शहीद बकरी - श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय
बहुधा यह बात रेखांकित की जाती है कि संगठन में शक्ति है। अगर कोई भी समूह संगठित है तो वह अत्याचार, अन्याय और उत्पीड़न का डट कर मुकाबला करते हुए उसे परास्त कर सकता है। लेकिन यह भी सच है कि पहल कोई एकाकी ही करता है। ऐसा ही एक पहल इस कहानी में एक युवा बकरी भेड़िये से डट कर मुकाबला करते हुए करती है। युवा बकरी मरने के भय से बाड़े में कैद होना स्वीकार नहीं करती बल्कि वह हत्यारे और निरीह बकरियों का खून करने वाले भेड़िये को घायल, पीड़ा और दर्द से छटपटाते हुए देखना चाहती है। बकरी अपने आक्रमण से भेड़िये को लहूलुहान और घायल कर देती है, यह अवश्य होता है कि इसमें वह अपने साथियों की अकर्मण्यता के कारण ढेर हो जाती है, पर एक उदाहरण अवश्य रख जाती है कि साहस से भरी सिर्फ एक बकरी भी भेड़िये को घायल और घावों के सड़न से मरने को बाध्य कर सकती है।)
हरे-भरे पहाड़ पर बकरियाँ चरने जातीं तो दूसरे-तीसरे रोज एक-न-एक बकरी कम हो जाती। भेड़िए की इस धूर्तता से तंग आकर चरवाहे ने, वहाँ बकरियाँ चराना बंद कर दिया और बकरियों ने भी मौत से बचने के लिए बाड़े में कैद रहकर जुगाली करते रहना ही श्रेष्ठ समझा। लेकिन न जाने क्यों एक युवा नई बकरी को यह बंधन पसंद नहीं आया। अत्याचारी से यों कब तक प्राणों की रक्षा की जा सकेगी? वह पहाड़ से उतरकर किसी रोज बाड़े में भी कूद सकता है। शिकारी के भय से मूर्ख शुतुरमुर्ग रेत में गर्दन छुपा लेता है। तब क्या शिकारी उसे बख़्श देता है? इन्हीं विचारों से ओत-प्रोत वह हसरत भरी नजरों से पर्वत की ओर देखती रहती। साथिनों ने उसे आँखों-आँखों में समझाने का प्रयत्न किया कि वह ऐसे मूर्खतापूर्ण विचारों को मन में न लाए। भोग्य सदैव से भोगने के लिए ही उत्पन्न होते रहे हैं। भेड़िए के मुँह हमारा खून लग चुका है, वह अपनी आदत से कभी बाज़ नहीं आएगा।
लेकिन नई युवा बकरी तो भेड़िए के मुँह में लगे खून को ही देखना चाहती थी। वह किस तरह छटपटाता है, यह करतब देखने की उसकी लालसा बलवती होती गई। आखिर एक रोज़ मौका पाकर बाड़े से वह निकल भागी और पर्वत पर चढ़कर स्वच्छंद विचरती, कूदती- फाँदती दिन भर पहाड़ पर चरती रही; मनमानी कुलेलें करती रही। भेड़िए को देखने की उसे उत्सुकता भी बनी रही, परन्तु उसके दर्शन न हुए। झुटपुटा होने पर लाचार, जब वह नीचे उतरने को बाध्य हुई तो रास्ते में दबे पाँव भेड़िया आता हुआ दिखाई दिया। उसकी रक्तरंजित आँखें, लपलपाती जीभ और आक्रमणकारी चाल से वह सब कुछ समझ गई। भेड़िया मुस्कराकर बोला, “तुम बहुत सुंदर और प्यारी मालूम होती हो। मुझे तुम्हारी जैसी साथिन की आवश्यकता थी। मैं कई रोज से अकेलापन महसूस कर रहा था। आओ, तनिक साथ-साथ पर्वतराज की सैर करें।“
बकरी को भेड़िए की बकवास सुनने का अवसर न था। उसने तनिक पीछे हटकर इतने जोर से टक्कर मारी कि असावधान भेड़िया सँभल न सका। यदि बीच का भारी पत्थर उसे सहारा न देता तो औंधे मुँह नीचे गिर गया होता।
भेड़िए की जिंदगी में यह पहला अवसर था। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया। टक्कर खाकर अभी वह सँभल भी न पाया था कि बकरी के पैने सींग उसके सीने में इतने जोर से लगे कि वह चीख उठा। क्षत-विक्षत सीने से लहू की बहती धार देख, भेड़िए के पाँव उखड़ गए। मगर एक निरीह बकरी के आगे भाग खड़ा होना उसे कुछ जँचा नहीं। वह भी साहस बटोरकर पूरे वेग से झपटा। बकरी तो पहले से ही सावधान थी; वह कतराकर एक ओर हट गई और भेड़िए का सिर दरख्त से टकराकर लहूलुहान हो गया।
लहू को देखकर अब भेड़िए के लहू में भी उबाल आ गया। वह जी-जान से बकरी के ऊपर टूट पड़ा। अकेली बकरी उसका कब तक मुकाबला करती? वह उसके दाँव-पेंच देखने की लालसा और अपने अरमान पूरे कर चुकी थी। साथियों की अकर्मण्यता पर तरस खाती हुई बेचारी ढेर हो गई।
पेड़ पर बैठे हुए तोते ने मुस्कराकर मैना से पूछा, “भेड़िए से भिड़कर भला बकरी को क्या मिला?“
मैना ने सगर्व उत्तर दिया, “वही जो अत्याचारी का सामना करने पर पीड़ितों को मिलता है। बकरी मर जरूर गई, परन्तु भेड़िए को घायल करके मरी है। वह भी अब दूसरों पर अत्याचार करने के लिए जीवित नहीं रह सकेगा। सीने और मस्तक के घाव उसे सड़-सड़कर मरने को बाध्य करेंगे। काश, बकरी की अन्य साथिनों ने उसकी भावनाओं को समझा होता। छिपने के बजाय एक साथ वार किया होता तो वे आज बाड़े में कैदी जीवन व्यतीत करने के बजाय पहाड़ पर निःशंक और स्वच्छंद विचरती होतीं।“ तोता अपना-सा मुँह लेकर चुपचाप शहीद बकरी की ओर देखने लगा।