जायसी की प्रेम-व्यंजना प्रस्तुत कीजिए।
रूपरेखा : -
1. प्रस्तावना
2. जायसी का 'पद्मावत'
(क) कथावस्तु
(ख) नारी (आलंबन) सौंदर्य का वर्णन
(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन
(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण
(ङ) संचारीभाव
(घ) अनुभूतियाँ
(छ) स्थाई भाव का उत्कर्ष
3. उपसंहार
1. प्रस्तावना - भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यानों की परम्परा :
भारतीय साहित्य में लगभग पाँचवीं शताब्दी से एक ऐसी काव्य-परम्परा का प्रवर्तन हुआ, जिसमें साहस और प्रेम का चित्रण अद्भुत रूप में मिलता है। इस काव्य परम्परा की आरम्भिक कृतियाँ - वासवदत्ता (सुबन्ध), कादम्बरी (बाण) और दशकुमार चरित (दंडी) हैं। प्राकृत - अपभ्रंश की तरंगवती, समरादित्य - कथा, भुवन - सुन्दरी, मलय - सुन्दरी, सुर - सुन्दरी, नागकुमार चरित, यशोधर चरित, करकंड चरित, पद्म चरित आदि में प्रेम का वही रुप उपलब्ध होता है, जो कि संस्कृत के वासवदत्ता, कादम्बरी एवं दशकुमार- चरितादि में मिलता है। आगे चलकर यही काव्य - परम्परा हिन्दी में विकसित हुई जिसे सूफी प्रेमाख्यान- परम्परा या 'निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा' कहा जाता है। महाकवि जायसी भी इसी काव्य- परम्परा के अन्तर्गत आते हैं।
हमारे विद्वानों का विश्वास है कि जायसी तथा अन्य प्रेमाख्यान रचयिता कवियों ने अपने काव्य में अलौकिक - प्रेम या रहस्यवाद की व्यंजना की हैं। इस मत के समर्थन में ये युक्तियाँ दी गई है –
(१) इन कवियों ने सूफी मत के प्रचार के लिए अपने काव्यों की रचना की।
(२) इन काव्यों में आत्मा और परमात्मा के प्रेम का रूपक बाँधा गया है।
(३) इनमें स्थान - स्थान पर आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं साधना पद्धतियों का निरूपण किया गया है।
(४) इन काव्यों में नायिका (जो कि परमात्मा की प्रतीक है) के व्यक्तित्व एवं सौन्दर्य का इतने व्यापक रूप में चित्रण किया गया है कि जिससे किसी 'अनन्त सौंदर्य - सत्ता' के स्वरूप का आभास होने लगता है।
(५) इनमें प्रेम और विरह का ऐसा वर्णन किया गया है कि जिसमें आध्यात्मिकता का दर्शन होने लगता है।
जायसी ने लिखा है- मैंने यह सोचकर काव्य लिखा है कि संसार में मेरा कोई स्मारक चिन्ह रह जाय। जो लोग इस कहानी को पढ़ेंगे, वे मुझे भी याद करेंगे -
औ मैं जानि कवित अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥
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जो यह पढ़े कहानी, हम्ह सैवरै दुई बोल
पद्मावत के अन्त में कवि जायसी ने घोषित किया है -
प्रेम कथा एहि भांति विचारहु, बूझि लेई जौ बुझे पारहु । इस रूपक में रत्नसेन को मन का तथा पद्मावती को बुद्धि का प्रतीक माना गया है। रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पहुँचने के अनन्तर भी पद्मावती को एक कामवासना एवं भोग लिप्सा से विह्वल युवती के रूप में देखते हैं -
जोबन भर भादौं जस गंगा, लहरें देई, समाइ न अंगा।
'यौवन भार' एवं कानोन्माद का जैसा वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि पद्मिनी का प्रेम सर्वथा लौकिक स्तर का
2. 'जायसी का 'पद्मावत' -
(क) कथावस्तु -
हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा की सर्वश्रेष्ठ रचना जायसी कृत 'पद्मावत' मानी जाती है। इसका नायक रत्नसेन है, जो कि हीरामन तोते के मुँह से पद्मिनी के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसके प्रेम में बिह्वल हो जाता है। वह अपने घर, परिवार और देश को छोड़कर उसकी प्राप्ति के लिए निकल जाता है तथा अनेक कठिनाइयों के पश्चात् उसकी प्राप्ति में सफल हो पाता है। विवाह के अनन्तर भी पद्मिनी और रत्नसेन को कई कष्टों का सामना करना पड़ता है । अन्त में दिल्ली सुलतान अलाउद्दीन से युद्ध करता हुआ रत्नसेन वीरगति को प्राप्त हो जाता है और पद्मिनी सती हो जाती है। इस काव्य में श्रृंगार रस के सभी अवयवों एवं अनेक दशाओं का मामिंक वर्णन उपलब्ध होता है।
