(अथवा)
'भ्रमरगीत-सार' में व्यक्त विप्रलंभ श्रृंगार का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
'श्रृंगार रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है।' - इस उक्ति पर अपना विचार प्रकट कीजिए।
रूपरेखा : :
1. प्रस्तावना
2. उद्दीपन विभाव-विधान
3. हृदयग्राही विरह-वर्णन
4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन
5. संचारी भाव
6. आत्मोत्सर्ग की भावना
7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि
8.धर्म का निर्वाह
9. वक्रतापूर्ण व्यंजना
10. सायुज्य मुक्ति
11. उपसंहार
1. प्रस्तावना
'भ्रमरगीत-सार' एक विप्रलम्भ श्रृंगार प्रधान रचना है। इस में विरह की समस्त दशाओं का सजीव उद्घाटन किया गया है। आचार्य शुक्ल का कथन है – न जाने कितने प्रकार की मानसिक दशाएँ ऐसी मिलेगी जिनके नामकरण तक नहीं हुए।"
2. उद्दीपन विभाव-विधान : -
कृष्ण के वियोग मे गोपियों की दशा चिन्तनीय हो जाती है। कृष्ण की उपस्थिति में जो वस्तुएँ प्रिय एव सुखदायक लगती थीं। कृष्ण के वियोग में वे सबा की सब वस्तुएँ दुःखदायी एव अप्रिय लगती हैं। वे उन्हें काटंखाने को बढ़ती - सी लगती हैं। विप्रलम्भ श्रृंगार का यह उद्दीपन विभाव विधान सूर के वियोग - श्रृंगार की अनुपम देन है।
बिनु गुपाल बैरिन भई कुजै।
तब ये लता लगति अति सीतल अब भई विषम ज्वाल की पुजै।।
3. हृदयग्राही विरह-वर्णन :
गोपियों की जाग्रदवस्था रोने में ही बीतती है। स्वप्न में भी कृष्ण का विरह उनके हृदय में कसकता रहता है। न उनको जागनें में चैन है या सोते हुए ही। वस्तुतः नींद आती ही नही। वे रात को सोती हैं अथवा बैठी हुई रोती रहती हैं।
हमको सपनेई में सोच।
जा दिन ते विछुरे नन्द - नन्दन ता दिन ते यह पोच।
मनु गुपाल आए मेरे गृह हँसि करि भुजा गही।
कहा करौ बैरनि भई निदिया निमिष न और रही।
कृष्ण जब से मथुरा गये हैं तब से गोपिकाओं के नेत्र बरसने लगे हैं। इनकी आँखें श्रावण - भादों के रुप में बरसती रहती हैं। क्षण भर के लिए भी उनके आँसू बन्द नहीं होते।
निस दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे।
दृग अंजन लागत नहिं कब हुँ, उर कपोल भए कारे।
कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ उर बिच बहत पनारे।
4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन :
'भ्रमरगीत-सार' में कवि की भावुकता के साथ शास्त्रीय नियमों का भी पालन दिखाई देता है। साहित्य शास्त्र के अनुसार विरह की दस दशायें मानी जाती हैं। भ्रमरगीत में विरह की दसों दशाओं से सम्बन्धित वर्णन मिलते हैं।
(i) अभिलाषा :
निरखत अक स्याम सुन्दर के बार बार लावत छाती।
लोचन जल कागद मसि मिलिकै है गई स्याम-स्याम की पाती।।
(ii) चिन्ता :
मधुकर ये नैना पै हारे।
निरखि निरखि मग कमल नयन को प्रेम भगन भए भारे।
(III) स्मरण :
मेरे मन इतनी सूल रही।
वे बतियाँ कही छतियाँ बिखि राखीं, जे नन्दलाल कही।
एक दिवस मेरे गृह आए मैं दधि मथति रही।
देख तिन्हें हौं मौन कियौ, सो हरि गुसा गही।
(iv) उद्वेग : -
तिहारी प्रीति किथौ तरबारि।
दृष्टिधार करि भार साँवरे, घायल सब बज नारि।
(v) प्रलाप :
कैसे पनघट जाई सखीरी, डोवा जमुना तीर।
भरि-भरि जमुना उमडि चलति है, गन नैननि के नीरा।
इन नैननि के नीर सखीरी सेज भई घरनाउँ।
चाहति हौं तेहि ऊपर चदि कै स्याम मिलन को जाउँ।
(vi) उन्माद :
माधव यह बज को व्यौहार
मेरो कयो पवन को भुन भयौ गावत नन्द कुमार
(vii) व्याधि :
ऊधो जू तिहारे चरन, लागौं, बारक या ब्रज करउ भाँवरी।
