श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-32
गुरु और ईश्वर की खोज,
उपवास अमान्य
इस अध्याय में हेमाडपंत ने दो विषयों का वर्णन किया है ।
किस प्रकार अपने गुरु से बाबा की भेंट हुई और उनके द्धारा ईश्वरदर्शन की प्राप्ति कैसे हुई।
श्रीमती गोखले को जो तीन दिन से उपवास कर रही थी, उसे पूरनपोली के भोजन कराये।
प्रस्तावना
श्री. हेमाडपंत वटवृक्ष का उदाहरण देकर इस गोचर संसार के स्वरुप का वर्णन करते है। गीता के अनुसार वटवृक्ष की जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई है। ऊध्र्वमूलमधः शाखाम् (गीता पंद्रहवाँ अध्याय, श्लोक 1)। इस वृक्ष के गुण पोषक और अंकुर इंद्रियों के भोग्य पदार्थ है। जड़ें जिनका कारणीभूत कर्म है, वे सृष्टि के मानवों की ओर फैली हुई है। इस वृक्ष की रचना बड़ी ही विचित्र है। न तो इसके आकार, उद्गम और अन्त का ही भान होता है और न ही इसके आश्रय का। इस कठोर जड़ वाले संसार रुपी वृक्ष को, वैराग्य के अमोघ शस्त्र द्धारा नष्ट करने के हेतु किसी बाह्य मार्ग का अवलंबन करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि इस असार-संसार में आवागमन से मुक्ति प्राप्त हो। इस पथ पर अग्रसर होने के लिये किसी योग्य दिग्दर्शक (गुरु) की नितांत आवश्यकता है। चाहे कोई कितना ही विद्धान् अथवा वेद और वेदांत में पारंगत क्यों न हो, वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता, जब तक कि उसकी सहायतार्थ कोई योग्य पथ प्रदर्शक न मिल जाये, जिसके पद चिन्हों का अनुसरण करने से ही मार्ग में मिलने वाले गहृरों, खंदकों तथा हिंसक प्राणियों के भय से मुक्त हुआ जा सकता है और इस विधि से ही संसार-यात्रा सुगम तथा कुशलतापूर्वक पूर्ण हो सकती है। इश विषय में बाबा का अनुभव, जो उन्होंने स्वय बतलाया, वास्तव में आश्चर्यजनक है। यदि हम उसका ध्यानपूर्वक अनुसरण करेंगें तो हमें निश्चय ही श्रद्धा, भक्ति और मुक्ति प्राप्त होगी।
अन्वेषण
एक समय हम चार सहयोगी मिलकर धार्मिक एवं अन्य पुस्तकों का अध्ययन कर रहे थे। इस प्रकार प्रबुदृ होकर हम लोग ब्रहृ के मूलस्वरुप पर विचार करने लगे। एक ने कहा कि हमें स्वयं की ही जाति करनी चाहिए। दूसरों पर निर्भर रहना हमें उचित नहीं है। इस पर दूसरे ने कहा कि जिसने मनोनिग्रह कर लिया है, वही धन्य है, हमें अपने संकीर्ण विचारों व भावनाओं से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि इस संसार में हमारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तीसरे ने कहा कि यह संसार सदैव परिवर्तनशील है केवल निराकार ही शाश्वत है। अतः हमें सत्य और असत्य में विवेक करना चाहिए। तब चौथे (स्वयं बाबा) ने कहा कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से कोई लाभ नहीं। हमें तो अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये। दृढ़ विश्वास और पूर्ण निष्ठापूर्वक हमें अपना तन, मन, धन और पंचप्राणादि सर्वव्यापक गुरुदेव को अर्पण कर देना चाहिये। गुरु भगवान् है, सबका पालनहार है।
