दानवीर राजा हर्षवर्धन
ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की बात है। प्रयाग में बहुत बड़े दान-समारोह का आयोजन किया गया था। सम्पूर्ण भारत से लोग दान-दक्षिणा पाने के लिए एकत्र थे। राजा दान-दक्षिणा की सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि राजकोष की सम्पूर्ण सम्पत्ति और अपने शरीर के समस्त आभूषणों को जब दान दे चुका तो एक व्यक्ति ऐसा रह गया जिसे देने के लिए उसके पास कुछ शेष नहीं था। दानार्थी बोला- राजन्! आपके पास मुझे देने के लिए कुछ नहीं बचा है। मैं वापस जाता हूँ। राजा ने कहा- ठहरो, अभी मेरे वस्त्र शेष हैं जिन्हें मैंने दान नहीं दिया है और पास खड़ी बहन से अपना तन ढकने के लिए दूसरा वस्तर मांग कर उसने अपना उत्तरीय उतार कर उस याचक को दे दिया। गद्गद् स्वर से जनसमूह ने हर्ष ध्वनि की…. राजा चिरंजीव हों उनका यश अमर रहे आदि नारे लगाए।
जन-जन को अपनी दानशीलता से मुग्ध करने वाला यह राजा और कोई नहीं, दानवीर हर्षवर्धन था।
590 ई. के ज्येष्ठ माह में रानी यशोमती के गर्भ से हर्ष का जन्म हुआ था। उनके पिता प्रभाकर वर्धन थानेश्वर के योग्य एवं प्रतापी शासक थे, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों का बड़ी कुशलता से दमन किया था। पिता की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन के बड़े भाई, राज्यवर्धन गद्दी पर बैठे। इसी बीच मालवा के राजा देवगुप्त ने हर्ष की छोटी बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा की हत्या कर दी। गहवर्मा कन्नौज का राजा था। राज्यश्री को कैद करके कारागार में डाल दिया गया था। इस अपमान का बदला लेने के लिए राजवर्धन ने मालवा पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में विजयी हुआ किन्तु लौटते समय बंगाल के राजा शशांक द्वारा मार डाला गया। हर्ष अभी सोलह वर्ष का नहीं हुआ था। भाई राज्यवर्धन की मृत्यु पर अत्यधिक दुःखी हुआ और राजपाट छोड़ने को तैयार हो गया। इस पर मन्त्रियों ने उसे बहुत समझाया और राजा बनने की सविनय प्रार्थना की, तब शीलादित्य उपनाम ग्रहण करके वर्ष 606 ई. में वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। अब तरुण हर्ष के सामने दो काम थे। एक तो अपनी बहन को ढूँढ़कर लाना, दूसरे अपने भाई के हत्यारों को दण्ड देना। इसके लिए उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह इस दोहरी स्थिति से अत्यधिक उद्विग्न हो गया था। इसी बीच हर्ष के कर्मचारियों ने उसे दिग्विजय के लिए प्रेरित किया। हर्ष ने पहले शशांक को परास्त किया, उसके बाद बहन राज्यश्री का पता लगाया, जो पति की मृत्यु से दुखी होकर जंगल में चिता में जलने जा रही थी। अपनी बहन को वह ले आया और उसे जीवन पर्यन्त अपने पास रखा।
इसके बाद हर्ष ने उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया और अपने राज्य में पूर्ण शान्ति स्थापित की। दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने में वह असफल रहा। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय नामक राजा ने उसे नर्मदा नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। हर्ष एक कुशल सेनापति एवं शूरवीर योद्धा था। नेतृत्व करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। जिसके बल पर उसने 30 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्वक राज्य किया।
हर्ष एक प्रजावत्सल राजा था। प्रजा के हित के लिए उसने अनेक महान कार्य किये। हर्ष के कार्य-कलापों के विषय में विशेष वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों में मिलता है जो 630 ई. में भारत में बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों को देखने तथा बौद्ध धर्म के पवित्र ग्रन्थों को लेने आया था।
हर्ष के समय में भारत को अपने इतिहास के एक अत्यन्त भव्य युग को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हर्ष धार्मिक विषयों में उदार और विद्या प्रेमी था। प्रयाग की सभा में वह सभी वर्णां, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को निष्पक्ष होकर दान देता था। बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ सूर्य और शिव की मूर्तियों का भी सम्मान करता था। वह इतना बड़ा दानी था कि युद्ध सामग्री के अतिरिक्त सब कुछ दान देता था। उसने नगरों तथा गाँवों के राजमार्गों पर धर्मशालाएं बनवायीं जिनमें भोजन और चिकित्सा का प्रबन्ध था।
हर्ष स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। बाणभट्ट ने हर्ष के काव्य कौशल, ज्ञान और उनकी मौलिकता की भूरि भूरि प्रशंसा की है। हर्ष ने संस्कृत भाषा में “रत्नावली”, “नागानन्द", और “प्रियदर्शिका” नामक नाटक लिखे। साथ ही एक व्याकरण ग्रंथ की भी रचना की। प्राचीन भारत की साहित्यिक समालोचना में हर्ष को उच्च श्रेणी का कवि माना जाता।
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य निबन्ध हैं जिनकी रचना का श्रेय हर्ष को ही दिया जाता है। हर्ष सरकारी जमीन की आय का एक चतुर्थांश विद्वानों को पुरस्कृत करने में और दूसरा चतुर्थांश विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने में खर्च करता था। विद्वान कवियों के अतिरिक्त अच्छे धर्म प्रचारक भी उसकी राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। इनमें सागरमति, प्रज्ञारश्मि, सिंहरश्मि और ह्वेनसांग आदि प्रमुख हैं।
हर्ष की नीति अहिंसावादी थी। उसने अपने राज्य में सर्वत्र माँसाहार का निषेध कर दिया था। उसने जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी तथा कठोर दण्ड का प्रावधान कर दिया था। हर्ष के समय में वास्तुकला, शिल्प, गृहनिर्माण के अतिरिक्त विविध कलाओं में भी भारत बहुत उन्नत था। ह्वेनसांग ने उस काल के नाना प्रकार के वस्त्रों का विशेष उल्लेख किया है। नगरों में कन्नौज, प्रयाग, मथुरा, थानेश्वर, हरिद्वार, रामपुर, पीलीभीत, अयोध्या, कौशाम्बी, वाराणसी, रंगपुर आदि विशेष रूप से समृद्ध एवं विकसित थे। ये नगर स्तूपों, विहारों, मन्दिरों, अतिथि भवनों, धर्मशालाओं एवं सब प्रकार की सुख सुविधाओं से पूर्ण थे।
हर्ष के शासनकाल में भारत का आन्तरिक शासन-सुव्यवस्थित हो गया था जिसके फलस्वरूप विद्या, व्यापार, संस्कृति, कला आदि क्षेत्रों में बहुमुखी विकास हुआ और पड़ोसी देशों में भी इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह लोग भारत को विवेक और संस्कृति का केन्द्र मानकर अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए इस पुण्यभूमि की शरण में आए।
हर्ष बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण चरित्र के कारण एक साथ ही राजा, कवि, योद्धा, विद्वान राजसी और साधु स्वभाव के थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन पूरा कर चीन लौटते समय ह्वेनसांग ने कहा था।
“मैं अनेक राजाओं के सम्पर्क में आया किन्तु हर्ष जैसा कोई नहीं। मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया है किन्तु भारत जैसा कोई देश नहीं। भारत वास्तव में महान देश है और उसकी महत्ता का मूल है उसकी जनता तथा हर्ष जैसे उसके शासक।"