निसि न नींद आवै, दिन न भोजन भावै मग जोवत भाई दृष्टि झाँवरी।
(viii) जडता :
बालक सग लिए दधि चोरत, कात खवाबत डोलत।
सूर सीस सुनि चैंकति नामहि अब काहे न मुख बोलत।
(ix) मूर्च्छा :
सोचति अति पछताति राधिका मूर्छित धरनि ढही।
सूरदास प्रभु के बिछुरै सैं बिथा न जाति सही।
(X) मरण :
जब हरि गवन कियौ पूरब लौ लिखि जोग पठायो।
यह तन जरि कै भसम है निवरयो बहुरि मसान जगायो।
मेरे मोहन आन मिलपओ कै लै चलु हम साथै।
सूरदास अब भरत बन्यौ है पाप तिहारे माथै।
5. संचारी भाव :
गोपियों में प्रिय के क्षमाभाव आदि विविध संचारी भावो का मिलन भ्रमरगीत सार में हुआ है।
ब्रज बसहु, गोकुलनाथ।
बहुरि तुमहि न पठवी गोर्धनन के साथ।
बरजौ न माखन खात कब हूँ देहुँ देन लुटाय।
गोपियों का प्रेम स्वार्थ रहित होकर वे केवल कृष्ण के दर्शन की लालसा मात्र रखती हैं। उनके प्रेम में भोगेच्छा नहीं, बल्कि केवल प्रिय - दर्शन की इच्छा है।
एक बार जो देहु दरसन प्रीतिपथबसाय।
करौ चौर चढ़ाय आसन नैन अंग अंग लाय||
6. आत्मोत्सर्ग की भावना :
गोपियों की दर्दभरी भोली-भाली बातों में अनुपात, अधीनता, और त्याग के उदगार हैं। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम शान्त आराधना के रूप में परिणत होता है। सुख - क्रीडा के बदले भ्रमरगीत में भक्तिमार्ग के शान्तरस का स्वरूप दिखाया गया है।
सच्चे प्रेम में आत्मोत्सर्ग की भावना बढ़ती रहती है। अंत में निराश हो कर प्रेमी प्रिय- दर्शन का आग्रह भी छाड देता है। आत्मोत्सर्ग की यह पराकाष्ठा प्रेमी का प्रेम एक अकंचन कामना के रूप में दिखाई देती है। गोपिकाएँ अपने सुख की कामना नहीं करती। वे केवल प्रिय, कृष्ण के सुख की कामना ही सर्वस्व समझती हैं। गोपियों के प्रेम की चरमावस्था देखिए -
जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।
यह असीस सम देति सूर सुन न्हात खसै जानि बार।
विरहताप के कारण गोपियों को गाय-बछड़े, भेडिये और बाध दिखाई देते हैं। गोपियाँ चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आयें। वे नहीं चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आवें । वे नहीं चाहती कि कृष्ण कोई कष्ट भोगें। अतः वे उद्धव से कहती है । "जब तक व्रज निरापद न हो जाय, तब कृष्ण गोकुल से दूर ही रहें!" गोपियों का विचार है -
प्रीति करि काहू सुख न लयो।
7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि : -
विरहाग्नि में प्रेम की निकाई निखरती है। प्रेम रूपी स्वर्ण की परीक्षा विरह रुपी अग्नि में ही होती है।
विरह अग्नि जरि कुन्दन होई। निरमल तन पावै कोई कोई
विरह से प्रेम की पुष्टि होती है। विरह के लेप द्वारा ही प्रेम पक्का होता है। अतः गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -
ऊधो। विरहौ प्रेम करै।
ज्यों बिनु पुट पट गहै न रगहि पुट गहे रसहि परै।
जौ आवो घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।
बिरहाग्नि चित्त को सर्वथा निर्मल बाना देती है। धृति की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कहती हैं -
अब हमरे जिय बैट्यो यह पद होनी होउ सों सोऊ।
मिटि गयो मान परेखो ऊघो, बिरदय दतो तो होऊ।
गोपियों की इच्छा प्रभु पद प्राप्ति मात्र है। अगर प्रभु पद न भी मिले तब भी उनके हृदय में उनका यश गान ही होता रहता है -
हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।
जो व्रजनाथ मिलै तो नी को, नातरु जग जैसे गायो।
