कबीर की दार्शनिक विचारधारा के बारे में एक लेख प्रस्तुत कीजिए।
(अथवा)
कबीर के दर्शन सम्बन्धी विचार क्या थे, विवेचन कीजिए।
रुपरेखा :
1. प्रस्तावना
2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार
योग मर्यादा
3. जीव सम्बन्धी विचारधारा
4. जगत सम्मबन्धी विचारधारा
5. रहस्यवाद
6. जीवन की अस्थिरता
7. सामाजिक दर्शन
8. उपसंहार
1. प्रस्तावना :
भारतीय साहित्य में दर्शन भी साथ-साथ चलता रहता है। किसी भी साहित्यिक विशेष को सावधानी के साथ अवलोकन (परखना, देखना) करना दर्शन कहलाता है। दर्शन और साहित्य परस्पर पूरक हैं। कबीरदास वस्तुतः भक्त थे। संतों के साथ उनका सम्पर्क था। इसलिए उनकी विचारधारा में परमात्मा, प्रकृति, जीव, माया आदि पर चर्चा हुई हैं।
ब्रह्म, जीव, तथा दगत सम्बन्धी विषयों पर चर्चा करना ही 'दर्शन' कहलाता हैं।
तत् + त्वं - तत्त्वं
वह (परमात्मा) तुम - तुम परमात्मा
कबीर निर्गुण परमात्मा को मानते हैं। यह एक प्रकार से भारतीय 'ब्रह्मवाद' है। कबीर अनपढ़ होने के कारण उन्होंने ब्रह्मवाद का अध्ययन नहीं किया। लेकिन साधु-संतों के संपर्क से जो ब्रह्म सम्बन्धी विचार बने वे भारतीय ब्रह्मवाद के अन्तर्गत आते हैं। अपने परमात्मा को कबीर राम रहीम, अल्लाह, गोविन्द आदि नामों से पुकारते हैं। वे निर्गुणेपासक होने के कारण निर्गुण परमात्मा की उपासना करने की सलाह देते हैं।
2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार :
निरगुण राम, निरगुण राम जपहुरे भाई।
हिन्दु तुरक न कोई।।
परमात्मा हर जीव के अन्दर ही रहता है
न मैं मंदिर न मैं मसजिद। न काबे न कैलास में।।
हर जीव की साँस में परमात्मा रहता है। जिसप्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में कस्तूरी रहती हैं। उसी प्रकार परमात्मा हर जीव के अन्दर रहता है। भगवान को न पहचान होने के कारण मानव भौतिक संसार में कहीं-कहीं भटकता रहता है।
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसे घटि-घटि रॉम है, दुनियाँ देखे नाहिं।।
कबीर ज्ञानाश्ररी शाखा के प्रवर्तक होने के कारण सारे विश्व में परमात्मा के दर्शन करते हैं। वे कहते हैं कि- 'घटि- घटि' राम है। कबीर को कुछ लोग 'साधक' कहते हैं। कुछ लोग 'ज्ञानी' कहते हैं। कुछ लोग 'भक्त' कहते हैं और कुछ लोग 'कवि' कहते हैं। लेकिन वस्तुतः कबीर इन सब का समन्वय रूप हैं। परमात्मा को वे हर जीव में अंतर्लीन मानते हैं।
योग मर्यादा :
कबीर हठयोगी हैं। वे मूलाधार से निकलनेवाली इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाडियों की चर्चा करते हैं। मूलाधार से निकलनेवाली चेतना इन नाड़ियों द्वारा सहस्रार तक पहुँचना ही कबीर कैलास, सहस्रार या सहस्रदल कमल कहते हैं। सहस्रार में से निकलनेवाले नाद को. "अनहदनाद" कहा है। मूलाधार से प्राण सहस्रार तक पहुँचना ही अमृतत्त्व सिद्धि कहलाती हैं।
3. जीव सम्बन्धी विचार : -
आत्मा शरीर धारण करने पर 'जीव' कहलाती हैं। जीव अस्वतन्त्र है। सदा परमात्मा की आराधना से जीव मुक्ति प्राप्त-कर लेता है। मोक्ष प्राप्ति केलिए कबीर ज्ञान, भक्ति, योग, ध्यान आदि की आवश्यकता प्रकट करते हैं। परमात्मा को बतानेवाला गुरु है। इसलिए कबीर गुरु को परमात्मा से भी महान मानते है।
गुरू गोविन्द दोख उडे, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय॥
जीव अस्वतन्त्र है। उसे ज्ञान - मार्ग पर ले आनेवाला गुरु होता है। इसलिए कबीर गुरु की महत्ता अनुपम मानते हैं। सारी धरती को 'कागज' बना कर, सारे वृक्षों को 'लेखिनियाँ' बना कर, और सात समुद्रों का पानी 'स्याही' बना कर लिखने से भी गुरु की महिमा लिखी न जाती। वे कहते है -
गुरु धोबी शिष्य कपडा साबुन सिरजनहार।
सुरति सिला पर धोयिएँ।
4. जगत सम्बन्धी विचार :
