संत नामदेव
जिस प्रकार उत्तर भारत में अनेक सन्त हुए हैं, उसी प्रकार दक्षिण भारत में भी महान सन्त हुए हैं, जिनमें नामदेव भी एक हैं। नामदेव के जीवन के सम्बन्ध में कुछ ठीक से ज्ञात नहीं है। इतना पता चलता है कि जिन्होंने इन्हें पाला, उनका नाम दामोदर था। दामोदर की पत्नी का नाम गुणाबाई था। वे पंढरपुर में गोकुलपुर नामक गाँव में रहते थे। भीमा नदी के किनारे इन्हें नामदेव शिशु की अवस्था में मिले थे। यही नामदेव के माता-पिता माने जाते हैं। घटना आज से लगभग आठ सौ साल पहले की है।
उनकी शिक्षा कहाँ हुई थी, इसका पता नहीं। इतना पता लगता है कि आठ वर्ष की अवस्था से वे योगाभ्यास करने लगे। उसी समय से उन्होंने अन्न खाना छोड़ दिया और शरीर की रक्षा के लिए केवल थोड़ा-सा दूध पी लिया करते थे। स्वयं अध्ययन करके इन्होंने अपूर्व बुद्धि तथा ज्ञान प्राप्त किया था।
नामदेव के विषय में अनेक चमत्कारी कथाएँ मिलती हैं। एक घटना इस प्रकार बतायी गयी है कि एक बार इनके पिता इनकी माता को साथ लेकर कहीं बाहर गये। यह लोग कृष्ण के बड़े भक्त थे और घर में विट्ठलनाथ की मूर्ति स्थापित कर रखी थी जिसकी नियमानुसार प्रतिदिन पूजा होती थी। नामदेव से उन लोगों ने कहा, हम लोग बाहर जा रहे हैं। विट्ठलनाथ को खिलाये बिना न खाना। उनका अभिप्राय भोग लगाने का था किन्तु नामदेव ने सीधा अर्थ लिया। दूसरे दिन भोजन बनाकर थाल परोसकर मूर्ति के पास पहुँच गये और विट्ठलनाथ से भोजन करने का आग्रह करने लगे। बारम्बार कहने पर भी विट्ठलनाथ टस से मस नहीं हुए। नामदेव झुंझलाकर वहीं बैठ गये। माता-पिता की आज्ञा की अवहेलना करना वे पाप समझते थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक विट्ठलनाथ भोजन नहीं ग्रहण करेंगे, मैं यूँ ही बैठा रहूँगा। कहा जाता है कि नामदेव के हठ से विट्ठलनाथ ने मनुष्य शरीर धारण कर भोजन ग्रहण किया।
जब नामदेव के पिता लौटे और उन्होंने यह घटना सुनी तब उन्हें विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब बार-बार नामदेव ने कहा तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे जानते थे कि यह बालक कभी झूठ नहीं कहेगा। उन्होंने कहा, “बेटा, तू भाग्यवान है। तेरा जन्म लेना इस संसार में सफल हुआ। भगवान तुझ पर प्रसन्न हुए और स्वयं तुझे दर्शन दिया।” नामदेव यह सुनकर पुलकित हो गए और उसी दिन से दूनी लगन से पूजा करने लगे।
एक दिन नामदेव औषधि के लिए बबूल की छाल लेने गये। पेड़ की छाल इन्होंने काटी ही थी कि उसमें रक्त के समान तरल पदार्थ बहने लगा। नामदेव को ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने मनुष्य की गर्दन पर कुल्हाड़ी चलायी है। पेड़ को घाव पहुँचाने का इन्हें पश्चाताप हुआ। उसी दिन उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे घर छोड़कर चले गये। घर छोड़ने के बाद ये देश के अनेक भागों में भ्रमण करते रहे। साधु-सन्तों के साथ रहते थे और भजन-कीर्तन करते थे। एक बार की घटना है कि चार सौ भक्तों के साथ यह कहीं जा रहे थे। लोगों ने समझा कि डाकुओं का दल है, डाका डालने के लिए कहीं जा रहा है। अधिकारियों ने पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। वहीं राजा के सामने एक मृत गाय को जीवित कर इन्होंने राजा को चमत्कृत कर दिया। राजा यह चमत्कार देखकर डर गया। नामदेव के सम्बन्ध में ऐसी सैकड़ों घटनाओं का वर्णन मिलता है। इन घटनाओं में सच्चाई न भी हो तो भी उनसे इतना पता चलता है कि उनकी शक्ति एवं प्रतिभा अलौकिक थी। कठिन साधना और योग के अभ्यास के बल पर बहुत से कार्यों को भी उन्होंने सम्भव कर दिखाया।
वे स्वयं भजन बनाते थे और गाते थे। उनके शिष्य भी गाते थे। इन भजनों को 'अभंग' कहते हैं। उनके रचे सैकड़ों अभंग मिलते हैं और महाराष्ट्र के रहने वाले बड़ी भक्ति तथा श्रद्धा से आज भी उनके अभंग गाते हैं। महाराष्ट्र में उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है।
महाराष्ट्र ही नहीं, सारे देश के लोग उन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनकी गणना उसी श्रेणी में है जिसमें तुलसी, रामदास, नरसी मेहता और कबीर की है।