कबीर की सामाजिक विचारधारा का मूल्यांकन कीजिए
(अथवा)
कबीर की सामाजिक विचारधारा प्रस्तुत कीजिए।
रूपरेखा -
1. प्रस्तावना
2. सामाजिक विचारधारा
अ. जाति - पान्त सम्बन्धी विचार
आ. बाह्याडम्बरों का खण्डन
इ. धार्मिक विचार
ई. सात्त्विक विचार
उ. राजनीतिक विचार
ऊ. निन्दा से न डरें
3. उपसंहार
प्रस्तावना :
कवि वस्तुतः सामाजिक प्राणी है। कवि का उद्गम (पैदाइश) समाज से होता है। कवि सदा सामाजिक श्रेय चाहता हैं। उस श्रेय केलिए वह ललचाता रहता है। सामाजिक दोषों को बता कर उनका निर्मूलन करना चाहता है। सामाजिक हित केलिए वह नए मार्गों का भी अन्वेषण करता रहता है।
कबीर वस्तुतः भक्त हैं। भक्त के साथ - साथ वे विचारक भी हैं। विचारक दो प्रकार के होते हैं -
1. भावनापरक विचार और
2. सामाजिक विचार
सामाजिक विचार :
सभ्य मबुव्यों के समूह को समाज कहते हैं। कबीर ने समाज को परखा और समाज से सम्बन्धित अपने विचार के प्रस्तुत किए। कबीर सामाजिक विचारधारा के अन्तरगत निम्न बताये गये विषयों की चर्चा करते हैं।
अ. जाति पान्त सम्बन्धी विचार :
सारे मनुष्य भगवान की सृष्टि हैं। भगवान समदर्शी हैं, तब भगवान से बनाया गया मानव, जाति पान्त के नाम पर क्यों झगडा कर रहा है? मानव केलिए चाहिए- ज्ञान, न कि जाति- पाँत की चर्चा। इसलिए कबीर
का कथन है -
जाति न पूछो साधु कि, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पडा रहने दो म्यान॥
आ. बाह्याडम्बरों का खण्डन :
कबीर काशी के निवासी थे। बडे बडे ग्रन्थों को पढनेवाले बहुत से पंडित होते हैं। लेकिन पुस्तकों का सार ग्रहण करनेवाले बहुत कम। इसलिए वे कहते हैं। -
पोथी पढ़ि- पढि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
एकै अखिर पीव का पदै सो पण्डित होय॥
कपटी भक्तों को कबीर पकड लेते हैं और कहते हैं -
माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुँह माहि।
मनुआ तो दस दिश फिरै, यह तो सुमरिन नाहि॥
ढोंगे गुरुओं की अवहेलना करते हुए वे कहते हैं. ---
ताका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा अंधा ठैलिया, दून्यूँ कूप पडंत॥
इ. धार्मिक विचार : -
कबीर ने तत्कालीन धार्मिक प्रथाओं को परखा। हिन्दू और मुसलमानों में होनेवाले बहुत से रीतिरिवाजों का खण्डन किया। उन्होंने मुसलमानों के रोजा, नमाज, हज आदि और हिन्दुओं के श्राद्ध, एकादशी, तीर्थ, व्रत आदि का खणडन किया। फिर वे कहते हैं- न हिन्दुओं में दया हैं और न मुसलमानों में मेहर, तीर्थयात्राओं का खण्डन करते हुए वे कहते हैं –
मोको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
न मैं देवल, न मैं मस्जिद, न काबे कैलास में॥
कबीर धार्मिक प्रवृत्तियों का खण्डन करके, निवृत्ति मार्ग का बोध करते हैं। वे कर्म काण्डों का खण्डन करते हुए कहते हैं - पाहन पूजे हरि मिले मैं पूजूँ पहाड।
सात्विक विचार :
मानव को न्यायशील होना है। न्याय का अर्थ - क प्रकार से 'जीओ' और 'जीने दो' है । आर्थिक लालच में पड कर मानव बेकार धन का संचय करेगा तो आवश्यक लोगों को असुविधा होगी। इसलिए कबीर कहते हैं -
साई इतना दीजिए, जा मैं कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥
उ. राजनीतिक विचार : -
कबीर निडर थे। डट कर शासक की गलतियाँ भी बताते थे और हिन्दू और मुसलमानी धर्मो में मिलने और का समनवय करके बताते थे। कहा जाता है कि एक बार सिकंदर लोडी के दरबार में कबीर पर धार्मिक अभियोग लगाया गया था। उनको बेडियाँ लगा कर गंगा में फेंक दिया गया और अग्नि कुण्ड में फेंक दिया गया, लेकिन वे गंगा से बाहर आये और अग्नि कुणड उनको जला न सका। मस्ति का हाथी भी उनकों न कुचल कर नमस्कार करने लगा। यहाँ कबीर की सत्यवादिता प्रकट होती हैं।
ऊ.. निन्दा से न डरना :
कबीर निर्भीक व्यक्ति हैं। निर्भीक का अर्थ हैं- कोई गलती न करना। गलती न करने से व्यक्ति को जीवन किसी से डरने की आवश्यकता नहीं। इसे कहते - आत्मबल आत्मबल व्यक्ति को अपने पर विश्वास होता है और उसके साथ आत्म विश्वास के साथ वह जीवन बिताता है। कबीर और एक पग आगे बढते है और कहते है – हमारी निन्दा करनेवालों को अपने ही पास में रखना चाहिए ताकि उसके कारण हम सदा जागरूक रहेंगे।
निन्दक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।
उपसंहार : -
कबीर भक्त और साधु का समन्वित रूप हैं 'भक्त' भगवान को आत्म समर्पण करता हैं। 'साधु' आत्म ज्ञान के साथ - साथ उपदेशक भी होता हैं। एक प्रकार से भक्त अन्तर्मुखीं हैं और साधु बहिर्मुखी हैं। कबीर भक्त और साधु भी होने के कारण वे उपदेशक भी हैं। इसलिए उनके उपदेशों में अनेक सामाजिक विषय भी आते हैं। कबीर इस प्रकार समाज सुधारक हैं।
ऐसे कवि, सुधारक तथा साधु अजर तथा अमर बन जाते हैं।
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति एषां यशःकाये जरामरणजं भयम्:।।