इस प्रकार वादविवाद के उपरांत हम चारों सहयोगी वन में, ईश्वर की खोज को निकले। हम चार विद्धान् बिना किसी से सहायता लिए केवल अपनी स्वतंत्र बुद्धि से ही ईश्वर की खोज करना चाहते थे। मार्ग में हमें एक बंजारा मिला, जिसने हम लोगों से पूछा कि हे सज्जनों, इतनी धूप में आप लोग किस ओर प्रस्थान कर रहे है। प्रत्युत्तर में हम लोगों ने कहा कि वन की ओर। उसने पुनः पूछा, कृपया यह तो बतलाइये कि वन की ओर जाने का क्या उद्देश्य है। हम लोगों ने उसे टालमटोल वाला उत्तर दे दिया। हम लोगों को निरुद्देश्य सघन भयानक जंगलों में भटकते देखकर उसे दया आ गई। तब उसने अति विनम्र होकर हम लोगों से निवेदन किया कि आप अपनी गुप्त खोज का हेतु चाहे मुझे न बतलाये, किन्तु मैं प्रत्यक्ष देखा रहा हूँ कि मध्याहृ के प्रचण्ड मार्त्तण्ड की तीव्र किरणों की उष्णता से आप लोग अधिक कष्ट पा रहे है। कृपया यहाँ पर कुछ क्षण विश्राम कर जल-पान कर लीजिये। आप लोगों को सुहृदय तथा नम्र होना चाहिए। बिना पथ-प्रदर्शक के इस अपरचित भयानक वन में भटकते फिरने से कोई लाभ नहीं है। यदि आप लोगों की तीव्र इच्छा ऐसी ही है तो कृपया किसी योग्य पथ-प्रदर्शक को साथ ले लें। उसकी विनम्र प्रार्थना पर ध्यान न देकर हम लोग आगे बढ़े। हम लोगों ने विचार किया कि हम स्वयं ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ है, तब फिर हमें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। जंगल बहुत विशाल और पथहीन था। वृक्ष इतने ऊँचे और घने थे कि सूर्य की किरणों का भी वहाँ पहुँच सकना कठिन था। परिणाम यह हुआ कि हम मार्ग भूल गये और बहुत समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे। भाग्यवश हम लोग उसी स्थाने पर पुनः जा पहुँचे, जहाँ से पहले प्रस्थान किया था। तब वही बंजारा हमें पुनः मिला और कहने लगा कि अपने चातुर्य पर विश्वास कर आप लोगों को पथ की विस्मृति हो गई है। प्रत्येक कार्य में चाहे वह बड़ा हो या छोटा, मार्ग-दर्शक आवश्यक है। ईश्वर-प्रेरणा के अभाव में सत्पुरुषों से भेंट होना संभव नहीं। भूखे रहकर कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। इसलिये यदि कोई आग्रहपूर्वक भोजन के लिये आमंत्रिित करे तो उसे अस्वीकार न करो। भोजन तो भगवान का प्रसाद है, उसे ठुकराना उचित नहीं। यदि कोई भोजन के लिये आग्रह करे तो उसे अपनी सफलता का प्रतीक जानो। इतना कहकर उसने भोजन करने का पुनः अनुरोध किया। फिर भी हम लोगों ने उसके अनुरोध की उपेक्षा कर भोजन करना अस्वीकार कर दिया। उसके सरल और गूढ़ उपदेशों की परीक्षा किये बिना ही मेरे तीन साथियों ने आगे को प्रस्थान कर दिया। अब पाठक ही अनुमान करें कि वे लोग कितने अहंकारी थे। मैं क्षुधा और तृषा से अत्यंत व्याकुल था ही, बंजारे के अपूर्व प्रेम ने भी मुझे आकर्षित कर लिया। यद्यपि हम लोग अपने को अत्यंत विद्धान समझते थे, परन्तु दया एवं कृपा किसे कहते है, उससे सर्वथा अनभिज्ञ ही थे। बंजारा था तो एक शूद्र, अनपढ़ और गँवार, परन्तु उसके हृदय में महान् दया थी, जिसने बारबार भोजन के लिये आग्रह किया। जो दूसरों पर निःस्वार्थ प्रेम करते है, सचमुच में ही महान् है। मैंनें सोचा कि इसका आग्रह स्वीकार कर लेना ज्ञान-प्राप्ति के हेतु शुभ आवाहन है और मैंने इसी कारण उसके दिये हुए रुखे-सूखे भोजन को आदर व प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लिया।
