ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की विचारधारा का अवलोकन कीजिए।
रूपरेखा :
1. प्रस्तावना
2. निर्गुण ब्रह्म ती उपासना
3. अवतारवाद का खण्डन
4. गुरु का महत्व
5. जाति - पांत का खण्डन
6. बाह्याडंबरों का खण्डन
7. रहस्यवाद
8. नाम स्मरण
9. अनुभूति की तीव्रता
10. समाज सुधार
11. दार्शनिक विचारधारा
12. भाषा - शैली
13. उपसंहार
प्रस्तावना :
हिन्दी साहित्य क्षेत्र के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रधान कवि कबीर माने जाते हैं। वे ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक हैं। वे एकेश्वरवादी हैं और उनका एकेश्वरवाद मुसलमानों के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वह अलख तथा अगोचर है। कबीर भक्त, ज्ञानी समाज सुधारक, रहस्यवादी, साधक, जाति-पाँत का खण्डन करने वाला, विचारक, मूर्ति पूजा का खण्डन करने वाला आदि के रूप में हमारे सामने आते हैं। ध्यान से देखने पर कबीर में वैष्णवों की भक्ति, जैनों का अहिंसावाद और बौद्धों का बुद्धिवाद दिखाई देते हैं। कबीर बाह्याडंबरों का खण्डन करके उपनिषदों का अद्वैतवाद प्रतिपादित करते हैं। वे अनपढ़ थे। लेकिन साधु-संतों की संगति गुरु रामानन्द की कृपा, सतत प्राकृतिक-सामाजिक निरीक्षण, दार्शनिक चिन्तन, आडंबर रहति जीवन, राम भक्ति में तल्लीन होना आदि के कारण उनकी वाणी कविता की लहरों में पल्लवित होती है। यह एक बडी चर्चा का विषय है कि - कबीर कवि थे या भक्त थे या दर्शनिक थे। लेकिन हमारे विचार में कबीर इन तीनों का समन्वय रूप है। इन को अलग अलग दृष्टियों से देखना कठिन है।
कबीर समाज में विविध विषयों का अनुशीलन करते जाते थे। उनके शिष्य भी विविध प्रकार के प्रश्न करते थे। समय समय पर विचारधारा में पल्लवित हुई उनकी वाणी को शिष्यों ने ग्रन्थ का रूप दिया है जो बीजक नाम से विख्यात है। इस के तीन भाग हैं, साखी, सबद तथा रमैनी। वे नीराकार राम के अनन्य भक्त हैं। कबीर उस समय पंजाब से लेकर बंगाल तक सारे हिन्दुस्तान में विचरते थे। साधु-संतों के शब्द उनके साहित्य में प्रचलित होने के कारण उनकी भाषा सधुक्कडी कहलाती है और विवधि भाषाओं का मिश्रम होने के कारण खिचडी कहलाती है। कबीर जो भी भाव या विचार उनके मन में आते थे, निर्भीकता के साथ डटकर समाज के सामने प्रस्तुत करते थे। -
2. निर्गुण बह्म की उपासना :
संत कबीर राम के अनन्य भक्त होने के कारण वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं -
"निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई।
हिन्दु तुरक न कोई"।।
उनके राम निराकार थे। वे दशारथनन्दन राम को नहीं मनते थे।
"दशरथ सुत का लोक बखाना
राम नाम का मरम है आना”
वे राम के बारे में इस प्रकार कहते हैं -
"न मैं मंदिर न मैं मसजिद न काबे कैलास में"
वे कहते हैं कि निर्गुण राम हर जीव की साँसों में रहते हैं।
3. अवतारवाद का खण्डन:
संत कबीर निर्गुण परब्रह्म के उपासक थे। वे अवतारवाद का डटकर खण्डन करते थे। अवतार के बहाने परमात्मा को जन्म - मरण के बन्धनों में डालना वे नहीं चाहते थे। इसलिए कबीर अवतार वाद का खण्डन करते हैं।
4. गुरु का महत्त्व:
संत कबीर गुरु को भगवान से भी बढ़कर मानते हैं क्यों कि गुरु ज्ञान प्रदाता है। गुरु के द्वारा ही हम भगवान को जान सकते हैं। इसलिए कबीर कहते हैं कि - सारी पृथ्वी को कागज बनौकर, सारे समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर और सारे वृक्षों को कलमें बनाकर लिखने पर भी गुरु की महत्ता पूर्णरूप से नहीं लिख पाते।
धरती सब कागद करौं लेखिनि सब बनराइ।
सात समंद की मसि करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ।।
इसलिए वे कहते है -
“गुरु गोविन्द दोऊ खडे काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय'।।"
5. जाति - पांत का खण्डन :
परमात्मा एक ही है। सारे जीव उसी के बनाये हुए पुतले हैं। जाति-पान्त मानव निर्मित हैं। जाति से संसार को कोई लाभ नहीं। लाभ होता है ज्ञान से। इसलिए कबीर कहते हैं -
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पडा रहने दो म्यान।।"
6. बाहयाडंबरों का खण्डन :
धर्म के नाम पर होनेवाले व्रत, तीर्थ, रोजा, नमाज, मूर्ति पूजा आदि का खण्डन कबीर ने कटु किया है। समाज में लोग दया तथा करुणा के बारे में चर्चा करते हैं। लेकिन सच्चा दयावान कहीं भी दिखाई नहीं देता। बकरी कहीं जंगल में जाकर घास - पत्ते खा लेती है, मानव उसकी खाल निकाल देता है और खा लेता है। फिर, मानव को कौन खाये?
