'भ्रमरगीत' के उद्भव और विकास पर समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान निर्धारित कीजिए।
(अथवा)
हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा पर प्रकाश डालिए।
रूपरेखा :
1. प्रस्तावना
2. भ्रमर का सांकेतिक अर्थ
3. भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत
4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास
5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत
6. उपसंहार
1. प्रस्तावना :
भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है- 'भौरे का गीत' या 'भौरे से सम्बन्धित गीत'। भारतीय काव्य में 'भ्रमरगीत' एक विशेष प्रसंग से सम्बद्ध है। कृष्ण मथुरा चल कर राज-काज से व्यस्त हो, उद्धव के द्वारा ब्रजवासियों को सन्देश भेजते हैं। गोकुल आने पर गोपियाँ उद्धव के सम्मुख भ्रमर को सम्बोधित करके कुछ उपालम्भ देती हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण को ही दिये जाते हैं। यही प्रसंग 'भ्रमरगीत' के नाम से प्रख्यात हुआ है। इस प्रकार ‘भ्रमरगीत' गोपी- उद्धव सवाद का सूचक है।
2. 'भ्रमर' का सांकेतिक अर्थ : -
गोपियाँ अपने उपालम्भ केलिए भ्रमर को ही क्यों चुनती है? बात यह है कि भारतीय श्रृंगार काव्य में भ्रमर सदा से ही रसिक वृत्ति का प्रतीक माना जाता है। खिले हुए पुष्पों का रस चूस कर विमुख हो जाना भ्रमंर के स्वभाव की बडी विशेषता है। कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध भी भ्रमर और कलिकाओं सा है। कृष्ण की अन्य विशेषताएँ भी भ्रमर में मिल जाती हैं। भौरा गुंजार करता है तो कृष्ण अपनी बाँसुरी के मधुर स्वर से गोपियों को आकर्षित करते हैं। भ्रमर और कृष्ण दोनों श्यामवर्ण के हैं। उद्धव भी भ्रमर का साम्य रखते हैं। इसी कारण भ्रमर के प्रतीकार्थ में उद्धव को भी लिया जाता है।
3.भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत :
भ्रमरगीत परम्परा का मूल उद्भव - स्रोत श्रीमद्भागवत है। गोपियाँ व्यंग्य करती हैं। उनकी प्रत्येक उक्ति में विरह - वेदना, आत्म दैन्य, उपालंभ, प्रेमासक्ति और हास- परिहास का माधुर्य प्रस्फुटित होते हैं।
विसृज शिरसि पाद वेदम्यह चाटुकारै -
रनुनयविदुवस्ते ऽ भ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात।
स्वकृत इह विसृष्टापत्यन्यलोक।
व्यमृजद कृतचेता कि नु सन्थेयमस्मिन्?
प्रेम के क्षेत्र में भ्रमर का उल्लेख कालिदास कृत 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' मे प्राप्त होता है। भ्रमर आकर शकुन्तला के शरीर पर बैठ जाता है तो दुष्यंन्त ईर्ष्या पूर्वक कहता है -
चलापांगं दृष्टि स्पृशसि बहुधा वेपयुमती
रहस्यारुथीव स्वनसि मृदुकर्णन्तिकचरः
कर व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधुर
वय तत्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती॥
4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास :
कटक माझ कुसुम परगास, भ्रमर विकल नहिं पाबए पास।
भ्रमरा मेल घुरए सब ठाम तो हे बिनु मालती नहि बिसराम।
उद्धव- गोरी संबाद का इस छन्द में कोई उल्लेख नहीं है। फिर भी इस में भ्रमर सम्बन्धी धारण का प्रभाव अवश्य परिलक्षित होता है।
हिन्दीं में भ्रमरगीत परम्परा के प्रवर्तक का श्रेय महाकवि सूरदास को दिया जाता है। उनके प्रभाव से प्रायः अन्य सभी कृष्ण - भक्त कवियों ने इस प्रसंग पर थोडे बहुत पद लिखे हैं जिन में ये नाम उल्लेखनीय हैं - नन्ददास, परमानन्ददास, हित बृन्दावनदास, हरिराय, रसखान, मुकुन्ददास, घासीराम आदि। आगे चलकर रीतिकालीन कवियों में देव, पदमाकर ग्वाल कवि, महाराज रघुराज सिंह आदि अनेक कवियों ने कुछ फुटकर छन्दों में भ्रमरगीत प्रसंग की चर्चा की है।
आधुनिक युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बदरीनारायण 'प्रेमधन', सत्यनारायण 'कविरत्न', जगन्नाथदास रत्नाकर, मैथिलीशरणगुप्त, हरिऔध, रामशंकर 'रसाल', द्वारिकाप्रसाद मिश्र, हरदेव प्रसाद, जगन्नाथ सहाय आदि कवियों ने उद्धव-गोपी-सवाद का वर्णन किसी न किसी रूप में किया है।
5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत
