जायसी - मानसरोदक खण्ड
(5)
घरीं तीर सब कंचुकि सारी, सरवर महँ पैठी सब बारी
पाइ नार जानौं सब बेली, हुलसहिं करहि काम कै केली
करिल केस बिसहर बिस - भरे लहरै लेहि कवैल मुख धरे
नवल बसन्त सँवारी करीं, होई परगट चाहहि रसभरीं
उठीं कोंप जस दायिँ दाखा, भइ ओनंत प्रेम कै साखा
सरिवर नहिं समाइ संसारा, चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा
धनि सो नीर ससि तरई ऊई, अब कित दीठ कवॅल और कूई
चकई बिछुरि पुकारै, किहाँ मिलौ हो नाहँ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माहँ।
शब्दार्थ:
कंचुकि = चोली | बारी = बालाएँ। बेलीं = बेलें, लताएँ। हुलसी = प्रसन्न हुई। नवल = नया । करिल = काले। बिसहर = सर्प । कोंप = कोंपल । ओनंत = झुकना । उईं = उदित हुई। कुई कुमुदिनी। सरग = आकाश।
भावार्थ:
पद्मावती और सखियों ने छिपी हुई अपनी चोलियाँ किनारे पर रख दीं और सब बालाएँ तालाब में घुस गईं। वे सच ऐसे प्रसन्न हुई जैसे लताओं ने जल पा लिया हो। वे सब आनन्दित हुई और काम की क्रीहाएँ करने लगीं। उनके काले काले बाल ऐसे प्रतीत होते थे मानो बिषैले सर्प हों और केश के पास सुन्दर मुख ऐसा लगता ता कि सर्पोड ने अपने मुख में कमल को पकड रखा हो और सब लहराते फिर रहे हो। उनके आधर ऐसे लगते थे मानो आनार और दाख की कोमल कोंपल निकल रही हों। उनके वक्ष स्थल पर थोडे उभरे हुए उरोज प्रकट करते थे मानो उनकी आयु के नये वसन्त ने कलियों को पैदा करदिया हो और थे कलियाँ रसपूर्ण होकर पूर्ण यौवन के रूप में प्रकट होना चाहती हों। किंचित झुकी हुई बालाएँ ऐसी लगती तीं प्रेम की शाखा ही झुक गई। प्रसन्नता के मारे सरोवर फूला हुआ था। अब वह संसार में नहीं समाता क्यों कि पद्मावती रूपी चन्द्रमा अपनी सखियों साथ उसमें नहा रहा है। वह जल धन्य है जहाँ चन्द्रमा और नक्षत्र उदित हो गये। अब वहाँ कमल और कुमुदिनी कहाँ दिखाई पडते हैं ?
चकवी चकवे से बिछुड कर पुकारती है, "हे नाथ! तुम कहाँ मिलोगे ! एक चन्दुमा तो रात्रि को स्वर्ग में रहता है और दूसरा दिन में जल में रहता है।