जायसी - मानसरोदक खण्ड
(2)
सोलन मानससरोवर गई, जापान पर ठाडी भई।
देखि सरोवर रहसई केली पद्मावत सौ कह सहेली।
ये रानी मन देखु विचारी, एहि नैहर रहना दिन चारी।
जो लागे अहै पिता कर राजू, खेलि तेहु जो खेलहु आजू।
पुनि सासुर हम गयनम काली, कित हम कित यह सरवर पाली।
कित आवन पुनि अपने हाथी, कित मिति कै खेलव एक साथी।
सासुननद बोलिन्ह जिउनेही दास्न ससुर न निसरै देहि।
पिउ पिआर सिर ऊपर, सो पुनि करै दहुँ काह।
दहुँ सुख राखै की दुख, दई कस जनम निबाहू।
भावार्थः
सारी सखियाँ खेलती हुई मानसरोवर पर आई और किनारे खडी हुई। मानसरोवर को देख कर वे सब आती क्रीडा करती हैं। सच सहेली पदमावती से कहती है, "हे रानी! मन में विचारकर देखलो। इस नैहर में चार दिन ही रहना है। जब तक पिता का राज्य है, तब तक खेल लो जैसा आज खेल रही हो। फिर हमारा ससुराल चले जाने का समय आयेगा। तब हम न जाने कहाँ होंगे और कहाँ यह सरोवर और कहाँ यह किनारा होगा। फिर आना अपने हाथ कहाँ होगा ? फिर हम सबका कहाँ मिलकर खेलना होगा ? सास और ननद बोलते ही प्राण ले लेंगी। ससुर तो बडा ही कठोर होगा। वह हमें यहाँ आने भी नहीं देगा।"
इन सब के ऊपर प्यारा प्रियतम होगा। न जाने वह भी फिर कैसा व्यवहार करेगा। न जाने वह सुखी रखेगा या दुखी। न जाने जीवन का निर्वाह कैसे होगा।
विशेषताएँ : यहाँ तत्कालीन वघुओं की परतन्त्राता पर चर्चा हुई है। ससुराल में वधुओं की दीन दशा का विवरण हुआ है।