रविवार, 21 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-16/17

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17

 शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति

इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था, उसका वर्णन हैं।
*****
गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं। उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी। पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे।


यथार्थ में देखा जाय तो सद्तगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है। उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती। जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढ्य व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया, उसे अब श्रवण करें।

एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी। जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है। उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है। तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता।

अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे। साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ। मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ। यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा।

बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र! इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा। मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है। ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो। भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं। मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है। मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा।


यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये। उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा। लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा। इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला।

हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया। उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है। यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते। जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते। वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका। पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं। यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता। परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी। उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा! कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो। बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया। मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था।


संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं -
पाँच प्राण
पाँच इन्द्रयाँ
मन
बुद्धि तथा
अहंकार।

यह हुआ ब्रहृज्ञान। आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना। श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –

ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ



सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते। उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है।

1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कण्ठा)

जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूँ और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्येय की प्राप्ति के लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है।

2. विरक्ति

लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।

3. अन्तमुर्खता

ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है। हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये।

4. पाप से शुद्धि

जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता।

5. उचित आचरण

जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं।

6. सारवस्तु ग्रहण करना

दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य। पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सांसारिक विषयों से। मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है। उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है।

7. मन और इन्द्रयों का निग्रह

शरीर एक रथ हैं। आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्धिरथी हैं। मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े। इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है। जो अल्प बुद्धि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है। परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी बुद्धि द्धारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है।

8.मन की पवित्रता

जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्धि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है। विशुदृ मन में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है। अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है। विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है। यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है। यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो।

9. गुरु की आवश्यकता

आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसकी प्राप्ति संभव नहीं। इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है। अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पर आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।

जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है। यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विधाओं और बुद्धि द्धारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्धारा ही। इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है।

बाबा का उपदेश



जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय। आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये। उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे। बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे। तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो। जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते। जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है। आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है। जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है। तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है। अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है।

तुलसीदास जी कहते है –

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम। तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।

जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान की गुंजाइश ही नहीं है। फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है। यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी। एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इच्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ। वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता। जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है। इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्धिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये। मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है। जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा। इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य भाषण नहीं करता। जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है। बाबा द्धारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे। बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये।

बाबा का वैशिष्टय



ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है। वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है। श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे। यद्यपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे। वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे। इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे। ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें। श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है -

वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।