गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

कबीर की रहस्यवादी विचारधारा की समीक्षा कीजिए।

कबीर की रहस्यवादी विचारधारा की समीक्षा कीजिए।

रूपरेखा -

1. प्रस्तावना

2. साधना तथा भावुकतापूर्ण रहस्यवाद

अ. साधना पूर्ण रहस्यवाद

आ. भावना पूर्ण रहस्यवाद

3. माधुर्य भावना

4. उलटबाँसियाँ

5. उपसंहार

प्रस्तावना :

आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी विचार साहत्य में परम्परागत चर्चित हैं। यह रहस्य जितना भी सोचे और जितना भी खोजें आज तक कोई दार्शनिक, कोई कवि या कोई भक्त या ज्ञानी पूर्णतया बोल न पाये। वे अपने विचार परमात्मा के बारे में प्रस्तुत करते रहे जो रहस्यवाद के अन्तरगत आते हैं। इन सब को समन्वित कर के आचार्य रामचन्द्रशुक्ल जी ने रहस्यवाद की परिभाषा दी है "चिन्तन के क्षेत्र में जो ब्रह्मवाद हैं, वही साहित्यिक क्षेत्र में रहस्यवाद कहलाता है।"

2. साधना तथा भावुकतापूर्ण रहस्यवाद :

कबीर साधु और कवि हैं। इसलिए उन की कविता में साधना प्रधान रहस्यबाद और भावना प्रधान रहस्यवाद दोनों व्यक्त होते हैं।

अ. साधना प्रधान रहस्यवाद :

कबीर के साधनापरख रहस्यवाद पर सिद्ध तथा नाथ साहित्य का प्रभाव, अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव, अदद्वैतवाद का प्रभाव, सूफी साहित्य का प्रभाव, हठयोग का प्रभाव आदि हैं। साधक आत्मबल प्रधान होता है। वह सदा भगवान में रत (लीन) रहता है। वह किसी से नहीं डरता, क्यों कि परमात्मा उस के साथ है। इसलिए कबीर कहते हैं -

जाके रक्खे साइया मारि न सक्कै कोइ।

बाल न बँका करि सकै, जो जग वैरी होय।।

कबीर अनन्त परमात्मा के प्रकाश को अनेक सूर्यों की कान्ति से भी महान मानते हैं। वह - अगम्य अगोचर और सदा जगमगानेवाली ज्योति है। •

'अगम अगोचर गमि नहीं, तहाँ जग मगे ज्योति।”

यह ज्योति हर जीव के हृदय में रहती है।

"प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्तरि भया उजास।

मुखि कस्तूरी मह मही, बाँणी फूटी बास।।"

आत्मा और परमात्मा का मिलन लवण और पानी जैसा होना चाहिए। साधक बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी हो कर साधना में मग्न होता हैं।

"सुरति समणी निरति में, अजपा माहै जाप"।

साधक भगवान के ध्यान में लीन हो, समाधिस्त हो जाता है। तब उसका जप अजप में परिवर्तित हो जाता है। नाडी व्यवस्था इडा, पिंगला और सुषुम्ना के द्वारा सहस्रार पहुँच जाती हैं। तब साधक अमृतत्व सिद्धि प्राप्त करता है। इसी को कबीर उलटबॉसी के द्वारा प्रकट करते हैं।

आकासे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि।

ताका पाँणी को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥

आ. भावना प्रधान रहस्यवाद :

इसके अन्तर्गत कबीर सूफी सिद्धान्त को कहीं-कहीं अपनाते हैं। साधक स्त्री के रूप में और परमात्मा पुरुष रूप में चित्रित होता हैं। आत्मा परमात्मा केलिए व्याकुल होना और व्यथित होना विरह कहलाता हैं। कबीर में विरह की तीव्रता बढ़ती हैं। वे क्षण-क्षण अपने प्रियतम राम की राह जोहते रहते हैं।

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।

जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मति' नाहीं विश्राम।।

राम के वियोग में भक्त कबीर तडपते रहते हैं। उनकी भावना कहती हैं कि- "शरीर में भगवान की छाँह साँप की तरह सदा चलित या चरित होती रहती है। राम के वियोग में भक्त का जीना कठिन हैं। अगर जीयेगा भी तो वह पागल हो जाएँगा।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र में लागै कोइ।

सम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।

कबीर के अनुसार जीवन पानी का बुदबुदा है -

पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जाति।

देखत ही छिप जायेगा, ज्यो तारा पर भाति॥

इस क्षणिक तथा लघु जीवन में मानव भगवान की कृपा प्राप्त करना चाहता है। वह भाव विभोर हो कर -

रोता है, पुकारता है और रस्ता देखता रहता है।

आँखडियाँ झाँई पडी, पंथ निहारि निहारि।

जीभडियाँ छाला पडया, राम पुकारि पुकारि॥

भगवान की झलक प्रप्त होने पर साधक अतुलित आनन्द की प्राप्ति करता है। वह उस आनन्द को भाव में व्यक्त न कर पाता। उसकी वाणी "गूँगे के मुह गुड" बन जाती हैं। कहे कबिर गुड खाया.