(ख) नारी (आलम्बन) सौन्दर्य का वर्णन :
नारी- सौन्दर्य के चित्रण में जायसी ने परम्परागत नख - शिख वर्णन की शैली का प्रयोग किया है। उन्होंने नारी रूप के सामूहिक प्रभाव की व्यंजना की अपेक्षा उसके अंग प्रत्यंग का अलग-अलग वर्णन किया है। वे अपनी सूक्ष्म - पर्यवेक्षण - शक्ति के बल पर प्रत्येक अवयव की बाह्य एवं आन्तरिक विशेषताओं का उद्घाटन कुशलतापूर्वक कर देते हैं; यथा केशों का एक वर्णन देखिए –
भँवर केस, वह मालति रानी। विसहर लुरहि लेहि अरघानी।
बैनो छोरि झारु जौं बार। सरग पतार होइ अंधियारा॥
यहाँ केशों की श्याम - वर्णता, वक्रता, सुगन्धि एवं मनमोहकता आदि सभी गुणों की व्यंजना भ्रमर, विषधर, अन्धकार, मलयगिरि और श्रृंखला आदि उपमानों की सहायता से कर दी गई है।
वस्तु के सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण के जायसी के सौन्दर्य - वर्णन में कुछ प्रवृत्तियाँ और मिलती हैं। एक तो उन्हें वर्णन -विस्तार से इतना अधिक प्रेम है कि उनका नख - शिख - वर्णन एक पूरे सर्ग का रूप ले लेता है। दूसरे, वे अत्युक्तियों एवं अतिशयोक्तियों का अधिक प्रयोग करते हैं।
सुन्दरियों के रूप के प्रभाव सिद्ध करने के लिए भी वे द्रष्टा के आहत हो जाने मूच्छित हो जाने, या प्राण त्याग देने की कल्पना बारम्बार करते हैं। फिर भी सौन्दर्य की व्यंजना उनके काव्य में वर्णन के रूप में ही अधिक होती है। एक एक अंग का अलग अलग विखरा हुआ सौन्दर्य किसी समन्वित प्रभाव की पुष्टि नहीं करता, उनकी अत्युक्तियाँ -
आश्चर्यजनक होते हुए भी पाठकों के हृदय को तरंगित करने में असमर्थ हैं और उनका विस्तृत वर्णन उभार देनेवाला सिद्ध होता है। नारी की सूक्ष्म चेष्टाओं एवं मधुर भाव - भंगिमाओं का चित्रण भी उनके काव्य में बहुत कम हुआ है।
(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन :
श्रृंगारोद्दीपन के लिए भी जायसी ने ऋतु - वर्णन एवं बारहमासा-कथन की परम्परागत शैलीयों का व्यवहार किया है, फिर भी उनकी कुछ निजी विशिष्टताएँ हैं। संयोग में समय शीघ्र बीत जाता है, किन्तु विरह के क्षण लम्बे होते हैं, अतः जायसी ने दोनों के लिए क्रमशः ऋतु - वर्णन और बारहमासा - वर्णन का आयोजन करके सूक्ष्म बुद्धि का परिचय दिया है।
उदाहरणस्वरूप कुछ पंक्तियाँ देखिए -
रितु पावस बरसौ, पिउ पावा। सावन भादों अधिक सुहावा॥
कोकिल बैन, पाँत बग छूटी। गनि निसरि जेउँ बीरबहूटी॥
संयोगकालीन दृश्यों के चित्रण में कवि के प्रत्येक शब्द से उल्लास की अभिव्यक्ति होती थी, वहाँ उपर्युक्त वर्णन में वातावरण की कठोरता को ऐसे शब्दों में उपस्थित किया गया है कि पाठक का हृदय अनुभूति से ओत-प्रोत हो जाता है। वस्तुतः जायसी का प्रकृति - वर्णन कल्पना और अनुभूति के सुन्दर सामंजस्य से पूर्ण है और वह स्थायीभाव की व्यंजना के अनुरुप पृष्ठभूमि तैयार करने में पूर्णतः समर्थ है।
(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण : -
पद्मावत में प्रणय - भावना का आश्रय प्रारम्भ में केवल नायक ही रहता है, जो अपने प्रयत्नों से नायिका के हृदय को भी जीत लेने में सफलता प्राप्त कर लेता है। यद्यपि तोते के मुख से नख - शिख - वर्णन सुनकर रत्नसेन की सौन्दर्यानुभूतियों की व्यंजना अत्यन्त मार्मिक रूप में हुई है।
फूल फूल फिरि पूँछों, जो पहुँचों आहिं केत।
तन निछावर के मिलों, ज्यों मधुकर जिउ देत॥
(ङ) संचारी भाव :
श्रृंगारस के क्षेत्र में रति और निर्वेद जैसे दो विरोधी संचारी भावों की स्थिति एक साथ संभव होती है। रत्नसेन के हृदय में भी प्रणय की गम्भीरता के साथ ही वैराग्य की सृष्टि हो जाती है और वह अपना सब कुछ त्यागकर घर से निकल जाता है।
