शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

एक तिनका | अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | AYODHYA PRASAD UPADHYAY

एक तिनका 
 अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' 


यह एक छोटी सी कविता है पर है बड़े काम की। छोटी छोटी चीजें ही हमारे जीवन को एकदम बदल देती हैं। मनुष्य को अपने पर बड़ा गर्व होता है । कवि कहते हैं वे एक दिन घमण्ड में भरकर एकदम ऐंठे हुए से तन कर छत के मुँडेर पर खड़े थे। ऐसे में कहीं दूर से एक छोटा-सा तिनका आकर उनकी आँखों में गिरा।

कवि झुंझलाकर परेशान हो उठे। आँख जल रही थी और लाल होकर दुखने भी लगी। लेखक की ऐसी हालत देखकर लोग कपड़े की मुँठ देकर उनकी आँख को सेकने लगे कि शायद थोड़ा आराम मिल जाए पर नहीं। दर्द किसी तरह कम नहीं हुआ। ऐसे में कवि को ऐंठ (घमण्ड) मानों चुपचाप भाग गई थी। वे तो किसी भी तरह उस पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते थे।

जब किसी तरह आँख से तिनका निकला तो मानो उनका विवेक उन्हें ताना मार रहा था। तू इतना अकड़ क्यों दिखाता है। एक छोटा-सा तिनका ही तेरे अहंकार को तोड़ने में काफी है।


एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,

एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।

आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,

एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।



मैं झिझक उठा हुआ बेचैन-सा,

लाल होकर आँख भी दुखने लगी।

मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,

ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भागी।



जब किसी ढब से निकल तिनका गया,

तब 'समझ' ने यो मुझे ताने दिए।

ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,

एक तिनका है बहुत तेरे लिए।