कहा, हम अलग हो गये हैं। उसे शायद यह भी नहीं मालूम कि मैं मीता के संग प्राग आई हूँ। उसका स्वर सहज और शांत था। उसमें भयावह कुछ भी नहीं था।“9
“डरो नहीं…….. उसने हँसकर कहा, मैं अपनी माँ के विवाह की खुशी में अकेला नहीं पिऊँगा।“10 निर्मलवर्मा ने इससे पारिवारिक टूटने के बारे में युवा पीढ़ी में परिवर्तन का आँखों देखा हाल चित्रण किया है। फ्रांज अपनी माँ की शादी के बारे में आपत्ति नहीं उठाते हैं लेकिन पूर्ण रूप से सहमत भी नहीं। इस प्रकार एक संघर्षपूर्ण मनःस्थिति का कारण था, सिर्फ पारिवारिक संबंधों का टूटन।
घर से दूर अधिक दिन रहने के कारण युवा पीढ़ी में किस प्रकार का परिवर्तन आता है, निर्मलवर्मा ने सफलतापूर्वक चित्रण किया है। ‘वे दिन’ उपन्यास में नायक मैं एक जगह इसी प्रकार का विचार व्यक्त करता है कि – “मैं घर के बारे में नहीं सोचता। मैं सोचता हूँ, एक उम्र के बाद तुम घर वापस नहीं जा सकते। तुम उसी घर में वापस नहीं जा सकते, जैसे जब तुमने उसे छोडा था।“11
इस प्रकार निर्मल वर्मा ने वे दिन में आधुनिक शहरी परिवेश में पारिवारिक संबंधों में विघटन दिखाया है। इसके साथ-साथ इसका परिणाम भी दिखाया है। पारिवारिक संबंध टूटने के कारण व्यक्ति के विचार में किस प्रकार परिवर्तन आते हैं और इस विषमता को झेलते हुए युवा पीढ़ी की यथार्थ चित्रण मैं फ्रांज, टीटी, रायना के द्वारा आधुनिकताबोध को संबोधित करते हुए चित्रण किया है।
संदर्भ सूची :
1) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 28
2) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 114
3) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 41
4) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 50
5) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 58
6) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 58
7) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 118
8) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 119
9) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 64
10) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 81-82
11) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 89
संदर्भ ग्रंथ सूची :
1) ‘वे दिन’ - निर्मलवर्मा - राजकमल प्रकाशन प्र.लि.,नई दिल्ली, 1990