मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-12 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-12

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-12

काका महाजनी, धुमाल वकील, 

श्रीमती निमोणकर, मुले शास्त्री, 

एक डॉक्टर के द्धारा बाबा की लीलाओं का अनुभव।


इस अध्याय में बाबा किस प्रकार भक्तों से भेंट करते और कैसा बर्ताव करते थे, इसका वर्णन किया गया हैं ।

सन्तों का कार्य



हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है। परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है। सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायः एक समान ही है। यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है। वे भवसागर के कष्टों को देखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है। सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है। वे उनसे पृथक नहीं है। श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे। वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी। उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था। वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे। उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे। पाठको.. अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें। भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे। उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था। यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी। तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था। अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन सी इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका। अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्धापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ अंशों तक तृप्त हो जायेगी। भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका। इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था। अतः यह सव उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था।

काका महाजनी

एक समय काका महाजनी बम्बई से शिरडी पहुँचे। उनका विचार एक सप्ताह ठहरने और गोकुल अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने का था। दर्शन करने के बाद बाबा ने उनसे पूछा, तुम कब वापस जाओगे। उन्हें बाबा के इस प्रश्न पर आश्चर्य-सा हुआ। उत्तर देना तो आवश्यक ही था, इसलिये उन्होंने कहा, जब बाबा आज्ञा दे। बाबा ने अगले दिन जाने को कहा। बाबा के शब्द कानून थे, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक था। काका महाजनी ने तुरन्त ही प्रस्थान किया। जब वे बम्बई में अपने आफिस में पहुँचे तो उन्होंने अपने सेठ को अति उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते पाया। मुनीम के अचानक ही अस्वस्थ हो जाने के कारण काका की उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी। सेठ ने शिरडी को जो पत्र काका के लिये भेजा था, वह बम्बई के पते पर उनको वापस लौटा दिया गया।

भाऊसाहेब धुमाल



अब एक विपरीत कथा सुनिये। एक बार भाऊसाहेब धुमाल एक मुकदमे के सम्बन्ध में निफाड़ के न्यायालय को जा रहे थे। मार्ग में वे शिरडी उतरे। उन्होंने बाबा के दर्शन किये और तत्काल ही निफाड़ को प्रस्थान करने लगे, परन्तु बाबा की स्वीकृति प्राप्त न हुई। उन्होने उन्हे शिरडी में एक सप्ताह और रोक लिया। इसी बीच में निफाड़ के न्यायाधीश उदर-पीड़ा से ग्रस्त हो गये। इस कारण उनका मुकदमा किसी अगले दिन के लिये बढ़ाया गया। एक सप्ताह बाद भाऊसाहेब को लौटने की अनुमति मिली। इस मामले की सुनवाई कई महीनों तक और चार न्यायाधीशों के पास हुई। फलस्वरुप धुमाल ने मुकदमे में सफलता प्राप्त की और उनका मुवक्किल मामले में बरी हो गया।

श्रीमती निमोणकर

श्री नानासाहेब निमोणकर, जो निमोण के निवासी और अवैतनिक न्यायाधीश थे, शिरडी में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे। निमोणकर तथा उनकी पत्नी बहुत-सा समय बाबा की सेवा और उनकी संगति में व्यतीत किया करते थे। एक बार ऐसा प्रसंग आया कि उनका पुत्र और अन्य संबंधियों से मिलने तथा कुछ दिन वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया। परन्तु श्री नानासाहेब ने दूसरे दिन ही उन्हें लौट आने को कहा। वे असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करना चाहिए, परन्तु बाबा ने सहायता की। शिरडी से प्रस्थान करने के पूर्व वे बाबा के पास गई। बाबा साठेवाड़ा के समीप नानासाहेब और अन्य लोगों के साथ खड़े हुये थे। उन्होंने जाकर चरणवन्दना की और प्रस्थान करने की अनुमति माँगी। बाबा ने उनसे कहा, शीघ्र जाओ, घबड़ाओ नही, शान्त चित्त से बेलापुर में चार दिन सुखपूर्वक रहकर सब सम्बन्धियों से मिलो और तब शिरडी आ जाना। बाबा के शब्द कितने सामयिक थे। श्री निमोणकर की आज्ञा बाबा द्धारा रद्द हो गई।