क्षुधा-निवारण होते ही क्या देखता हूँ कि गुरुदेव तुरंत ही प्रगट हो गये और प्रश्न करने लगे कि यह सब क्या हो रहा था। घटित घटना मैंने तुरन्त ही उन्हें सुना दी। उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारे हृदय की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूँगा, परन्तु जिसका विश्वास मुझ पर होगा, सफलता केवल उसी को प्राप्त होगी । मेरे तीनों सहयोगी तो उनके वचनों पर अविश्वास कर वहाँ से चले गये। तब मैंने उन्हें आदरसहित प्रणाम किया और उनकी आज्ञा मानना स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे मुझे एक कुएँ के समीप ले गये और रस्सी से मेरे पैर बाँधकर मुझे कुएँ में उलटा लटका दिया। मेरा सिर नीचे और पैर ऊपर को थे। मेरा सिर जल से लगभग तीन फुट की ऊँचाई पर था, जिससे न मैं हाथों के द्धारा जल ही छू सकता था और न मुँह में ही उसके जा सकने की कोई सम्भावना थी। मुझे इस प्रकार उलटा लटका कर वे न जाने कहाँ चले गये। लगभग चार-पाँच घंटों के उपरांत वे लौटे और उन्होंने मुझे शीघ्र ही कुएँ से बाहर निकाला। फिर वे मुझसे पूछने लगे कि तुम्हें वहाँ कैसा प्रतीत हो रहा था। मैंने कहा कि मैं परम आनन्द का अनुभव कर रहा था। मेरे समान मूर्ख प्राणी भला ऐसे आनन्द का वर्णन कैसे कर सकता है। मेरे उत्तर सुन कर मेरे गुरुदेव अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उन्होंनें मुझे अपने हृदय से लगाकर मेरी प्रशंसा की और मुझे अपने संग ले लिया। एक चिड़िया अपने बच्चों का जितनी सावधानी से लालन पालन करती है, उसी प्रकार उन्होंनें मेरा भी पालन किया। उन्होंने मुझे अपनी शाला में स्थान दिया। कितनी सुन्दर थी वह शाला। वहाँ मुझे अपने माता-पिता की भी विस्मृति हो गई। मेरे अन्य समस्त आकर्षण दूर हो गये और मैंनें सरलतापूर्वक बन्धनों से मुक्ति पाई। मुझे सदा ऐसा ही लगता था कि उनके हृदय से ही चिपके रहकर उनकी ओर निहारा करुँ। यदि उनकी भव्य मूर्ति मेरी दृष्टि में न समाती तो मैं अपने को नेत्रहीन होना ही अधिक श्रेयस्कर समझता। ऐसी प्रिय थी वह शाला कि वहाँ पहुँचकर कोई भी कभी खाली हाथ नहीं लौटा। मेरी समस्त निधि, घर, सम्पत्ति, माता, पिता या क्या कहूँ, वे ही मेरे सर्वस्व थे। मेरी इन्द्रयाँ अपने कर्मों को छोड़कर मेरे नेत्रों में केन्द्रित हो गई और मेरे नेत्र उन पर। मेरे लिये तो गुरु ऐसे हो चुके थे कि दिन-रात मैं उनके ही ध्यान में निमग्न रहता था। मुझे किसी भी बात की सुध न थी। इस प्रकार ध्यान और चिंतन करते हुए मेरा मन और बुद्धि स्थिर हो गई। मैं स्तब्ध हो गया और उन्हें मानसिक प्रणाम करने लगा। अन्य और भी आध्यात्मिक केन्द्र है, जहाँ एक भिन्न ही दृश्य देखने में आता है। साधक वहाँ ज्ञान प्राप्त करने को जाता है तथा द्रव्य और समय का अपव्यय करता है। कठोर पिरश्रम भी करता है, परन्तु अनत् में उसे पश्चाताप ही हाथ लगता है। वहाँ गुरु अपने गुप्त ज्ञान-भंडार का