जायसी - मानसरोदक खण्ड
(8)
कहा मानसर चाह सो पाई, पारस - रूप इहाँ लगि आई।
भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसें, पावा रूप रूप के दरसें।
मलय - समीर बास तृन आई, भा सीतल, गौ तपपिन बुझाई।
न जनौं कौनु पौन लेइ आवा, पुन्य दसा भै पाप गँवावा।
तनखन हार बेगि उतिराना, पावा सखिन्ह चन्द बिहँसाना।
बिगसे कुमुद दखि ससिरेखा, भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा।
पावा रूप रूप जस चहा, ससि-मुख जनु दरपन होई रहा।
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर।
शब्दार्थ:
भा = हुआ । पुन्नि = पुप्य की । ततरवन = तत क्षण । उतिराना भावार्यः = तैर आया। निरमर = निर्मल ।
भावार्यः
मानसरोवर ने कहा मैं जिसे चाहता था, वह मुझे पा गई। पारस रूपी पद्मावती मेरे यहाँ आ पाई। उसके चरण स्पर्श से मैं निर्मल हो गया। उसके रूप दर्शन से मेरा भी स्वच्छ रूप हुआ। उसके शरीर से मलयानिल की सुगन्धि आयी, उसके स्पर्श से मैं भी शीतल हो गया और मेरा ताप बुझ गया। न जाने कौन सी वायु चली जो इसे यहाँ ले आयी, मेरी पुण्य की दशा हुई और पाप नष्ट हो गये। उसी क्षण शीघ्रता से हार उत्पर तैर आया और सखियों को मिल गया। उसे देख कर चन्द्रमा रूपी पद्मावती हँस पडी।
चन्द्रमारूप पद्मावती की मुस्कान देखकर कुमुदिनी रूप सखियाँ भी मुस्कराने लगीं। पद्मावती ने जहाँ - जहाँ जो - जो देखां वह सब उसके रूप के समान ही बना। अन्य वस्तुओं के रूप भी पद्मावती के मुख के समान हुए। इस तरह पद्मावती के मुख के लिए सारे पदार्थ मानो दर्पण हे रहे थे। सब मे पद्मावती का ही रूप चमकता था।
पद्मावती का मुख सरोवर की वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होकर दिखलाई देता था। कविवर जायसी यहाँ पदमावती की रूप- विशेषता प्रकट करते हैं। पदमावती के नेत्र सरोवर में कमलों के रूप में पतिबिम्बित थे। उसका शरीर ही सरोवर में • प्रतिबिंबित निर्मल जल था। उसका हास ही मानो सरोवर में प्रतिबिम्बित हंस थे। उसके दाँत सरोवर में नग और हीरों के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहे थे।
विशेषताः
1. यहाँ परमात्मा का विश्व - प्रतिबिम्बि भाव व्यक्त होता है।
2. पद्मावती के परमात्मा तत्व की चर्चा हुई है।