पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद पर प्रकाश डालिए।
अथवा
पद्मावत के आधार पर जायसी कृत रहस्यवाद की चर्चा कीजिए।
रूपरेखा
1. प्रस्तावना
2. अद्वैतवाद की परिणति: रहस्यवाद
3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद
4. जायसी और रहस्यवाद
5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद
6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब - प्रतिबिंब भावना
7. अमरधाम
8. उपसंहार
1. प्रस्तावना :
भारतीय अद्वैतवाद तथा ब्रह्मवाद को सभी पैगम्बरी मतों ने स्वीकार किया। वही दार्शनिक अद्वैतवाद साहित्य के क्षेत्र में रहस्यवाद के रूप में विलसित हुआ। योरोप में भी अद्वैतवाद ईसाई धर्म के भीतर रहस्य - भावना के रूप में लिया गया था। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे उसी प्रकार स्पेन, इटली आदि यूरोपीय देशों के भक्त भी ईश्वर को भावना करते थे।
अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं।
1. आत्मा और परमात्मा की एकता तथा
2. ब्रह्म और जगत की एकता
दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं - 'सर्वं खलिवदं ब्रह्म'; 'सर्व ब्रह्ममयं जगत्' । ईसा की 19 वीं शताब्दी में यूरप में रहस्यात्मक कविता सर्ववाद के रूप में जागृत हुई। अंगरेज कवि शेली में सर्ववाद की झलक दिखाई देती है। आयलैंड में कीट्स की रहस्यमयी कविवाणी सुनाई देती है। उसी समय भारत में कबीर, खीन्द्र की कलम से रहस्यवादी कविता उतरने लगी।
2. अद्वैतवाद की परिणति :
रहस्यवाद अद्वैतवाद का प्रतिपादन पहले उपनिषदों में मिलता है। उपनिषद भारतीय ज्ञान - कांड के मूल हैं। प्राचीन कवि अद्वैतवाद का तत्व चिन्तन करते थे। अद्वैतवाद मूलतः एक दार्शनिक सिद्धान्त है, कवि कल्पना या भावना नहीं। वह ज्ञान क्षेत्र की वस्तु है। दर्शन का संचार भावक्षेत्र में होने पर उच्च कोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। रहस्यवाद दो प्रकार का होता है -
1. भावात्मक
2. साधनात्मक
हमारे यहाँ का योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद है। अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद को लेकर चलनेवाली भावना से सूक्ष्म तथा उच्च कोटि के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। गीता के दशम अध्याय में सर्ववाद का भावात्मक प्रणाली पर निरूपण हुआ है।
3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद :
निर्गुण भक्ति शाखा के कबीर, दादू आदि सैतों की कविता में व्यक्त ज्ञान मार्ग भारतीय वेदान्त का भारतवर्ष में साधनात्मक रहस्यवाद ही हठयोग तंत्र और रसायन के रूप में प्रचलित था। सूफी मत में भी इसके प्रभाव से 'इला, पिंगला, सुषुम्ना' नाडियों का संचार तथा षट्चक्रों की चर्चा हुई। फलतः (1) रहस्य की प्रवृत्ति और (2) ईश्वर को केवल मन के भीतर देखना सूफी संतों ने अपना लिया। रहस्यवाद का स्फुरण सूफियों में पूरा-पूरा व्याप्त हुआ। कबीर के रहस्यवाद पर भी सूफी प्रभाव है। लेकिन कबीर के रहस्यवाद में साधनात्मक अधिक और भावात्मक कम।
4. जायसी और रहस्यवाद :
जायसी की कविता में रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है। उनकी भावुकता बहुत ही उच्च कोटि की है। सूफियों की भक्तिभावना के अनुसार जगत के नाना रूपों में प्रियतम परमात्मा के रूपमाधुर्य की छाया देखते हैं। सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को 'पुरुष' के समागम के हेतु प्रकृति के श्रृंगार उत्कण्ठा या विरह - विकलता का रूप वे अनुभव करते हैं।
5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद :
'पद्मावत' के ढंग के रहस्यवाद पूर्ण प्रबन्धों की परंपरा जायसी से पहले की है। मृगावती, मधुमालती आदि रहस्यवादी रचनाएँ जायसी के पहले ही हो चुकी हैं। उस रहस्यमयी अनन्त सत्ता का आभास देने के लिए जायसी पद्मावत में बहुत ही रमणीय और मर्मस्पर्शी दृश्य संकेत उपस्थित करते हैं। उस परोक्ष ज्योति और सौन्दर्यसत्ता की और लौकिक दीप्ति और सौंदर्य के द्वारा जायसी संकेत करते हैं -
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥
प्रकृति के बीच दिखाई देनेवाली सारी दीप्ति परमात्मा की ही है।
चाँदहि कहाँ जोति औ करा।
सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥
मानस के भीतर प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न अपरिमित आनन्द की और विश्वव्यापी आनन्द की यंजना जायसी के काव्य में व्यक्त होती है।
देखि मानसर रूप सोहावा।
हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा अँधियार रैन मसिछूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
कँवल विगस तस विहँसी देही। भँबर दसन होइ कै रसलेही॥
6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब-प्रतिबिंब भावना
जायसी रहस्यवाद के अन्तर्गत अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत और बिंब प्रतिबिंब भावना व्यक्त करते हैं।
बरुनि -चाप अस ओपहँ बेधे रन बन ढाँख।
सौजहि तन सब रोबाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥
पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर दोनों एक थे; न जाने किस ने बीच में इतना भेद डाल दिया है।
धरती सरग मिले हुतदोऊ। केइ निनार के दीन्ह बिछाऊ॥
जो इस पृथ्वी और स्वर्ग के वियोग तत्त्व को समझेगा और उस वियोग में पूर्णतया सम्मिलित होगा, उसी का बियोग सारी सृष्टि में व्याप्त होगा -
राती सती, अगिनि सब काया, गगन मेघ राते तेहि छाया।
सायं - प्रभात न जाने कितने लोग मेघखंडों को रक्तवर्ण होते देखते हैं। पर किस अनुराग से ये लाल हैं, इसे जायसी जैसे रहस्यदर्शी भावुक ही समझते हैं।
7. अमरधाम :
प्रकृति के महाभूत सारे उस 'अमरधाम' तक पहुँचने का, बराबर पहुँचने का, बराबर प्रयत्न करते रहते हैं। पर, साधना पूरी हुए बिना पहुँचना असंभव है।
चाँद सुरज और नखत तराई। तेहि डर अंतरिख फिरहि सबाई॥
पवन जाइ तहँ पहुँचे चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुँआ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा, उठि जाइ न छूआ बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ।
8. उपसंहार :
इस अद्वैतवादी रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं-कहीं उस रहस्यवाद में आ फँसे हैं जो पाश्चात्यों की दृष्टि में झूठा रहस्यवाद है। उन्होंने स्थान स्थान पर हठयोग, रसायन आदि का भी आश्रय लिया है।