"बकरी पाती खात है ताकि खाई खाल।
जे जन बकरी खात है, तिन को कौन हवाल।।"
कंकड और पत्थर जोडकर मसजित बना देते हैं। मुल्ला उस पर चढ़कर ऐसे तनाव के साथ पुकारता है मानो अल्लाह बहरा हुआ है। इसी प्रकार मंदिर में पत्थर की मूर्ति रखकर पूजा करनेवाले भी कबीर से छूटे नहीं।
"कंकर पत्थर जोरि के मसजिद लई बनाय।
उसपर चढ़ी मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय।।"
"पाहन पूजे हरि मिले मैं, पूजू पहार।
ताते से यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।"
7. रहस्यवाद :
संत कबीर महान साधक थे। वे सदा आत्मानुभूति में विचरते थे। वे हठयोग की साधना करते थे। उनके साहित्य में नाड़ी व्यवस्था की चर्चा होती थी। अपने पदों में और दोहों में वे इस पिंगला और सुशुम्ना की चर्चा करते जाते थे। यह सारा संसार ब्रह्मय है। ब्रह्म से जीव आता है, और फिर ब्रह्म में ही वह तीन हरे जाता है। इसी विषय को दार्शनिक कबीर प्रतीकात्मक विधान में प्रस्तुत करते हैं।
"जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना यह तथ्य कहियो ग्यानि”।
8. नाम स्मरण :
कबीरदास सदा निराकार राम का स्मरण करते थे। भगवान की भक्ति प्रधान है। भगवान के सामने सब कुछ समर्पित करना है। अभिमान को त्याग कर भगवान का स्मरण करे। विविध पुस्तकें पढ़ने से कोई लाभ नहीं।
"पोथी पदि पदि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।"
प्रेम की गली इतनी संकरी है, उस में एक ही चल सकता है। जब व्यक्ति अंधकार पूर्ण हता है तब भगनान उस में आ नहीं पाता। अंहकार को त्याग ने पर भगवान उस गली में आ सकता है।
9. अनुभूति की तीव्रता
कबीर सरल हृदयी थे। जो भी विषय वे निष्कलंक तथा कपट रहित होकर पस्तुत करते थे। यह सारा संसार भ्रमात्मक है। नर को माया जनित संसार आकर्षित करता है और वह नर अंत में नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
"माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।
कहै कबीर गुरु म्यान ते एक आध उबरंत।।"
10. समाज सुधार : -
कबर की वाणी में समाज सुधार की चेतना दिखाई देती है। हमारी गलतियों को बताने वाला सब से हमारा हितैषी होता है। बिन साबुन और पानी के बिना वह हमें धोता चलता है।
"निंदक नियरे रखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।"
11. दार्शनिक विचार धारा :
कबीर महान दार्शनिक हैं। वस्तुतः उनकी विचारधारा अद्वैतवाद से समन्वित है। उनकी विचारधारा रसात्मक अनुभूति से समन्वित है। अनुभूति की तीव्रता में वे भगवान के मिलन के लिए ललचाते हैं। जीवात्मा परमात्मा के मिलन के लिए तडपना कबीर के साहित्य में हृदयस्थित है। राम से मिलने के लिए वे पुकारते हैं.
"आँखडिया झाई पडी पंथ निहारि – निहारि।
जीभडिया छाला पडिया राम पुकारि – पुकारि।।"
कभी- कभी उस तीव्रानुभूति में परमात्मा की झलक-दीप्ति दर्शित होती है, तो वे आनन्द विभोर होकर कहते हैं
“लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गयी लाल ॥”
रहस्यवाद के तीन स्तर होते हैं ।
1. भावत्मक
2. साधनात्मक और
3. अभिव्यंजनात्मक
कबीरदास का रहस्यवाद भावात्मक तथा साधनात्मक है।
12. भाषा - शैली :
कबीर के काव्य में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। गीतिकाव्य के सारे तत्त्व - भावात्मकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता, वैयक्तिकता और भाषा की कोमलता कबीर की वाणी में मिलते हैं। कबीर का साहित्य अवधी; व्रज, खडीबोली, अर्ध मागधी, फारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी आदि भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण है।
सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक आदि विषयों पर चलने पर भी कबीर की वाणी आडंबरहीन होकर एक दम सरल होती है।
13. उपसंहार :
कबीर का साहित्य अपना अलग महत्त्व रखता है। सामाजिक पक्ष तथा दार्शनिक पक्ष दोनों पर कबीर का समान अधिकार दिखाई देता है। प्रतीकात्मक योजना में चलने पर भी उनकी वाणी समाज के हृदयों पर अपनी छाप डालती है। भाषा पर उनका जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। इसीलिए साहित्यिक क्षेत्र में कबीर का स्थान अमर बन गया है।
अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि कबीर संत पहले हैं और कवि बाद में उनकी वाणी में धार्मिक दृष्टिकोण प्रधान है। और काव्यगत दृटिकोण गौण है।