अभिमान प्रदर्शित करते है और अपने को निष्कलंक बतलाते है। वे अपनी पवित्रता और शुदृदता का अभिनय तो करते है, परन्तु उनके अन्तःकरण में दया लेशमात्र भी नहीं होती है। वे उपदेश अधिक देते है और अपनी कीर्ति का स्वयं ही गुणगान करते है, परन्तु उनके शब्द हृदयवेधी नहीं होते, इसलिये साधकों को संतोष प्राप्त नहीं होता। जहाँ तक आत्म-दर्शन का प्रश्न है, वे उससे कोसों दूर होते है। इस प्रकार के केंद्र साधकों को उपयोगी कैसे सिदृ हो सकते है और उनसे किसी उन्नति की आशा कोई कहाँ तक कर सकता है। जिन गुरु के श्री चरणं का मैंने अभी वर्णन किया है, वे भिन्न प्रकार के ही थे। केवल उनकी कृपा-दृष्टि से मुझे स्वतः ही अनुभूति प्राप्त हो गई तथा मुझे न कोई प्रयास और न ही कोई विशेष अध्ययन करना पड़ा। मुझे किसी भी वस्तु के खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी, वरन् प्रत्येक वस्तु मुझे दिन के प्रकाश के समान उज्जवल दिखाई देने लगी। केवल मेरे वे गुरु ही जानते है कि किस प्रकार उनके द्धारा कुएँ में मुझे उल्टा लटकाना मेरे लिये परमानंद का कारण सिदृ हुआ।
उन चार सहयोगियों में से एक महान कर्मकांडी था। किस प्रकार कर्म करना और उससे अलिप्त रहना, यह उसे भली भाँति ज्ञात था। दूसरा ज्ञानी था, जो सदैव ज्ञान के अहंकार में चूर रहता था। तीसरा ईश्वर भक्त था जो कि अनन्य भाव से भगवान् के शरणागत हो चुका था तथा उसे ज्ञात था कि ईश्वर ही कर्ता है। जब वे इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय कर रहे थे, तभी ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न उठ पड़ा तथा वे बिना किसी से सहायात प्राप्त किये अपने स्वतंत्र ज्ञान पर निर्भर रहकर ईश्वर की खोज में निकल पड़े। श्री साई, जो विवेक और वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति थे, उन चारों लोगों में सम्मिलित थे। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि जब साई स्वयं ही ब्रहमा के अवतार थे, तब वे उन लोगों के साथ क्यों सम्मिलित हुए और क्यों उन्होंने इस प्रकार अविदृतापूर्ण आचरण किया। जन-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही उन्होने ऐसा आचरण किया। स्वयं अवतार होते हुए भी और यह दृढ़ धारणा कर कि अन्न् ही ब्रहमा है, उन्होंने एक क्षुद्र बंजारे के भोजन को स्वीकार कर लिया तथा बंजारे के भोजन के आग्रह की उपेक्षा करने और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त करने वालों की क्या दशा होती है, इसका उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया। श्रुति (तैत्तिरीय उपतनिषद्) का कथन है कि हमें माता, पिता तथा गुरु का आदरसहित पूजन कर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये। ये चित्त-शुद्धि के मार्ग है और जब तक चित्त की शुद्धि नहीं होती, तब तक आत्मानुभूति की आशा व्यर्थ है। आत्मा इंद्रयों, मन और बुद्धि के परे है। इस विषय में ज्ञान और तर्क हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते, केवल गुरु की कृपा से ही सब कुछ सम्भव है। धर्म, अर्थ, और काम की प्राप्ति अपने