बुधवार, 14 जुलाई 2021

संत कवि रैदास | SANT RAVIDAS | HINDI

संत कवि रैदास



संत कवि रैदास का जन्म काशी के पास गांव में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। कहा जाता है कि उस दिन रविवार था इसलिए नवजात शिशु का नाम रविदास रखा गया जो बोल-चाल की 'रहदास' या रैदास' हो गया। स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में महान संत कबीर के साथ संत रैदास का नाम भी बडी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। 

रैदास एक चर्मकार परिवार में पैदा हुए थे। नगर के बाहर ही सड़क के किनारे उन्होंने एक छोटी-सी कुटिया बना ली थी। यहाँ रहकर वे भगवान की भक्ति करते, उनके भजन गाते और आजीविका के लिए जूते बनाते या उनकी मरम्मत करते, उनके पास भगवान की एक सुंदर चतुर्भुजी मूर्ति थी जिसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। एक किंवदंती के अनुसार रैदास के पड़ोस में एक पंडित था, वह भगवान की चतुर्भुजी मूर्ति को प्राप्त करना चाहता था। उसने रैदास से कहा, तुम हमेशा चमड़े का काम करते हो। तुम से इस मूर्ति की सेवा-पूजा ठीक से नहीं हो रही है और न ही हो सकती है। इसलिए इसे मुझे दे दो। रैदास बोले, पंडित, तुम केवल नाम के पंडित हो। तुम भक्ति भावना से पूजा नहीं करते। इसीलिए यह मूर्ति तुम्हारे पास नहीं रह सकती। 

रैदास की बात पंडित को बुरी लगी। वह स्थानीय राजा के पास गया और कहने लगा, महाराज, आपके राज्य में अधर्म हो रहा है। देखिए, रैदास जैसे लोग भगवान की पूजा कर रहे हैं। यदि यह चलता रहा तो आप के राज्य पर संकट आ सकता है। पंडित की बात सुनकर राजा ने रैदास को मूर्ति के साथ दरबार में बुलाया और कहा, रैदास, तुम यह मूर्ति इस पंडित को क्यों नहीं दे देते? 


राजा की बात सुनकर रैदास ने अपनी मूर्ति को सबके सामने रख दिया और कहा, महाराज, यदि यह पंडित भगवान का सच्चा भक्त है तो यह अपने भक्ति-भाव या तंत्र-मंत्र से मूर्ति को अपने पास बुला ले। रैदास की बात सुनकर पंडित ने कई मंत्र पढ़े और भजन गाए परंतु मूर्ति ज़रा भी न हिली। तब राजा कहा, अच्छा रैदास, अब तुम बुलाओ मूर्ति को अपने पास। रैदास ने सबके सामने भक्ति भाव से भजन गाया - 

"नरहरि चंचल है मति मेरी, कैसे भक्ति करूँ मैं तेरी।" 

जैसे ही रैदास का भजन पूरा हुआ वह मूर्ति उछलकर रैदास की गोद में आ गिरी। यह देखकर पंडित तो दरबार छोड़कर भाग गया। राजा ने रैदास के चरण पकड़ लिए और वे उनके शिष्य बन गए। 



एक बार एक सेठ रैदास के पास अपने जूते सिलवाने के लिए आया। वह गंगास्नान के लिए जा रहा था। बातों ही बातों में सेठ ने रैदास से भी गंगास्नान के लिए चलने को कहा तो रैदास ने कहा, सेठजी, आप जाइए, हम गरीब लोगों के लिए तो हमारा काम ही गंगास्नान है। 

रैदास की बातें सुनकर सेठ बोला, तुम्हारा उद्धार भला कैसे हो सकता है? तुम तो हमेशा काम में ही लगे रहते हो, कभी कोई धर्म-कर्म भी किया करो। रैदास ने अपनी जेब से एक सुपारी निकाली और कहा सेठजी आप तो गंगास्नान के लिए जा ही रहे हैं। कृपया आप मेरी यह सुपारी भी ले जाएँ और गंगा मैया को भेंट कर दें। परंतु याद रखिए, अगर गंगा मैया हाथ फैलाकर मेरी सुपारी लें तभी भेंट कीजिए नहीं तो मेरी सुपारी लौटा लाइए। सेठ ने रैदास से उसकी सुपारी तो ले ली परंतु मन ही मन रैदास का मज़ाक बनाने लगा। 

दूसरे दिन सेठ ने गंगास्नान के लिए प्रस्थान किया। गंगा पूजा के बाद उसे रैदास सुपारी की याद आई। उसने मैया से कहा हे गंगा मैया, आप हाथ फैलाएँ तो मैं आपको रैदास की सुपारी भेंट करूँ। तभी एक चमत्कार हुआ। गंगा मैया ने हाथ फैलाकर रैदास की सुपारी स्वीकार की और उसके बदले में एक स्वर्ण कंकण दिया और कहा, यह मेरे प्रिय भक्त रैदास को दे देना। 

यह सब देख-सुनकर सेठ आश्चर्यचकित हो गया। वह जब लौट रहा था तब उसने सोचा कि इस स्वर्ण कंकण का रैदास क्या करेगा। यदि मैं इसे राजा को भेंट करूं तो बहुत-सा धन पुरस्कार स्वरूप मिल सकता है। इसलिए वह सीधा राजभवन गया। राजा को स्वर्ण कंकण भेंटकर, पुरस्कार प्राप्त किया और घर लौट आया। 

राजा ने वह कंकण अपनी रानी को दिया। रानी ने कहा, कंकण तो अद्वितीय है परंतु इसका जोड़ा होना चाहिए। राजा ने सेठ को बुलाया और कहा, एक कंकण तो पहना नहीं जा सकता इसलिए ऐसा ही एक कंकण और लेकर आइए। राजा की बात सुनकर सेठ के तो होश उड़ गए। वह वहाँ से सीधा रैदास के पास आया और सारी कहानी सुनाकर कहने लगा, भैया, अब तुम ही मेरी जान बचा सकते हो। तुम मेरे साथ गंगा घाट पर चलो और गंगा मैया से वैसा ही दूसरा कंकण माँग कर लाओ।

सेठ की बातें सुनकर रैदास हँसे और फिर बोले, देखो सेठ, कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि मन शुद्ध है और भक्ति भाव सच्चा है तो मेरी इस कठौती में भी गंगा मैया प्रकट हो सकती हैं। वे गंगा मैया की स्तुति करने लगे। कुछ ही क्षणों में रैदास की कठौती में गंगा मैया प्रकट हो गईं। उन्होंने एक और स्वर्ण कंकण रैदास को दिया और अदृश्य हो गईं। 

यह देखकर सेठ ने रैदास के चरण पकड़ लिए और मुझे क्षमा करना। मैं तो आपको केवल एक चर्मकार ही मानता था परंतु आप तो संत हैं। सच्चे भक्त हैं। आप मुझे मेरा मार्गदर्शन कीजिए। 



रैदास की भक्ति से ही यह कहावत प्रचलित है मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका अर्थ है, परमात्मा सर्वव्यापी है। यदि मन शुद्ध है तो उसके दर्शन कहीं भी हो सकते हैं ।