श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-15
नारदीय कीर्तन पदृति,
श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय,
दो छिपकलियाँ।
पाठकों को स्मरण होगा कि छठें अध्याय के अनुसार शिरडी में राम नवमी उत्सव मनाया जाता था। यह कैसे प्रारम्भ हुआ और पहले वर्ष ही इस अवसर पर कीर्तन करने के लिये एक अच्छे हरिदास के मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हुई, इसका भी वर्णन वहाँ किया गया है। इस अध्याय में दासगणू की कीर्तन पदृति का वर्णन होगा।
नारदीय कीर्तन पदृति
बहुधा हरिदास कीर्तन करते समय एक लम्बा अंगरखा और पूरी पोशाक पहनते है। वे सिर पर फेंटा या साफा बाँधते है और एक लम्बा कोट तथा भीतर कमीज, कन्धे पर गमछा और सदैव की भाँति एक लम्बी धोती पहनते है। एक बार गाँव में कीर्तन के लिये जाते हुए दासगणू भी उपयुक्त रीति से सज-धज कर बाबा को प्रणाम करने पहुँचे। बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे, अच्छा। दूल्हा राजा। इस प्रकार बनकर कहाँ जा रहे हो। उत्तर मिला कि कीर्तन के लिये। बाबा ने पूछा कि कोट, गमछा और फेंटे इन सब की आवश्यकता ही क्या है। इनकों अभी मेरे सामने ही उतारो। इस शरीर पर इन्हें धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। दासगणू ने तुरन्त ही वस्त्र उतार कर बाबा के श्री चरणों पर रख दिये। फिर कीर्तन करते समय दासगणू ने इन वस्त्रों को कभी नहीं पहना। वे सदैव कमर से ऊपर अंग खुले रखकर हाथ में करताल और गले में हार पहन कर ही कीर्तन किया करते थे। यह पदृति यद्यपि हरिदासों द्धारा अपनाई गई पदृति के अनुरुप नहीं है, परन्तु फिर भी शुदृ तथा पवित्र हैं। कीर्तन पदृति के जन्मदाता नारद मुनि कटि से ऊपर सिर तक कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे। वे एक हाथ में वीणा ही लेकर हरि-कीर्तन करते हुए त्रैलोक्य में घूमते थे।
श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय
बाबा की कीर्ति पूना और अहमदनगर जिलों में फैल चुकी थी, परन्तु श्री नानासाहेब चाँदोरकर के व्यक्तिगत वार्ताँलाप तथा दासगणू के मधुर कीर्तन द्धारा बाबा की कीर्ति कोकण (बम्बई प्रांत) में भी फैल गई। इसका श्रेय केवल श्री दासगणू को ही है। भगवान् उन्हें सदैव सुखी रखे। उन्होंने अपने सुन्दर प्राकृतिक कीर्तन से बाबा को घर-घर पहुँचा दिया। श्रोताओं की रुचि प्रायः भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। किसी को हरिदासों की विदृता, किसी को भाव, किसी को गायन, तो किसी को चुटकुले तथा किसी को वेदान्त-विवेचन और किसी को उनकी मुख्य कथा रुचिकर प्रतीत होती है। परन्तु ऐसे बिरले ही है, जिनके हृदय में संत-कथा या कीर्तन सुनकर श्रद्धा और प्रेम उमड़ता हो। श्री दासगणू का कीर्तन श्रोताओं के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालता था। एक ऐसी घटना नीचे दी जाती है।
एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे। श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था। दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा! मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ। यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाँटूँगा। भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई। अब केवल संकल्प ही शेष रहा। शुभस्य शीघ्रम। श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था। अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ। ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं। श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने के लिये उत्सुक था। उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया। इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा। उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्धा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है। मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी। मसजिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे। जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना। इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े। श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है।
बाबा का यह कथा था कि यदि तुम श्रद्धापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा। यद्यपि मैं शरीर से तो यहाँ हूँ, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है। मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अन्तरस्थ ही हूँ। जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृदय में वास है, उसकी ही पूजा करो। धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरुप से परिचित हैं। बाबा ने श्री. चोलकर को कितनी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की।
दो छिपकलियों का मिलन
अब हम दो छोटी छिपकलियों की कथा के साथ ही यह अध्याय समाप्त करेंगे। एक बार बाबा मसजिद में बैठे थे कि उसी समय एक छिपकली चिकचिक करने लगी। कौतूहलवश एक भक्त ने बाबा से पूछा कि छिपकली के चिकचिकाने का क्या कोई विशेष अर्थ है। यह शुभ है या अशुभ। बाबा ने कहा कि इस छिपकली की बहन आज औरंगाबाद से यहाँ आने वाली है। इसलिये यह प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही है। वह भक्त बाबा के शब्दों का अर्थ न समझ सका। इसलिये वह चुपचाप वहीं बैठा रहा।
इसी समय औरंगाबाद से एक आदमी घोडे पर बाबा के दर्शनार्थ आया। वह तो आगे जाना चाहता था, परन्तु घोड़ा अधिक भूखा होने के कारण बढ़ता ही न था। तब उसने चना लाने को एक थैली निकाली और धूल झटकारने के लिये उसे भूमि पर फटकारा तो उसमें से एक छिपकली निकली और सब के देखते-देखते ही वह दीवार पर चढ़ गई। बाबा ने प्रश्न करने वाले भक्त से ध्यानपूर्वक देखने को कहा। छिपकली तुरन्त ही गर्व से अपनी बहन के पास पहुँच गई थी। दोनों बहनें बहुत देर तक एक दूसरे से मिलीं और परस्पर चुंबन व आलिंगन कर चारों ओर घूमघूम कर प्रेमपूर्वक नाचने लगी। कहाँ शिरडी और कहाँ औरंगाबाद। किस प्रकार एक आदमी घोड़े पर सवार होकर, थैली में छिपकली को लिये हुए वहाँ पहुँचता है और बाबा को उन दो बहिनों की भेंट का पता कैसे चल जाता है - यह सब घटना बहुत आश्चर्यजनक है और बाबा की सर्वव्यापकता की द्योतक है।
शिक्षा
जो कोई इस अध्याय का ध्यानपूर्वक पठन और मनन करेगा, साईकृपा से उसके समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे और वह पूर्ण सुखी बनकर शांति को प्राप्त होगा।