गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

कबीरदास | साखी | सबद | रमैनी

कबीरदास :

जीवनवृत नीरू और नीमा द्वारा जुलाहा परिवार में पालित, शास्त्रज्ञान से वंचित पर काशी में आचार्य रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण, जीवन का बहुत बड़ा भाग काशी में व्यतीत, अनेक संत-महात्माओं का सत्संग, १२९२ ई में सिकंदर लोदी द्वारा दंडित करने की चेष्टा, जीवन के अंतिम भाग में मगहर में निवास।

निरक्षर होने पर भी परम ब्रह्मज्ञानी, धार्मिक एकत्व और सामाजिक समता के बेजोड़ प्रबक्ता, निर्गुण, मतबाद के पुरस्कर्त्ता, मध्ययुग के सबसे सशक व्यंग्यकार रचनाएँ बीजक (साखी, सबद और रमैनी)।

साखी

गुरु गोबिंद तो एक है दूजा यहु आकार।

आप मेटि जीवत मरै तो पावै करतार।।


कबीर सतगुरु ना मिल्या रही अधूरी सीख।

स्वांग जती का परि घरि घरि भौगो भीख।।


सतगुरु ऐसा चाहिए जैसा सिकलीगर होइ।

सबद मसकला फेरि करि देह द्रपन करे कोइ।।


कबीर सुमिरण सार है सकल जंजाल।

आदि अंत सब सोधिया दूजा देखौ काल।।


कबीर निरभै राम जपि जब लग दीवै बाति।

तेल घट्या बाती बुझी तब सोबैगा दिन राति।।


लावा मारग दूरि घर बिकट पंथ यहु मार।

कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुरतभ हरि दीदार।।


चकवी बिछुरे रैणि की आइ मिली परभाति।

जे जन बिछुरे राम सूं ते दिन मिले न राति।।


यह तन जारौँ मसि करौं धुवां जाइ सरग्गि।

मति वे राम दया करै बरसि बुझावे अग्गि।।


बिरह भुवंगम तनि बसै मंत्र न लागौ कोइ।

राम वियोगी ना जिवै जिबै तो वोरा होइ।।


सब रंग ताँत रबाब तन पिरहु बजावै नित्त।

और न कोई सुणि सकै कै सांई के चित्त।।


विपबा बुरहा जिनि कहै बिरहा है सुलितान।

जिस घटि विरह न संचरै सो घट सदा मसांण।।


आँखड़ियाँ झंई पड़ी पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पडया नाम पुकारि पुकारि।।


इस तन का दीवा करों बनी मेलहुँ जीव।

लोही सीचें तेल त्यूँफकब मुख देखौं पवि।।


जे रोऊं तौ बल घंटै हसौं तो राम रिसाइ।

मन ही मांहि बिसूरणां ज्यूं घुंण काठहिं खाइ।।


कै विरहिनि कूं मींच दै कै आपा दिखलाई।

आठ पहर का दाझणां मोपै सह्या न जाइ।।


हिरदा भीतर दौ बलौ धूंवा न प्रगट होइ।

जाकै लागी सो लखै कै जिनि लाई सोइ।।


अंतरि कवल प्रकासिया ब्रह्म- वास तहां होई।

मन भँवरा तहाँ लुबधिया जाणैगा जन कोई।।


हद्द छाड़ि बेहद गया कीया सुन्नि स्नान।

सुनि जन महल न पार्व तहाँ किया बिश्राम।।


पंजरि प्रेम प्रकासिया जाग्या जोग अनत।

संसा खूटा सुख भया मिल्या पियारा कंत।।


पाणी ही ते हिम भया हिम है गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया अब कछु कह्या न जाइ।।


जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि।

सब अंधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या मांहि॥


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

बूँद समाणी समंद में सो कत हेरी जाइ।।


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

समंद समांणां बूँद में सो कत हेरया जाइ।।


कबीर एक न जाणियां तौ बहु जाण्या क्या होइ।

एक तै सब होत हैं सब तैं एक न होइ।।


कबीर कहा गरबियौ इस जोबन की आस।

कसू फूले दिवस चारि खंखड़ भवा पलास।।


कबीर कहा गरबियौ काल गहे कर केस।

ना जाणौं कहां - मारिसी कै धरि कै परदेस।।


यह तन काचा कुंभ है लीयां फिरै या साथि।

ठबका लागा फूटिया कछू न आया हाथि।।


हिरदो भीतरि आरसी मुख देखणां न जाइ।

मुख तौ तौ परि घूंदेखिए जे मन की दुबिधा जाइ।।


काया देवल मन धजा विषै लहरि फहराइ।

मन चालयाँ देवल चलै ताका सरबस।।


कबीर मारग कठिन है कोई न सक।

गए से बहुड़े नहीं कुसल कहै को आई।।


माया मुई नमन वा मरि मरि गया सरीर।

आता त्रिस्नांना भुई यूँ कह गया कबीर।।


सहज सहज सब कोई कसै सहज ने चीन्हे कोई।

जिन्ह सहजै विषया तजी सहज कहोजे सोइ।।


मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासो जांगि।

दसवां द्वारा देहुरे तामै जोति पिछांणि।।


पावक रूपी राम है घटि घटिरह्या समा।

चित चकमक लागी नहीं ताते ही धुंधुँआइ।।


गावण ही में रोज है रोवण ही में राग।

इक बैरागी गृह में इक गिरही बेराग।।


हम घर जाल्या आपणां लीया मुराढ़ा हाथि।

अब घर जालों तासका जे तलें हमारे साथि।।

सबद

(1)

संतो धोखा कासूं कहिए।

गुण मैं निर्गुण निर्गुण मैं गुण है बाट छाड़ि क्यूँ बहिर।

अजरा अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाई।

नां तिस रूप बरन नंही जाकै घटि-घटि रह्य समाई।

व्यंड ब्रह्माणअड की सब कोई बाकै आदि अरु अंति न होई।

प्यंड ब्रह्मण्ड छाड़ि जे कधिए कहै कबीर हरि सोई।।

(2)

लोका मति के भोरा रे।

जौ कासी तन तज़े कबीरा तो रामहि कहा निहोरा रे।

तब हम वैसे अब हम ऐसे इहै जनम का लाहा।

ज्यूं जल में जल पैसि न निकसै यूं दुरि मिल्या जुलाहा।

राम भगति परि जाको हित चित ताकी अचिरज काहा।

गुरु प्रसाद साध की संगति जग जीतें जाइ जुलाहा।

कहत कबीरः सुनहु रे संतौ श्रमि पैर जिनि कोई।

जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई।

(3)

पानी विच मीन पियासी।

मोहि सुनि - सुनि आवत हाँसी।

आतम ज्ञान विना सब सूना क्या मथुरा क्या कासी।

घर में वस्तु घरी नहिं सूझै बाहर खोजत जासी।

मृग की नाभि माँहि क्सतूरी वन वन फिरत उदासी।

कहत कबीर सुनो भाई साधो सहज मिले अविनासी।

(4)

बाल्हा आव हमारे गेह रे।

तुम्ह बिन दुखिया देह रे।

सबको कहै तुम्हारी नारी मोकौ इहै अंदेह रे।

एकमेक है सेज न सोवै तब लग कौसा नेह रे।

आन न भावै नींद न आवै ग्रिह बन धेरै न धीर रे।

ज्यूं कामी कौं काम पियारा ज्यूं प्यासे कूं नीर रे।

है कोई ऐसा पर उपगारी हरि सूं कहै सुनाई रे।

ऐसे हाल कबीर भए हैं बिन देखे जीव जाइ रे।

(5)

तो को पीव पिलेंगे घूँघट का पट खेल रे।

घट - घट मे वह साई रहता कटुक वचन मत बोल रे।

धन जौबन को गरव न कीजे झूठा पँच रंग चोल रे।

सून्न महल में दियना बारि ले आसा सों तम डोल रे।

जोग जुगुत सो रँगमहल में पिय पायो अनमोल रे।

कहैं कवीर आनंद भयो है बाजत अनहद ढोल रे।

(6)

झीनी झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै ताना काहे कै भरनी कौन तार से बीनी चदरिया।

इंगला पिगला ताना भरती सुखमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कँवल दल चरखा डोले पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।

साई को सियत मास दस लागौ ठोक कै वीनी चदरिया।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े ओढ़ि कै मैली कीनी चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी त्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।

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