रविवार, 18 अप्रैल 2021

मेरा बचपन | डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम | MY CHILDHOOD | Dr A. P. J. ABDUL KALAM | FORMER PRESIDENT OF INDIA | CBSE | HINDI

मेरा बचपन
डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम


इस पाठ के द्वारा छात्र सादगी, धार्मिक सहिष्णुता, मिल-जुलकर रहना और किताबें पढ़ने का प्रयोजन आदि की प्रेरणा पा सकते हैं। मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके बावजूद ये बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी। आशियम्मा, उनकी आदर्श जीवनसंगिनी थीं। मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था।


मैं कई बच्चों में से एक था, लम्बे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण-सा दिखनेवाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने-पत्थर व ईट बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीज़ों से दूर रहते थे। पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थी। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादगी में बीता - भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही दृष्टियों से।

मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता विछाती और फिर उस पर चायल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट सांबार डालती, साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताज़ी चटनी भी होती।



प्रतिष्ठित शिव मंदिर - जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है - हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, यह मुसलिम बहुल था। लेकिन यहँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान पडोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे। हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, वहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे।

रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएँ करते रहते। जब में प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। वे कहते - जब तुम नमाज़ पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रम्हाड का एक हिस्सा बन जाते हो, जिसमें दौलत, आय, जाति या धर्म-पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता।

मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढने के साथ शुरू हो जाती थी। नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते। बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिताजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नास्ता होता।

मैने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुखों, विषाद और असफलता छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।


जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छः साल का था। वे नौकाएँ तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोटी (सेतुक्कराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थी। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई। नौकाओं को आकार लेते हुए मैं गौर से देखता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। तूफान में सेतुक्कराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गई। उसी में पामबन पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था। उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।

उम्र में काफ़ी फर्क होने के बावजूद अहमद जलालुद्दीन मेरे अंतरंग मित्र बन गए। वह मुझसे करीवन पंद्रह साल बड़े थे और मुझे 'आज़ाद' कहकर पुकारा करते थे। हम दोनों रोज़ाना शाम को दूर तक साथ घूमने जाया करते। हम मसजिदवाली गली से निकलते और समुद्र के रेतीले तट पर चल पड़ते। मैं और जलालुद्दीन प्रायः आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते।

प्रसंगवश मुझे यहाँ यह भी उल्लेख कर देना चाहिए कि पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे, जो अंग्रेज़ी में लिख सकते थे। मेरे परिचितों में, जलालुद्दीन के बराबर शिक्षा का स्तर किसी का भी नहीं था और न ही किसी को उनके बराबर बाहरी दुनिया के बारे में पता था। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजों, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताते रहते थे। यही थे जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से बाहर निकालकर नई दुनिया का बोध कराया।


मेरे बाल्यकाल में पुस्तकें एक दुर्लभ वस्तु की तरह हुआ करती थीं। हमारे यहाँ स्थानीय स्तर पर एक पूर्व क्रांतिकारी या कहिए, उग्र राष्ट्रवादी एम.टी.आर. मानिकम का निजी पुस्तकालय था। उन्होंने मुझे हमेशा पढने के लिए उत्साहित किया। मैं, अक्सर उनके घर में पढने के लिए किताबें ले आया करता था।

दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल-जीवन पर गहरा असर पड़ा, यह मेरे चचेरे भाई शम्सुद्दीन थे। यह रामेश्वरम् में अखबारों के एकमात्र वितरक थे। अखबार रामेश्वरम् स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे, जो पामबन से आती थी। इस अखबार एजेंसी को अकेले शम्सुद्दीन ही चलाते थे। रामेश्वरम् में अखबारों की जुमला एक हज़ार प्रतियाँ बिकती थीं।

बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे - रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाश। ये तीनों ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था। अलग-अलग धर्म, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को लेकर हममें से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं किया।

पाठ का आशय : भारत के राष्ट्रपति कलाम जी का जीवन सादगी का मिसाल था। उनके माता-पिता का परिश्रम, आडंबरहीन जीवन सबके लिए आदर्शप्राय है। उनका परिवार अतिथियों की सेवा से संतृप्त था। उनका परिवार धार्मिक एकता को मानता था। बच्चों के चैतन्यशील, बहुमुखी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए ऐसे आदर्श व्यक्तियों की जीवनी प्रेरणाप्रद है।


लेखक परिचय : -

अउल फकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम जी का जन्म 15-10-1931 को हुआ। बड़े वैज्ञानिक डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी 25-07-2002 से 24-07 2007 तक हमारे देश के राष्ट्रपति थे। देश के आदर्श तथा 'जनवादी राष्ट्रपति' के नाम से भारत के करोड़-करोड़ हृदयों में प्रतिष्ठित कलाम जी अपनी 82 वर्षों की उम्र में भी अनेकानेक सामाजिक प्रगतिशील आंदोलनों में अत्यंत सक्रिय रहे। बच्चों तथा युवकों के चैतन्यशील एवं बहुमुखी व्यक्तित्व के निर्माणार्थ आपके नये अभियान का मंत्र था 'मैं क्या दूँ?' स्वपरिवर्तन की ओर उन्मुख इस अभियान का उद्घोष था - ईमानदार कार्य एवं ईमानदार का नाम। 'होमपाल' अभियान द्वारा आप बचपन में ही इन सवालों को बोना चाहते थे कि "मैं देश के लिए क्या दे सकता हूँ? समाज एवं परिसर के लिए क्या कर सकता हूँ?"