तजा राज राडा भा जोगी। ओ किंगरो कर गहेउ वियोगी।
तन विसंभर मन बाउर रटा। अरुझा प्रेम परी सिर जटा॥
रत्नसेन का यह निर्वेद संयोग होने तक बराबर प्रणय भावना के साथ चलता रहता है। इसके अतिरिक्त संचारी भावों की भी योजना कवि ने अवसरानुभूति सफलता पूर्वक की है।
(च) अनुभूतियाँ :
पद्मनी की प्रेमानुभूतियाँ - पद्मनी में हम प्रेमानुभूतियों का विकास ऋमिक रूप में पाते हैं। प्रारम्भ में वह काम-वेदना से पीड़ित है -
सुनु हीरामन कहों बुझई, दिन-दिन मदन आई सतावै।
जोवन मोर भयउ जस गंगा, देह-देह हम्ह लाग अनंगा॥
आगे चलकर रत्नसेन के दर्शन के अनन्तर उसकी यह कामवासना प्रेम में परिणत हो जाती है और जब वह सुनती है कि उसका प्रियतम उसी के लिए शूली पर चढ़ रहा है तो उसके हृदय का अणु- अणु पिघलकर मानवता के रूप में बहने लगता है।
संयोगानुभूतियाँ - जायसी ने नायक - नायिका की संयोगानुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रथम समागम, हास - परिहास, शतरंज- चौपट के मनोरंजन, सुरत एवं सुरतान्त आदि का विस्तृत वर्णन किया है। विवाह के अनन्तर प्रथम रात्रि में प्रियतम के पास जाती हुई पद्मावती की हृदय- दशा का परिचय उसके इन शब्दों में मिलता है -
अनचिन्ह पिउ काँपे न माहाँ, का मैं कहब गहब जब बाँहाँ।
जब रत्नसेन अपने प्रेमपूर्ण शब्दों से उसका भय और संकोच दूर कर देता है तो वह भी अपना कृत्रिम भोलापन प्रदर्शित करती हुई अपनी हास- परिहासमयी उक्तियों से छेड़- छाड़ करने लगती है।
अपने मुँह न बढ़ाई छाजा, जोगो कतहुँ न होहि नाहि राजा ।
(छ) स्थायीभाव का उत्कर्ष
पद्मावत में प्रेम भावना के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसमें नायक और नायिका में प्रेम का विकास एक साथ नहीं होता। दोनों के प्रेम प्रवृत्ति एवं गति में भी पर्याप्त भेद है। रत्नसेन प्रेम के आदर्श स्वरूप को उपस्थित करता है, जबकि पद्मावती ने यथार्थ एवं व्यावहारिक रूप का लोभ - मात्र सिद्ध किया है।
पद्मावती की प्रणय - भावना में हम क्रमिक विकास पाते हैं। पिरस्थि तियों के अनुसार उसमें प्रेम, कामुकता और रसिकता की सीमा को पार करके अपने विशुद्ध एवं गम्भीर स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, जो मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से बहुत संगत है। अपने विकास की चरमावस्था में आदर्श प्रेम और यथार्य प्रेम दोनों एक स्तर पर पहुँच जाते हैं। पद्मावती की प्रणय - भावना अन्त में साहस, त्यागादि के सभी गुण से समन्वित हो जाती है, जो रत्नसेन में हम प्रारम्भ से ही पाते है।
रत्नसेन और पद्मावती के प्रणय सम्बन्ध के कारण नागमती का कष्ट - भोग और विवाह के अनन्तर दोनों - सपत्नियों की ईर्ष्या, कलह आदि देखकर कदाचित् कुछ लोग उनके प्रेम को अश्रद्धा की दृष्टि से देखें, अतः इस दुष्टि से विचार करना आवश्यक है। कवि ने आरम्भ में नागमती को रूप - गर्विता एवं तोते की हत्या में प्रयत्नशील दिखाकर पाठक की सहानुभीति के मार्ग में अवरोधक लगा दिया है। अतः उसके प्रति राजा का निष्ठुर व्यवहार उचित प्रतीत होता है। नागमती का दारुण विरह अवश्य हृदयद्रावक है, किन्तु रत्नसेन उसका संदेश प्राप्त होते ही लौट जाता है। सपत्नियों की प्रारम्भिक गुह-कलह भी स्वाभाविक है, जो आगे परिस्थितियों की कठिनता से शान्त हो जाती है।
3. उपसंहार :-
वस्तुतः इस काव्य में प्रेम को आदर्श और यथार्थ - दोनों गुणों से समन्वित करते हुए उसे पूर्ण उत्कर्ष तक पहुँचा दिया गया है। बिना साहस और त्याग के प्रेम पूर्ण गंम्भीरता को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। प्रेम का यह आदर्श भारतीय साहित्य में मुख्यतः प्रेमाख्यानों में पूर्ण शब्दों में व्यंजना करने की दृष्टि से जायसी हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं ।