ईश्वरचंद्र विद्यासागर
ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रसिद्ध विद्वान् और समाज सुधारक थे। वे बंगाल के निवासी थे। बंगाल में उनका बहुत सम्मान था। वे सादा जीवन उच्च विचार वाले महापुरुष थे।
एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके गाँव मिदनापुर आया। वह रेलगाड़ी से स्टेशन पर उतरा। उसके पास एक सूटकेस था। स्टेशन पर कुली नहीं था। उस युवक को बहुत गुस्सा आया। वह बोला, यह अजीब स्टेशन है। यहाँ एक भी कुली नहीं है।
उसी गाड़ी से एक और आदमी उतरा। वह बहुत सादी पोशाक में था। वह आधी बाँह का कुर्ता, धोती और चप्पल पहने था। वह आदमी उस युवक के पास आया और बोला, 'क्या बात है भाई?' युवक बहुत गुस्से में था। वह बोला, 'यह कैसा स्टेशन है? यहाँ एक भी कुली नहीं है। मेरे पास सामान है। 'तब वह आदमी बोला, 'लाइए मैं आपका सामान उठा लूँ। वह आदमी युवक का सूटकेस उठाकर स्टेशन से बाहर आया। जब उस युवक ने मजदूरी के पैसे देने चाहे तो वह व्यक्ति बोला, 'मुझे पैसे नहीं चाहिए।' वहाँ कुछ बैलगाड़ियाँ खड़ी थीं। युवक एक बैलगाड़ी में बैठ गया।
दूसरे दिन सवेरे वह युवक ईश्वरचंद्र के घर आया। घर के बाहर एक आदमी खड़ा था। यह वही आदमी था जिसने कल रात उसका सामान उठाया था। युवक बोला, 'क्या विद्यासागर जी यहीं रहते हैं।'
उस आदमी ने कहा, जी हाँ, आइए अंदर बैठिए।
युवक ने पूछा, 'विद्यासागर जी कहाँ हैं?'
उस आदमी ने कहा, 'मैं ही विद्यासागर हूँ।'
युवक को बहुत शर्म आई और उसने विद्यासागर जी से माफी माँगी। फिर बोला, 'कल मुझसे भूल हुई। अब मैं समझ गया कि कोई काम बड़ा या छोटा नहीं होता। अपना काम स्वयं करना चाहिए।