जायसी - मानसरोदक खण्ड
(6)
लागी केलि करै मॅझ नीरा, हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा
पदमावति कौतुक कहँ राखी, तुम ससि होहु तराइन साखी
बाद मेलि के खेल पसारा, हारु देइ जौ खेलत हारा
सॅबरिहि साँबरि गोरिहि गोरी आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी
बूझि खेल खेलहु एक साथा, हारु न हइ पराये हाथा
आजुहि खेल बहुरि कित हुई, खेल गये कित खेलै कोई
धनि सो खेल सो पैमा, उइताई और कूसल खेमा?
मुहमद बाजी प्रेम कै, ज्यों भावै त्यों खेल
तिल फूलहि के ज्यों, होइ फुलायल देल
शब्दार्थ:
मँझ = मध्य । बादि = बाजी, मेलिलगाकर । हारु = हार । हारा = हार जाय। रैताई = प्रभुताई । कुसल = कुशल | रवेमा = क्षेम | बारि = जल | परेम = प्रेम । तील = तिल । फुलाएल = फुलेल (सुगन्धि)।
भावार्थः
पद्मावती एवं सखियाँ जल के बीच क्रीडा करने लगीं। उनकी मनोहर क्रीडा देख कर हंस लज्जित होकर किनारे पर बैठ गया। सखियों ने पदमावती को कौतुक देखनेवाली के रूप में बिठाकर कहा, “तुम शशि के रूप में हम तारागण की साक्षी हो कर रहो। फिर उन्होंने बाजी लगाकर खेलना शुरू किया- खेलने में जो हार जाय, वह अपना हार देदे। साँवली ने साँवली के साथ और गोरी ने गोरी के साथ अपनी-अपनी जोडी बनाली थी। समझ बूझ कर एक साथ खेल खेल खेलें, जिस से अपना हार दूसरे के हाथ न जाये। आज ही तो खेल है। फिर यह खेल कहाँ होगा ? खेल के समाप्त हो जाने पर, फिर कोई कहाँ खेलता है ? वह खेल धन्य है जो प्रेम के आनन्ध से युक्त हो। (ससुराल में) प्रभुताई और कुशल क्षेम एक साथ नहीं रह सकते।
मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं, "प्रेम के जल में जैसा भावे, वैसा ही खेलो। जिस प्रकार तिल फूलों के साथ मिलकर सुगन्लित तेल बन ही जाते हैं उसी तरह बाजी खेलनी हैं। जैसे भाव वैसे ही प्रेम की बाजी खेलो।"
विशेषताएँ :
यहाँ समासोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुआ है।