भ्रमरगीत के अर्थ विस्तार पर चर्चा कीजिए।
रूपरेखा
1. प्रस्तावना
2. भ्रमर का प्रतीकार्थ
3. भ्रमर प्रतीकार्थ कृष्ण
4. उपसंहार
1. प्रस्तावनाः भ्रमरगीत का अर्थ -
'भ्रमर' श्यामवर्ण का उडनेवाला एक जीव होता है। उड़ते समय वह गुंजार भी करता है। 'मधुवृत्त', 'मधुकर', 'मुधुप', 'अति', 'षटपद', 'चंचरीक', 'अलिंद', 'सारंग', 'भौरा', 'भृंग' आदि नामों से भी वह प्रसिद्ध है। उसके शरीर पर पीत रंग का एक सूत्र होता है। 'गीत' का अर्थ है- 'गाना'। अत: 'भ्रमरगीत' का शाब्दिक अर्थ होता है- 'भ्रमर का गाना' अथवा 'भ्रमर को लक्ष्य करके गाया हुआ गान'।
'भ्रमरगीत' शब्द 'भ्रमर' और गीत दो शब्दों के योग से होता है। हिन्दी साहित्य में उपालम्भ काव्य के रूप में 'भ्रमरगीत' का विशेष महत्व है।
2. भ्रमर का प्रतीकार्थः उद्धव :
काव्य में 'भ्रमर' शब्द का प्रयोग कृष्ण और उनके सखा उद्धव केलिए हुआ है। कृष्ण श्याम वर्ण के हैं और वे पीताम्बर धारण करते हैं। कृष्ण के मित्र उद्धव भी श्यामवर्ण के होकर पीताम्बरधारी भी हैं। उद्धव का वर्ण और बेष भ्रमर के समान है। साथ ही वे योगसाधना में रत रहकर कमल- संपुट में बन्द हो मौन- समाधि में मग्न होने वाले भ्रमर से साम्य रखते हैं। आत: 'भ्रमरगीत' काव्य में उद्धव को 'भ्रमर' के प्रतीकार्य में सम्बोधित किया गया है।
इस प्रकार 'भ्रमरगीत' का अर्थ "भ्रमर को लक्ष्य करके लिखा गया गान" माना गया है। भ्रमर के प्रतीकार्य में उद्धव को स्थापित करती हुई गोपियाँ कहती हैं
मधुकर! जानत है सब कोई
जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निगुन हो दोऊ।
पाये चोर हृदय के कपटी तुम कारे अस दोऊ।
3. भ्रमर का प्रतीकार्थः कृष्ण
भ्रमरगीत में कृष्ण को भ्रमर के प्रतीकार्य में बताया गया है। श्रीकृष्ण का वर्ण भ्रमर के समान श्याम है। वे पीताम्बरधारी हैं और भ्रमर के शरीर पर पीत चिह्न होते हैं। अपने स्वर गुंजार से भ्रमर लोगों के मन को मुग्ध करता है। श्रीकृष्ण अपने मनोहर मुरलीरव से सर्वजीवों को मोहित कर लेते हैं। जिस प्रकार भ्रमर एक पुष्प का प्रेम ठुकराकर दूसरे पुष्प पर चला जाता है, उसी प्रकार कृष्ण गोपियों के प्रेम को ठुकरा कर मथुरा चले जाते हैं। भ्रमर पुष्प - रस चुराता है तो कृष्ण गो - रस की चोरी करते हैं। पुष्प-रस का आस्वादन कर और फिर उसे ठुकरा कर भ्रमर शठता का व्यावहार करता है। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ प्रेम करके उनको छोड जाते हैं। ऐसा करना भी शठता ही है।
कोउ कहै री। मधुप भेस उन्हीं को धारयो।
स्याम पीत गुजार बैन किकिन झनकारयौ।
वापुर गोरसि चोरि कै आयो फिरि यहि देश।
इनको जनि मानहु कोऊ कफरी इनको भेस चोरि जनि जा कछु।
जनि पहसहु मम पाँव रे हम मानत तुम चोर।
तुमही - रूप कपटी हुते मोहन नन्दकिशोर।
4. उपसंहार
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'भ्रमर' श्रीकृष्ण और उद्धव दोनों के प्रतीकार्थ में प्रयुक्त हुआ है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार 'भ्रमर' का अर्थ 'पति' अथवा 'नायक' माना जाता है। भ्रमर शब्द भी अर्थ - विकास की दृष्टि से भ्रमर नामक कीट से अर्थ विस्तार करके कृष्ण का पर्याय हुआ और तब पति का भी पर्याय हो गया। लोक गीतों में भी ‘भ्रमर' - ‘भ्रमर जी' हो कर पति के लिए रुढ़ हो गया है। श्रीकृष्ण गोपियों के परम पति और नायक हैं। 'भ्रमर' शब्द को पति या 'नायक' अर्थ में स्वीकार किया जाय तो 'भ्रमरगीत' का आशय होगा - "पति या नायक को लक्ष्य करके लिखा गया गान”।
हिन्दी - काव्य में कृष्ण, राधा और गोपियों के प्रेम-प्रसंग को लेकर उद्धव और भ्रमर के माध्यम से जो लिखा गया, वह सब 'भ्रमरगीत' क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। भ्रमर षटपद होता है। अतः भ्रमरगीत के लिए षटपदी छन्द विशेष है। इस छन्द में छः चरण होते हैं। लय और गति की दृष्टि से इसके प्रथम दो चरण अर्द्धाली के रूप में होते हैं। भ्रमरगीत लिखते समय सारे कवियों ने भ्रमरगीत - छन्दों को नहीं अपनाया। लेकिन भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से भ्रमरगीत काव्य अत्यन्त महत्व रखता है।
ज्ञान पर प्रेम की, और मस्तिष्क पर हृदय की विजय दिखा कर निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण साकार ब्रह्म की भक्ति भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करना भ्रमरगीत काव्य की विशेषता है। काव्य - रचना में कवि सूरदास का उद्देश्य भी यही है।