प्रयत्न से हो सकती है, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति तो केवल गुरुकृपा से ही सम्भव है। श्री साई के दरबार में तरह-तरह के लोगों का दर्शन होता था। देखो, ज्योतिषी लोग आ रहे है और भविष्य का बखान कर रहे है। दूसरी ओर राजकुमार, श्रीमान्, सम्पन्न और निर्धन, सन्यासी, योगी और गवैये दर्शनार्थ चले आ रहे है। यहाँ तक कि एक अतिशूद्र भी दरबार में आता है और प्रणाम करने के पश्चात् कहता है कि साई ही मेरे माँ या बाप है और वे मेरा जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा कर देंगें। और भी अनेकों –तमाशा करने वाले, कीर्तन करने वाले, अंधे, पंगु, नाथपन्थी, नर्तक व अन्य मनोरंजन करने वाले दरबार में आते थे, जहाँ उनका उचित मान किया जाता था और इसी प्रकार उपयुक्त समय पर, वह बंजारा भी प्रगट हुआ और जो अभिनय उसे सौंपा गया था, उसने उसको पूर्ण किया।
हमारे विचार से कुएं में 4-5 घंटे उलटे लटके रहना – इसे सामान्य घटना नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई बिरला ही पुरुष होगा, जो इस प्रकार अधिक समय तक, रस्सी से लटकाये जाने पर कष्ट का अनुभव न कर परमानंद का अनुभव करे। इसके विपरीत उसे पीड़ा होने की ही अधिक संभावना है। ऐसा प्रतीत होता है कि समाध-अवस्था का ही यहाँ चित्रण किया गया है। आनंद दो प्रकार के होते है – प्रथम ऐन्द्रिक और द्धितीय आध्यात्मिक। ईश्वर ने हमारी इन्द्रियों व तन मन की प्रवृत्तियों की रचना बाह्यमुखी की है। और जब वे (इन्द्रयाँ और मन) अपने विषयपदार्थों में संलग्न होती है, तब हमें इन्द्रय-चैतन्यता प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरुप हमें सुख या दुःख का पृथक् या दोनों का सम्मिलित अनुभव होता है, न कि परमानंद का। जब इन्द्रयों और मन को उनके विषय पदार्थों से हटाकर अंतर्मुख कर आत्मा पर केन्द्रत किया जाता है, तब हमें आध्यात्मिक बोध होता है और उस समय के आनन्द का मुख से वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं परमानन्द में था तथा उस समय का वर्णन मैं कैसे कर सकता हूँ। इन शब्दों से ध्वनित होता है कि गुरु ने उन्हें समाधि अवस्था में रखकर चंचल इन्द्रयों और मनरुपी जल से दूर रखा।
उपवास और श्रीमती गोखले
बाबा ने स्वयं कभी उपवासा नहीं किया, न ही उन्होंने दूसरों को करने दिया। उपवास करने वालों का मन कभी शांत नहीं रहता, तब उन्हें परमार्थ की प्राप्ति कैसे संभव है। प्रथम आत्मा की तृप्ति होना आवश्यक है भूखे रहकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि पेट में कुछ अन्न की शीतलता न हो तो हम कौनसी आँख से ईश्वर को देखेंगे, किस जिह्वा से उनकी महानता का वर्णन करेंगे और किन कानों से उनका श्रवण करेंगे। सारांश यह कि जब समस्त इंद्रियों को यथेष्ठ भोजन व शांति मिलती है तथा जब वे बलिष्ठ रहती है, तब ही हम भक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की अन्य साधनाएँ कर सकते है, इसलिये न तो हमें उपवास करना चाहिये और न ही अधिक भोजन। भोजन में संयम रखना शरीर और मन दोनों के लिये उत्तम है।