कबीर सारे जगत को भ्रमात्मक तथा माया जनित मानते हैं। माया मानव को भगवान से अलग कर या दूर करके विविध सांसारिक बंधनों में या मोहों में डाल देती है। गुरु के ज्ञान से जीव उस माया से बच सकता हैं।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत।
कहे कबीर गुरु ग्यान ते एक आध उबरंत॥
माया को कबीर मोहिणी, पापिणी, डाकिनी आदि नामों से बुलाते हैं।
वे करते है कि -
राम सुमरि राम सुमरि भाई।
भगवान के प्रति आत्म समर्पण करना ही जीव का लक्षण हैं। माया के भ्रम में जीव न पड़ कर भगवान में लगन होना ही "भक्ति" हैं। इसीलिए कबीर अपने को राम के कुत्ते तक मानते हैं।
कबीर कूता राम का, मुतियाँ मेरा नाम।
गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊँ॥
5. रहस्यवाद :
प्रकृति में परमात्मा को देखना और परमात्मा की उपासना करना 'रहस्यवाद' है। कबीर बडे रहस्यवादी हैं। कभी साधनात्मक और कभी भावात्मक रहस्यवाद में वे अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। जीव परमात्मा से आता है। शरीर के अन्त हो जाने पर जीव पुनः परमात्मा में जा कर लीन हो जाता है।
जल मैं कुम्भ, कुम्भ में जल हैं, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समानाँ इहि तथ कयौ ग्यानी॥
जीव परमात्मा के दर्शन केलिए तड़पता रहता हैं। कबीर परमात्मा के दर्शन के लिए व्यथित होनेवाली आत्मा को प्रस्तुत करते है।
आँखडियाँ झाई पडी पंथ निहारि निहारि।
जीभडियाँ छाला पडया राम पुकारि पुकारि॥
ज्ञानी कबीर को परमात्मा की झलक दर्शित होने पर वे भाव विभोर हो कर कहते हैं।
लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
यहाँ कबीर का रहस्यवाद अद्वैतवाद से परिपुष्ट हैं। अद्वैतवाद में वैष्णाव शब्दों को समन्वित करना कबीर की साहित्यिक सार्वभौमता है सदा वे परमात्मा को राम शब्द से सम्बोधित करते हैं। इसीलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को "वाणी के डिक्टेटर" कहते हैं।
6. जीवन की अस्थिरता :
कबीर सदा परमात्मा, जीव और जगत के बारे में ही सोचते रहते हैं। समाज में लोग विध्या, धन, प्रभुता (power) कीर्ति आदि पर गर्व करते हैं। लेकिन वे नहीं सोचते कि जीवन क्षणिक हैं। इसलिए गर्व न करें।
कबीर की बाणी कहती हैं।
पानी केरा बुदबुदा अस मनुष की जाति।
देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा परभाति॥
मृत्यु सदा मानवों को चुन चुन कर ले जाती है। प्रतीक योजना के द्वारा कबीर मानव जीवन की क्षण भंगुरता व्यक्त करते है।
माली आवत देखि के कलियाँ करी पुकार।
फूली फूली चुन लिए काल्ह हमारी बार।।
7. सामाजिक दर्शन :
कबीर का समय साहित्यक, धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा राजनीतिक दशाओं में संक्रामक था। मिथ्याडम्बरों में पण्डित पल्लवित हो रहे थे। समाज में सच्चाई का नाम नहीं था। इसलिए मिध्याबादी पण्डितों की अवहेलना करते हुए।
पोथी पढ़ि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोइ।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ।।
आदमी को सत्य निष्ठ बनने केलिए उस की गलितियों को पकड़ने वाला साथ रहना चाहिए।
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाइ।
बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।
वे कहते हैं - हिन्दू, दया की चर्चा करते हैं और मुसलमान, मेहर की चर्चा करते हैं। लेकिन व्यवहार में आ कर हिन्दुओं में न दया हैं और मुसलमानों में न मेहर हैं। इसप्रकार समाज में होनेवाले अनेक तृटियों का वे डट कर खण्डन करते हैं।
8. उपसंहार :
कबीर भक्त हैं, ज्ञानी हैं, साधु हैं, पति, पिता, कर्मठ (काम करनेवाला) और सब से बढ़ कर बडे दार्शनिक हैं। हर विषय में उनकी दार्शनिक विचारधारा अन्तर्लीन रहती है। ये योगी होने के कारण योग साधना के साथ-साथ राम और जगत पर प्रेम भावना रखते हैं। सब से बढ़ कर दार्शनिक लालच नहीं होता। लालच माया जनित है। इसलिए वे भगवान से कहते हैं।
साई इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय।।