वैसे तो हिन्दी में प्रायः सभी भक्त एवं श्रृंगारी कवियों ने 'भ्रमरगीत' लिखे हैं। किन्तु विस्तृत रूप से इसी प्रसंग को लेकर काव्य रचना करनेवाले कुछ कवियों की चर्चा करें -
(क) सूरदास का भ्रमरगीत - सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' में तीन 'भ्रमरगीत' उपलब्ध होते हैं। उनमें दो अत्यन्त संक्षिप्त हैं, किन्तु अन्तिम अत्यन्त विस्तृत है। प्रथम 'भ्रमरगीत' भागवत् से अनुवादित - सा है तथा यह चौपाई छन्द में रचितं है। दूसरा भ्रमरगीत पदशैली में है। तृतीय 'भ्रमरगीत' में लगभग चार सौ पद हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने 'भ्रमरगीत' को अलग 'भ्रमरगीत - सार' के नाम से संकलित किया है।
सरदास को भ्रमरगीत रचनां की प्रेरणा स्पष्ट ही भागवत पुराण से मिली होगी। भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्मसाधना तथा कृष्ण की व्यापकता, सार्वकालिकता का रूप प्रतिपादन करना है। किन्तु सूरदास इसी से संतुष्ट नहीं होते। वे गोपियों के मुँह से ज्ञान की निन्दा, उसका उपहास और तिरस्कार भी करवाते हैं। यही मानों निर्गुण के ऊपर सगुण की, ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है। वे स्पष्ट रूप से ज्ञान को प्रेम की अपेक्षा हेय एवं त्याज्य सिद्ध करते हुए लिखते है।
आयो घोष बडो व्यापारी।
लादि खेप, गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।
फाटक देकर हाटक माँगत भोरे निपट सु थारी।
इनके कहे कौन उहकावे ऐसी कौन अजानी।
अपनो दूध छौंडि को पीवै खार कूप को पानी॥
सूर भक्ति विरोधी 'निर्गुण' का गोपियों द्वारा उपहास भी करवाते हैं -
निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर! हँसि समुझाय सौह दै बूझति सौचत हाँसी।
को है जनक, जननि को कहयित, कौन नारि को दासी॥
काव्य की दृष्टि से भागवत की तुलना में सूरदास के भ्रमरगीत में अधिक स्वाभाविकता, रोचकता एव मार्मिकता है। चुटकीले व्यग्यों, मीठे उपहासों, भोली मनुहारों, क्रोधपूर्ण तिरस्कारों एव शोकपूर्ण अश्रुओं की अभिव्यक्ति के कारण 'भ्रमरगीत' काव्य के भावपद में विविधता आ गई है। भागवत पुरण में भ्रमरगीत के रूप में जो रस की एक बूँद. थी, वह सूरदास के ग्रमरगीत में आकर अथाह लहरों के रूप में उद्वेलित दिखाई पड़ती है।
(ख) नन्ददास का भ्रमरगीत - सूर के पश्चात नंददास का भ्रमरगीत महत्त्वपूर्ण है। यह नाटकीय प्रश्नोत्तरी शैली में रचा गया है। उद्धव गोपियों को ज्ञान का उपदेश देते हैं। गोपियाँ उसका तर्कबद्ध खण्डन करती हैं। गोपियों के तर्क से पराजित हो कर उद्धव अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। गोपियों का तर्कबद्ध कथन देखिए -
जो भुख नाहि न हतो, कहाँ किन माखन खायो।
पाँयन बिन मो संग कहाँ वन को धायो।।
सूर की अपेक्षा नन्ददास के भ्रमरगीत में दार्शनिकता की प्रधानता है। सूर के भ्रमरगीत में कुब्जा और राधा दोनों का नाम आया है। परन्तु नन्ददास के भ्रमरगीत में राधा का नाम नहीं है। नन्ददास की गोपियों में सूर की गोपियो के व्यंग्य की अपेक्षा अधिक तीखापन है।
नास्तिक है जे लोग कहा जाने निज रूपै।
प्रगट भानु को छोडि गहत परछाई धूपैं।।
नन्ददास का ‘भ्रमरगीत' अपनी मौलिकता में महत्त्वपूर्ण है। उस में तर्क निपुणता और दार्शनिकता के साथ - साथ सरलता और भाव - व्यंजना भी है। दार्शनिक वाद - विवाद कराकर अन्त में सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा की है। 'भ्रमरगीत' छन्द का आविष्कार सर्व प्रथम नन्ददास के ही 'भ्रमरगीत' में मिलता है।
(ग) तुलसीदास - गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीकृष्ण गीतावली और कवितावली में 'भ्रमरगीत' प्रसंग का वर्णन किया है। कवितावली में गोपियों की मार्मिक व्यथा व्यक्त हुई है -
जोग कथा पठई ब्रज को सब सो।
तुलसी सो सुहागिनि नन्दलाल की।
'श्रीकृण गीतावली' में तुलसी ने 'भ्रमरगीत' के प्रसंग को बहुत विस्तार किया है। उनके 'भ्रमरगीत' में भ्रमर का प्रवेश नहीं होता। मर्यादा स्थापन की प्रकृति तुलसी की भ्रमरगीत की समस्त विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनकी गोपियाँ सूर और नन्ददास की गोपियों की तरह उद्दण्ड और चंचल नही हैं। वे बडी ही विनम्रता से उद्धव से वार्तालाप करती हैं।