श्रीमती काशीबाई काननिटकर (श्रीसाईबाबा की एक भक्त) से परिचयपत्र लेकर श्रीमती गोखले, दादा केलकर के समीप शिरडी को आई। वे यह दृढ़ निश्चय कर के आई थीं कि बाबा के श्री चरणों में बैठकर तीन दिन उपवास करुँगी। उनके शिरडी पहुँचने के एक दिन पूर्व ही बाबा ने दादा केलकर से कहा कि मैं शिमगा (होली) के दिनों में अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता है। यदि उन्हें भूखे रहना पड़ा तो मेरे यहाँ वर्तमान होने का लाभ ही क्या है। दूसरे दिन जब वह महिला दादा केलकर के साथ मसजिद में जाकर बाबा के चरण-कमलों के समीप बैठी तो तुरंत बाबा ने कहा, उपवास की आवश्यकता ही क्या है। दादा भट के घर जाकर पूरनपोली तैयार करो। अपने बच्चों को खिलाओ और स्वयं खाओ। वे होली के दिन थे और इस समय श्रीमती केलकर मासिक धर्म से थी। दादा भट के घर में रसोई बनाने के लिये कोई न था और इसलिये बाबा की युक्ति बड़ी सामयिक थी। श्रीमती गोखले ने दादा भट के घर जाकर भोजन तैयार किया और दूसरों को भोजन कराकर स्वयं भी खाया। कितनी सुंदर कथा है और कितनी सुन्दर उसकी शिक्षा।
बाबा के सरकार
बाबा ने अपने बचपन की एक कहानी का इस प्रकार वर्णन किया –
जब मैं छोटा था, तब जीविका उपार्नार्थ मैं बीडगाँव आया। वहाँ मुझे जरी का काम मिल गया और मैं पूर्ण लगन व उम्मीद से अपना काम करने लगा। मेरा काम देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे साथ तीन लड़के और भी काम करते थे। पहले का काम 50 रुपये का, दूसरे का 100 रुपये का और तीसरे का 150 रुपये का हुआ। मेरा काम उन तीनों से दुगुना हो गया। मेरी चतुराई देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ। वह मुझे अधिक चाहता था और मेरी प्रशंसा भी करता रहता था। उसने मुझे एक पूरी पोशाक प्रदान की, जिसमें सिर के लिये एक पगड़ी और शरीर के लिये एक शेला भी थी। मेरे पास वह पोशक वैसी ही रखी रही। मैंने सोचा कि जो कुछ मुष्य-निर्मित है, वह नाशवान् और अपूर्ण है, परन्तु जो कुछ मेरे सरकार द्धारा प्राप्त होगा, वही अन्त तक रहेगा। किसी भी मनुष्य के उपहार की उससे समानता संभव नहीं है। मेरे सरकार कहते है ले जाओ। परन्तु लोग मेरे पास आकर कहते है मुझे दो, मुझे दो। जो कुछ मैं कहता हूँ उसके अर्थ पर कोई ध्यान देने का प्रयत्न नहीं करता। मेरे सरकार का खजाना (आध्यात्मिक भंडार) भरपूर है और वह ऊपर से बह रहा है। मैं तो कहता हूँ कि खोदकर गाड़ी में भरकर ले जाओ। जो सच्ची माँ का लाल होगा, उसे स्वयं ही भरना चाहिए। मेरे फकीर की कला, मेरे भगवान् की लीला और मेरे सरकार का बर्ताव सर्वथा अद्धितीय है। मेरा क्या, यह शरीर मिट्टी में मिलकर सारे भूमंडल में व्याप्त हो जायेगा तथा फिर यह अवसर कभी प्राप्त न होगा। मैं चाहें कहीं जाता हूँ या कहीं बैठता हूँ, परन्तु माया फिर भी मुझे कष्ट पहुँचाती है। इतना होने पर भी मैं अपने भक्तों के कल्याणार्थ सदैव उत्सुक ही रहता हूँ। जो कुछ भी कोई करता है, एक दिन उसका फल उसको अवश्य प्राप्त होगा और जो मेरे इन वचनों को स्मरण रखेगा, उसे मौलिक आनन्द की प्राप्ति होगी।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।