नासिक के मुले शास्त्रीः ज्योतिषी



नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्नहोत्री ब्राहमण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था। इन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे। वे एक बार नागपुर के प्रसिदृ करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मसजिद में गये। बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मसजिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया। बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुँह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बाँट दिये और उनके छिलके अपने लिये रख लिये। हस्तरेखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की। परन्तु बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग वाड़े को लौट आये। अब मुने शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गये। बाबा भी अपने नियमानुसार लेण्डी को पवाना हो गये। जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रँगेंगे। बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया। कुछ समय के बाद बाबा लौटे। अब मध्याहृ बेला की आरती की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी। बापूसाहेब जोग ने मुले से आरती में साथ करने के लिये पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि वे सन्ध्या समय बाबा के दर्शनों को जायेंगे। तब जोग अकेले ही चले गये। बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्त लोगों ने उनकी पूजा की। अब आरती प्रारम्भ हो गई। बाबा ने कहा, उस नये ब्राहमण से कुछ दक्षिणा लाओ। बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया। वे बुरी तरह घबड़ा गये। वे सोचने लगे कि मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राहमण हूँ, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है। माना कि बाबा महान् संत है, परन्तु मैं तो उनका शिष्य नहीं हूँ। फिर भी उन्होंने सोचा कि जब बाबा सरीखे महानसंत दक्षिणा माँग रहे है और बूटी सरीखे एक करोड़पति लेने को आये है तो वे अवहेलना कैसे कर सकते है। इसलिये वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरन् बूटी के साथ मसजिद को गये। वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मसजिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके। एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं। अपने गुरु को वहाँ देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। कहीं यह स्वप्न तो नहीं है। नही। नही। यह स्वप्न नहीं हैं। मैं पूर्ण जागृत हूँ। परन्तु जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहाँ कैसे आ पहुँचे। कुछ समय तक उनके मुँह से एक भी शब्द न निकला। उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया। परन्तु वे निर्णय न कर सके कि कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी मसजिद में कैसे आ पहुँचे। फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे। दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, परन्तु मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे। फिर सब जातिपाँति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता की कल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े। उन्होंने आँखें मूँद ली, परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आँखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा माँगते हुए देखा। बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये। उनके हर्ष का पारावार न रहा। उनकी आँखें अश्रुपूरित होते हुए भी प्रसन्नता से नाच रही थी। उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी। मुले शास्त्री कहने लगे कि मेरे सब समस्या दूर हो गये। आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए। बाबा की यह अदभुत लीला देखकर सब भक्त और मुले शास्त्री द्रवित हो गये। गेरु लाओ, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे – बाबा के इन शब्दों का अर्थ अब सब की समझ में आ गया। ऐसी अदभुत लीला श्री साईबाबा की थी।

डॉक्टर



एक समय एक मामलतदार अपने एक डॉक्टर मित्र के साथ शिरडी पधारे। डॉक्टर का कहना था कि मेरे इष्ट श्रीराम हैं। मैं किसी यवन को मस्तक न नमाऊँगा। अतः वे शिरडी जाने में असहमत थे। मामलतदार ने समझाया कि तुम्हें नमन करने को कोई बाध्य न करेगा और न ही तुम्हें कोई ऐसा करने को कहेगा। अतः मेरे साथ चलो, आनन्द रहेगा। वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दर्शन को गये। परन्तु डॉक्टर को ही सबसे आगे जाते देखा और बाब की प्रथम ही चरण वन्दना करते देखकर सब को बढ़ा विस्मय हुआ। लोगों ने डॉक्टर से अपना निश्चय बदलने और इस भाँति एक यवन को दंडवत् करने का कारण पूछा। डॉक्टर ने बतलाया कि बाबा के स्थान पर उन्हें अपने प्रिय इष्ट देव श्रीराम के दर्शन हुए और इसलिये उन्होंने नमस्कार किया। जब वे ऐसा कह ही रहे थे, तभी उन्हें साईबाबा का रुप पुनः दीखने लगा। वे आश्चर्यचकित होकर बोले – क्या यह स्वप्न हो। ये यवन कैसे हो सकते हैं। अरे! अरे! यह तो पूर्ण योग-अवतार है। दूसरे दिन से उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बाबा स्वयं बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मसजिद में कदापि न जाऊँगा। इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये। चौथे दिन उनका एक इष्ट मित्र थानदेश से शरडी आया। वे दोनों मसजिद में बाबा के दर्शन करने गये। नमस्कार होने के बाद बाबा ने डॉक्टर से पूछा, आपको बुलाने का कष्ट किसने किया। आप यहाँ कैसे पधारे। यह जटिल और सूचक प्रश्न सुनकर डॉक्टर द्रवित हो गये और उसी रात्रि को बाबा ने उनपर कृपा की। डॉक्टर को निद्रा में ही परमानन्द का अनुभव हुआ। वे अपने शहर लौट आये तो भी उन्हें 15 दिनों तक वैसा ही अनुभव होता रहा। इस प्रकार उनकी साईभक्ति कई गुनी बढ़ गई।

उपर्यु्क्त कथाओं की शिक्षा, विशेषतः मुले शास्त्री की, यही है कि हमें अपने गुरु में दृढ़ विश्वास होना चाहिये।

अगले अध्याय में बाबा की अन्य लीलाओं का वर्णन होगा।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।