यह 'ब्रह्म सूत्रों' का सार हैं - 'अथा तो ब्रह्म-जिज्ञासा'।

कवि कबीर की यह भावना गीता का सार है -

"तेषां नित्य अभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम "

संत कबीर की भावना उस रहस्योल्लास में आनन्द की डुबकियाँ लेती रहती है। तब वाणी से कोई 'वैखरी' शब्द नहीं निकलता "यतोवाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह”

3. माधुर्य भावना :

आत्मा परमात्मा में लीन होने की भावना ही “माधुर्य" हैं। कबीर की आत्मा सतत परमात्मा में लीन होना चाहती है। परमात्मा कहीं बाह्य संसार में नहीं है। वह हर जीव में विद्यमान हैं। वह निर्गुण और भावना प्रधान है। कबीर की आत्मा मूलाधार से निकल कर सहस्रार में पहुँचना माधुर्य भावना की चरम सीमा है। वहाँ मधुर अमृतत्व बिन्दु के रूप में आ कर आत्मा का उज्जीवन होता है। तब सारी नाडियों में 'मधुरता' व्याप्त होती है। इसलिए कबीर कहते हैं –

मोको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

न मैं देवल न मैं मसजिद न काबे कैलास में।।

कबीर की माधुर्य भावना अन्तर जगत में लीन है। जिस प्रकार वैष्णवों की सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य और सायुज्य दशाएँ होती हैं वही अनुभव कबीर का है। वे भगवान के ध्यान में और भगवान के भाव में लीन रहते हैं। जहाँ कबीर राम के दर्शन अन्तर जगत में करते है, वहाँ - सूरदास, तुलसीदास और मीराबाई परमात्मा का दर्शन (बाह्म) बाह्य जगत में करते हैं। चाहे बाह्य हो या आन्तरिक हो, भगवान के प्रति भावना रखना मधुर है। कबीर का रहस्य परमात्मा को अन्दर देखना है। मानव को नलिनी के रूप में और जल को परमात्मा के रूप में कबीर भावना करते हैं –

"जल में उतपति, जल में वास, जल में नलिनी, तोर निवास।"

बढही को काल के रूप में, वृक्ष को वृद्धावस्था के रूप में और पक्षी को आत्मा के रूप में कबीर भावना करते हैं।

बाढि आवत देखि करि, तरिवर डोलन लाग।

हम कटे की कचु नहीं पँखेरू घर भाग।।

4. उलटबाँसियाँ :

कबीर के काव्य में चमत्कारपूर्ण और रहस्यपूर्ण 'उलटबाँसियाँ' हैं। कठोपनिषद में अनेक रहस्यात्मक विषयों की चर्चा हुई हैं। कबीर पर वेद और उपनिषतों का प्रभाव है। भावजाल में पडे हुए मनुष्यों की उलटी हुई अवस्या को कबीर अपनी उलटबाँसियों द्वारा व्यंजित करते हैं। योग साधना का विवरण कबीर उलटबाँसि के द्वारा व्यक्त करते हैं।

आकासे मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि।

ताका पाँणी को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि।।

इसका मूल भगवतगीता के विभूति योग में है - "ऊर्ध्वमूलं अधश्शाखा ...............”

5. उपसंहार :

कबीर अनपढ़ हैं लेकिन वे बडे भावुक और ज्ञानी हैं। वे निर्गुणोपासक हैं और उनका दर्शन परवर्ती कवियों केलिए मार्गदर्शक बन गया। वे स्वयं कहते हैं - वेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामा । वे शब्दों का आवरण पार कर भावना क्षेत्र में पहुँचते हैं। हर जीव में हर वस्तु में और सारे विश्व में वे परमात्मा का दर्शन करते हैं। ये दर्शन दो प्रकार के है -

1. बाह्य दर्शन

2. आन्तरिक दर्शन

कबीर स्वयं योगी हैं। रहस्यवाद योग प्रक्रिया का एक भाग है। कबीर हठयोग को रहस्यवाद से समन्वय करके प्रस्तुत करते हैं और कभी भावना के द्वारा वे रहस्यवाद को प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी साहित्य में एक प्रकार से रहस्यवाद कबीर से ही प्रारम्भ हुआ है। कालगति में अनेक विद्वानों ने और कवियों ने रहस्यवाद के बारे में अपना अपना विश्लेषण किया था।