8. धर्म का निर्वाह : गोपियों का कृष्ण प्रेम उनके लिए धर्म का निर्वाह है। भक्ति अथवा मुक्ति की कामना के लिए किया जानेवाला कोई अनुष्ठान नहीं, उन्हें कृष्ण प्रिय हैं। इस लिए गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती हैं।
कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध परमात्मा और आत्मा का है। कृष्ण भी गोपियों के लिए व्याकुल होते हैं। वे उद्धव के समक्ष अपने प्रेम की चर्चा करते हुए कहते हैं -
उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस सुता की सुन्दर कगरी रु कुजन की छाहीं।
वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जागही।
श्रृंगार तथा वात्सल्य के क्षेत्र में कवि सूरदास की जैसी अन्तर्दृष्टि कदाचित् ही किसी अन्य कवि को प्राप्त हो। 'भ्रमरगीत-सार' में श्रृंगार रस के प्रायः समस्त सचारी भावों का अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटन दिखाई दैत है।
गोपियाँ उद्धव से वार्तालाप करते समय प्रेम की प्रच्छन्न धारा प्रवाहित होती हैं।
रहु रे मधुकर मधु-मतवारे
कहा करौ निर्गुन लैके हौ ? जीत्रहु कान्ह हमारे।
ऊधो? हम हैं तुम्हारी दासी।
काहे को कटु वचन कहत करत आपनी हाँसी।
9. वक्रतापूर्ण व्यंजना :
'भ्रमरगीत' में कुब्जा के नाम के साथ 'असूया' की बडी ही वक्रतापूर्ण व्यंजना मिलती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि यह सन्देश कृष्ण का हो ही नहीं सकता। कुब्जा ने ही आपको सिखा पढ़ा कर हमें दुःख देने को भेजा है -
मधुकर। कान्ह कही नहिं होही।
रचि राखी कूबरी पीठ पै ये बातें चकचौं ही।
आजकल उस कुबडी की चाँदी है और उसी का जीवन सार्थक है।
जीवन मुहचाही को नीको।
दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी कौ।
10. सायुज्य मुक्ति
श्रृंगार में भक्ति विषयक पक्ष भी आ जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय में मुक्ति की सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य तथा सायुज्य दशायें बतायी गयी हैं। सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य हैं। 'भ्रमरगीत- सार' में गोपियों द्वारा 'सायुज्य मुक्ति' का प्रतिपादन हुआ है।
सीत उष्ण सुख दुःख नहिं मानै, हानि भये कछु सोचन राँचै।
जाय समाय सूर वा निधि में, बहुरि न उलटि जगत में नौचै॥
प्रेम-भाव की चरमसीमा आश्रय और आलम्बन की एकता है। अतः भगवद्भक्ति की साधना के लिए कवि इली प्रेमतत्व लेकर चलते हैं। रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रुप भगवद्विषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति भ्रमर्ग सार में अपूर्वता के साथ निभाये गये हैं।
11. उपसंहार - :
इस प्रकार यह सर्वधा स्पष्ट हो जाता है कि श्रृंगर रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है। उसकी कोई बात उनसे छिपी नहीं रही। सूरदास ने प्रेम क्षेत्र को चारों ओर से लोट-पोट कर देखा भी है और दिखाया भी है। इस क्षेत्र में अन्य कवियों की उक्तियाँ जूठन सी लगती हैं। सूर की रचना गीतकाव्य परम्परा के अन्तर्गत आती है। यह परम्परा उनको जयदेव और विद्यापति से प्राप्त हुई। यह परम्परा श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही आती है।
गीतकाव्य की सफलता के लिए सगीत, भावनाओं की गहनता, आत्माभिव्यक्ति तथा संक्षिप्तता आवश्यक है! 'भ्रमरगीत सार' की रचना इस कसौटी पर खरी उतरी है। काव्य का प्रत्येक पद चुन कर सजाया गया गुलदस्ता है। अमगीतसार के पद सगीतज्ञों के कण्ठहार हैं। आज भी सूर के पद के गायन के बिना कोई भी संगीत सम्मेलन पूर्ण नहीं समझा जाता है।