जायसी - मानसरोदक खण्ड
(1)
एक दिवस पून्यौ तिथि आई, मानसरोदक चली अन्हाई।
पदमावति सब सखी बुलाई, जनु फुलवारि सबै चलिआई।
कोई चम्पा कोइ कुंद सहेली, कोइ सुकेत करना रसबेली।
कोई सु गुलाल सुदरसन राती कोइ सोबकावरिबकचुन भाती।
कोइ सु मौलसरि पुहुपावती, कोइ जाही जूही सेवती।
कोइ सोनजरद कोइ केसर कोई सिंगारहार नागेसर।
कोइ कूजा सदबरग चॅबेली, कोई कदम सुरस रसबेली।
चलीं सबै मालति सँग, फूले कर्बल कुमोद।
बेधि रहे गन गंधरव, बास परीमल मोद।
शब्दार्थ:
पूनिउँ = पूनोंकी, उन्हाई = स्नान करने, नकौरि = गुलबकावली, बकचुन = गुच्छा, जाही = एक प्रकार फूल, जूही = यूथिका, सेवती = सफेद गुलाब, जेउँ = जसी, गंध्रप = गंधर्व
भावार्थः
एक दिन पूनम की तिथि आयी । पद्मावती मानसरोवर नहाने के लिए चली। उसने अपनी सब सखियों को बुलाया। वे इस प्रकार चलने लगी मानों समस्त फुलवारी ही चली आयी हो। उन सखियों में कोई चम्पा, कोई कुन्द, कोई केतनी, करना, रसबेली, गुलाल, सुदर्शन, गुलबकावली का गुच्छा आदि लग रही थीं, कोई सोनजरद जैसी थी और कोई केसर जैसी थी, कोई हरसंगार तो कोई नागकेसर की तरह थी। कोई कूजा जैसी और कोई सदबरंग और चमेली की तरह भी, कोई कदम्ब की तरह हो तो और कोई सुन्दर रसबेली जैसी थी।
वे सब पद्मावती के साथ ऐसे चली मानो कमल के साथ कुमदिनी हों। उनकी सुगन्धि की व्यापकता के कारण गन्धर्व के समूह भी प्रभावित हो रहे थे।
अलंकारः उत्प्रेक्षा तथा उपमा अलंकार यहाँ प्रयुक्त हुए हैं।