श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 1
गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना – गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य।
पुरातन पद्धत्ति के अनुसार श्री हेमाडपंत...... श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं।
प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विग्न समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं।
फिर भगवती सरस्वती को, जिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैं, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं।
फिर ब्रहा, विष्णु, और महेश को, जो क्रमशः उत्पत्ति, सि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं। वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसागर से पार उतार देंगें।
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं जो कि कोकण में प्रकट हुए। कोकण वह भूमि है, जिसे श्री परशुरामजी ने समुद्र से निकालकर स्थापित किया था। तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं ।
फिर श्री भारद्वाज मुनि को, जिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ। पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्य, भृगु, पाराशर, नारद, वेदव्यास, सनक-सनंदन, सनत्कुमार, शुक, शौनक, विश्वामित्र, वसिष्ठ, वाल्मीकि, वामदेव, जैमिनी, वैशंपायन, नव योगींद्, इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृति, ज्ञानदेव, सोपान, मुक्ताबाई, जनार्दन, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, कान्हा, नरहरि आदि को नमन करते हैं।
फिर अपने पितामह सदाशिव, पिता रघुनाथ और माता को, जो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं। फिर अपनी चाची को, जिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं ।
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज को, जो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्याप्ति की अनुभूति कराते हैं।
श्री पाराशर, व्यास, और शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं ।
गेहूँ पीसने की कथा
सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया। वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे। उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछा, उस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर किया।
मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है। उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है। इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धारणा थी। परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था। बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़।
उनमें से चार निडर स्त्रीयाँ भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया ।
पहले तो बाबा क्रोधित हुए, परन्तु फिर उनका भक्ति भाव देखकर वे शान्त होकर मुस्कराने लगे। पीसते-पीसते उन स्त्रीयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के न तो घरदृार है और न इनके कोई बाल-बच्चे है तथा न कोई देखरेख करने वाला ही है। वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैं, अतः उन्हें भोजनाआदि के लिए आटे की आवश्यकता ही क्या हैं। बाबा तो परम दयालु है। हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें। इन्हीं विचारों में मग्न रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला। तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को आज्ञा दी। अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे- स्त्रीयों क्या तुम पागल हो गई हो। तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो। क्या कोई कर्जदार का माल है, जो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो। अच्छा, अब एक कार्य करो कि इस आटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ।
मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया है, उसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है। उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजा) का जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है। अभी जो कुछ आपने पीसते देखा था, वह गेहूँ नहीं, वरन विषूचिका (हैजा) थी, जो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है। इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये।
यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। मेरा कौतूहल जागृत हो गया। मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजा) रोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है। इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो। घटना बुद्धिगम्य सी प्रतीत नहीं होती। अपने हृदय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये। लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली। यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया ।
आटा पीसने का तात्पर्य
शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगाया, वह तो प्रायः ठीक ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है। बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया। पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहीं, वरन् अपने भक्तों के पापो, दुर्भागियों, मानसिक तथा शाशीरिक तापों से था। उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था। चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थे, वह था ज्ञान। बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँ, आसक्ति, घृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जाते, जिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर है, तब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं।
यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है। कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता है, उसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ। उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नही, चक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड है, उसी को दृढ़ता से पकड़ लो, जिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो उससे दूर मत जाओ, बस, केन्द्र की ओर ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।