मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - 20 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH -20

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - 20

विलक्षण समाधान - 
श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्धारा श्री. दासगणू की समस्या का समाधान।


श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्धारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है।


प्रारम्भ

श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साकार रुप में प्रगट हुए। माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया। आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें। जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की। भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे। बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे। बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था। वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ। अब जाओ, भोजन करो। इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे। आह। क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें। यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो। अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है।

ईशोपनिषद्

एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया। वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है। इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है। वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है। इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है। पण्डित सातवलेकर द्धारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है।

प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है। इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्धान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्तव्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है।



इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है। श्री. दासगणू ने वहीं छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार तत्व को ग्रहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ। इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्धानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका। इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए।

केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ

यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है। इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है। अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है। जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया। जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की। श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उसमें कठिनाई ही क्या है। जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी। उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है। परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है।

काका की नौकरानी



बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे। दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा। गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी। वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि। उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ। इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है। बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी। इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की। जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही। अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी। यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई। उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही। उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा। इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है। इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखनी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर में व्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी। इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर द्धारा ही प्रेरित कार्य था। श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए। सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है।

अद्धितीय शिक्षापद्धति



उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्धितीय और अपूर्व थी। बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा। किसी को दिन में और किसी को रात्रि में दर्शन दिये। किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये और उनकी इच्छाएँ पूर्ण की। भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है। इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्धारा समस्या हल कराई। जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे। उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया। अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्धारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी।

ईशोपनिषद् की शिक्षा

ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है। हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है। उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है। यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्धान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है। यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये। सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है। चरित्र सम्बन्धी द्धितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मों को जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है। इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है। अन्त में कहा है कि जो सब प्राणियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता।

सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्धि होती है। जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।