भक्तिकाल मे कृष्णदास, हरिराय, मलूकदास, मुकुन्ददास, घासीराम, रहीम, रसखान आदि ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे।
(घ) रीतिकाल में भ्रमरगीत-काव्य :- रीतिकाल के कुछ कवियों ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर फुटकल रचनायें की हैं। इनकी रचनाओं में 'मधुकर', 'मधुप', 'भ्रमर' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। मतिराम, देव, भिखारी दास, धनानन्द, पद्माकर, सेनापति आदि कवियों ने भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे हैं।
(ङ) सत्यनारायण 'कविरत्न' का भ्रमरदूत - आधुनिक युग के कवि श्री सत्यनारायण 'कविरत्न' के 'भ्रमरदूत' में मौलिक प्रसंगो का समावेश हुआ है। इस काव्य में न उद्धव है, न गोपियाँ, न ज्ञान योग, न भक्ति का वाद विवाद, न - निर्गुण - सगुण का खण्डन - मण्डन । यशोदा माता ही भ्रमरदूत बना कर कृष्ण के पास भेजती हैं। देश की सामाजिक और राजनीतिक अधोगति का चित्रण ही इसका मुख्य उद्देश्य है। कवि ने पुरानी परम्परा को छोड़ कर यशोदा को भारतमाता के रूप में प्रस्तुत किया है।
विलपति अति कलपति जबे लखी जननि बिज स्याम।
(च) रत्नाकरजी का उद्भव शतक - रत्नाकरजी ने अपने उद्धव शतक में पूर्ववर्ती सभी भ्रमर गीत काव्यों की - विशेषताओं का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि इसमें सूरदासजी की भावत्मकता, नन्ददास की- सी तार्किकता और रीतिकालीन कवियों का चमत्कार आदि सब गुण मिलते हैं। रत्नाकरजी के भ्रमर गीत की - विशेषता यह है कि इस में कृष्ण और गोपियों में तुल्यानुराग की प्रतिष्ठा की गई है। गोपियों के प्रेम में कृष्ण की व्याकुलता देखिए -विरह-विया की कथा अथाह महा, कहत बने न जो प्रवीन सुकवीनि सौ।
नैकु कही बैननि अनेक कही नैननि सौ, रही-रही सोऊ कहि दीनी हिचकानि सौ॥
रत्नाकर की गोपियो में भवावेश धिक मात्रा में है। उन में सूर की गोपियो का हृदय नन्ददास की गोपियों की बुद्धि और आधुनिक नारी के चतुर्य का मिश्रण है। भाषा में नवीन नवीन प्रयोग भी पाये जाते हैं।
(छ) हरिऔध का प्रियप्रवास - प्रियप्रवास में श्रृगार का चित्रण आधुनिक सुधारवादी दृष्टिकोण से किया गया है। नायिका वासना और प्रेम की सीमाओं से ऊपर उठ कर अपने विश्वप्रेम एवं लोकहित के भाव का परिचय देती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, मैत्री आदि भावों की व्यजना भी सफलतापूर्वक हुई है। 'प्रियप्रवास' में गोपियाँ उद्धव को उपालम्भ देने के स्थान पर अपनी हृदयस्थ प्रणय-भावना एव विरह वेदना की ही व्यजना करती हैं।
श्यामा बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।
रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।
ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारिधारा।
त्यों-त्यों आँसू धिकतर थे लोचनों मध्य आते।
गोपियाँ अपनी अज्ञता स्वीकार करती हैं -
भोली भाली ब्रज अवनि क्या योग की रीति जाने।
कैसे बूझे अबुध अबला ज्ञान-विज्ञान की बात।।
हरिऔध की गोपियाँ अन्त में विश्वहित के लिए अपने सुख का बलिदान करना स्वीकार कर लेती हैं। व्यक्तिगत प्रेम की परिणति विश्वप्रेम में होती है।
मेरे जी में हृदय बिजयी विश्व का प्रेम जाग।
मैने देख परम प्रभु को स्वीय प्राणेश ही में।।
6. उपसंहार
इस प्रकार हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत की दीर्घ परम्परा रही है। इस प्रसंग को हिन्दी में प्रचलित करने का श्रेय एकमात्र सूरदास को ही है। उनके भ्रमरगीत की मार्मिकता से ही परवर्ती कवि प्रभावित तथा प्रेरित हुए। भ्रमर की आड में सूरदास की गोपियों ने विरह वेदना, बिवशता, रोष, उपालम्भ, व्यंग्य, उपहास, आत्मदैन्य आदि विभिन्न भावों से युक्त जो युक्तियाँ कही हैं वे युग-युगों तक अमर रहनेवाली हैं।
सूर की गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -
ऊधो मन नाही दस बीस
एक हुतो सो गयौ स्याम संग
इस में बढ़ कर प्रेम माधुरी की उक्ति और क्या हो सकती है!