श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2
ग्रन्थ लेखन का ध्येय,
कार्यारम्भ में असमर्थता और साहस,
गरमागरम बहस,
अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपन्त,
गुरु की आवश्यकता।
*****
गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिनके दृारा उन्हें ग्रन्थरचना के कार्य को आरन्भ करने की प्रेरणा मिली। अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते हैं ।
ग्रन्थ लेखन का हेतु
किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेंखकर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है। मैंने और भी लीलाएँ सुनी, जिनसे मेरे हृदत को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य (कविता) रुप में प्रकट हुआ। मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्ययुक्त लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सिद्ध होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जायेंगे। इसलिये मैंने बाबा की पवित्र गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया। श्री साईं की जीवनी न तो उलझनपूर्ण और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है।
कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस
श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ। मैं तो अपने परम मित्र की जीवनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से। तब फिर मुझे सरीखा मूढ़मति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है। अवतारों की प्रकृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं। किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है। फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोगमय ही हूँ। संत की जीवनी लिखना एक महान् कठिन कार्य है, जिसकी तुलना में सातों समुद्र की गहराई नापना और आकाश को वस्त्र से ढकना भी सहज है। यह मुझे भली भरणति ज्ञात था कि इस कार्य का आरम्भ करने के लिये महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसीलिये श्री साईं बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।
महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है। तुलसीदास जी ने भी कहा है कि "साधुचरित शुभ सरिस कपासू। निरस विषद गुणमय फल जासू।। जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा। वंदनीय जेहि जग जस पावा"।। भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है। संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है। यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्य पूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है। उदाहरणार्थ शक सं. 1700 में कवि महीपति को संत चरित्र लेखन की प्रेरणा हुई। संतों ने अंतःप्रेरणा की ओर कार्य पूर्ण हो गया। इसी प्रकार शक सं. 1800 में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई। महीपति ने चार काव्य रचे – भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत – जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों का वर्णन है। भक्तलीलामृत के अध्याय 31, 32, और 33 तथा संत कथामृत के 57 वें अध्याय में श्री साई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढ़ंग से किया गया है। पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है। इसी प्रकार श्री साई बाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका - श्री साई बाबा भजनमाला में किया गया है। इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है।
श्री दासगणू महाराज ने भी श्री साई बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है। एक और भक्त अमीदास भवानी मेहता ने भी बाबा की कुथ कथाओ को गुजराती में प्रकाशित किया है। साई प्रभा नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के दक्षिणा भिक्षा संस्थान दृारा प्रकाशित की गई है। अब प्रश्न यह उठता हैं कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर और एक ग्रन्थ साई सच्चरित्र रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है। इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साई बाबा की जीवनी सागर के सादृश अगाध, विस्तृत और अथाह है। यति उसमें गहरे गोता लगाया जाय तो ज्ञान एवं भक्ति रुपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिनसे मुमुक्षुओं को बहुत लाभ होगा। श्री साई बाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण है। दुःख और दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक मे निःश्रेयस् की प्राप्ति होगी। यदि श्री साई बाबा के उपदेशों का, जो वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाये तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी, अर्थात् ब्रहम से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिदिृ और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जायगी। यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारम्भ कर दिया। साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है। जो भोले-भाले प्राणी श्री साई बाबा के दर्शनों से अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे है, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा। अतः मैंने श्री साई बाबा के उपदेश और दृषटान्तों की खोज प्रारम्भ कर दी, जो कि उनकी असीम सहज प्राप्त आत्मानिभूतियों का निचोड़ था। मुझे बाबा ने प्रेरणा दी और मैंने भी अपना अहंकार उनके श्री चरणों पर न्योछावर कर दिया। मैने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे ।
मैं स्वंय बाब की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था। अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाब के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की। उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साई बाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की कि ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक है। परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या है। आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगें, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा। आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता। यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई। उन्होंने आश्वासन और उमीद देकर अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखा और कहने लगे कि इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबद्ध करने दो, मैं इनकी सहायता करुँगा। मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करुँगा। परंतु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिये। जो अपने जीवन में इस प्रकार आचरण करता है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ। मेरी जीवन-कथाओं की बात तो हज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ। जब इनका अहं पूर्णताः नष्ट हो जायेगा और खोजने पर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रकट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा। मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रद्धा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी। ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरो का खंडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिये।
अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपंत
वादविवाद शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठको को वचन दिया है कि हेमाडपंत उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करुँगा। अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ।श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चांदोरकर मेरे अति घनिष्ठ मित्रों में से थे। उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साई बाबा के दर्शनें का लाभ उठाने का अनुरोध किया। मैंनें उन्हे वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी शिरडी-यात्रा स्थगित हो गई। मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था। उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रत्यन निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ। अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव को उसके सिरहाने ज्वर बिठलाया, परंतु परिणैस पूर्ववत् ही हुआ। यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ है, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है। और जब उनमें कोई सामर्थ ही नही, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन। ऐसा सोचकर मैंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। परंतु जो होनहार है, वह तो होकर ही पडेगा और वह इस प्रकार हुआ। प्रामताधिकारी नानासाहेब चांदोरकर बसई को दौरे पर जा रहे थे। वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथों लिया। नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरुप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया। मैंनें सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया। इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया। गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा। मैंनें अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया। उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होता, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ। यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओं से घिर जाता। परंतु ऐसा घटना न था। भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन 9-10 बजे के पूर्व ही मैं शिरडी पहुँच गया। यह सन् 1910 की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था। ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शनों के लिये बड़ा लालायित था। उसी समय भक्तप्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मसजिद से लौटे ही थे। उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मसजिद की मोंडपर ही हैं। अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत होने के पश्चात, सुविधा से भेंट करने जाना। यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की। मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। मुझे क्या नहीं मिल गया था। मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया। क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही। जिस क्षण से उनके कमल चरणों का स्पर्श प्राप्त हुआ, मेरे जीवन के दर्शनार्थ प्रेरणा, प्रोत्साहन और सहायता पहुँचाई, उनके प्रति मेरा हृदय बारम्बार कृतज्ञता अनुभव करने लगा। मैं उनका सदैव के लिये ऋणी हो गया। उनका यह उपकार मैं कभी भूल न सकूँगा। यथार्थ में वे ही मेरे कुटुम्बी हैं और उनके ऋण से मैं कभी भी मुक्त न हो सकूँगा। मैं सदा उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ। जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि विचार परिवर्तन तथा पिछले कर्मों का प्रभाव शीघ्र मंद पड़ने लगता है और शनैः शनैः अनासक्ति और सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है। केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होने पर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है। पाठको, मैं आपसे शपथ पूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा।
गरमागरम बहस
शिरडी पहुंँचने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया। मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहांँ रही। प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये। गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है। वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है। इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का। उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं। कहावत है – मेरे मन कछु और है, धाता के कछु और। फिर परामर्शयुक्त शब्दों में बोले भाई साहब, यह निरी विद्वता छोड़ दो। यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा। इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका। इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुद्धि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहींं। वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है।
जब अन्य लोगों के साथ मैं मसजिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं। किस विषय में विवाद था। फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन हेमाडपंत ले क्या कहा। ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ। साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था। सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था।
मैं सोचने लगा कि बाबा हेमाडपंत के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं। यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है। हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे। वे उच्च कोटि के विदृान्, उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे। उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ। अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं। गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है ।
भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के दृारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था। सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विद्धतापूर्ण ढ़ग से किया था। हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की। इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है।
गुरु की आवश्यकता
इस विषय में बाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत दृारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है। परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं। बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी। बाबा ने स्वीकृति दे दी।
बाबा – अनेक पंथ है। यहाँ से भी एक मार्ग है। परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है।
काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो।
बाबा – तब कोई कष्ट न होगा। मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा। परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्ढे में गिर जाने की सम्भावना है।
दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है। इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग 1, संख्या 5 व पृष्ठ 47 के अनुसार)। उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यक्ति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिदृ होगा। प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ लाभ केवल गुरु के उपदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था। इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रदृा और धैर्य ये ही दो गुण सहायक हैं।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।