भिखारिन - गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर
प्रस्तुत कहानी एक पुत्रवत्सला दिव्यांग भिखारिन के विश्वास के छले जाने और संघर्ष की संवेदनशील रचना है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने मानव चरित्र के कई परतों को इस कहानी में संवेदनशीलता के साथ रखा है। एक भिखारिन अपने जीवन की समस्त पूंजी द्वारा अपने पालित पुत्र को रोगमुक्त करने के लिए खर्च करना चाहती है, लेकिन समाज का धनवान और धार्मिक रूप में प्रसिद्ध सेठ उसके भीख से संचित धन को लौटाने में छल करता है। ‘संतान की पहचान’ कहानी को एक निर्णायक मोड़ देती है और पाठकों को मानव चरित्र को समझने और पहचानने का बोध भी देती है। एक सेठ भिखारिन के पाँवों पर क्यों गिर पड़ता है? वह क्यों यह कहने को विवश है कि ‘ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी तो उसकी माँ हो।’ कहानी की मार्मिकता को पाठक इन पंक्तियों में शिद्दत से महसूस कर सकते हैं कि- ‘उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किन्तु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।’
अंधी प्रतिदिन मंदिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करनेवाले बाहर निकलते तो अपना हाथ फैला देती और नम्रता से बोलती - “बाबू जी, अंधी पर दया हो जाय।“
वह जानती थी कि मंदिर में आनेवाले सहृदय और दयालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते थे। अंधी उनको दुआएँ देती और उनकी सहृदयता को सराहती।
स्त्रियाँ भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं। सुबह से शाम तक वह इसी प्रकार
हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी की राह पकड़ती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी वह याचना करती जाती, किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्र वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियाँ दिया करते हैं। तब भी अंधी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुँचते-पहुँचते उसे दो-चार पैसे और मिल ही जाते। झोंपड़ी के समीप पहुँचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे लिपट जाता। अंधी टटोलकर उसके मस्तिष्क को चूम लेती।
बच्चा कौन है? किसका है? कहाँ से आया? इस बात से कोई परिचित नहीं था। पाँच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या समय, लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था। अंधी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप करने का प्रयत्न कर रही थी। यह कोई असाधारण घटना न थी, अतः किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से वह बच्चा अंधी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।
अंधी ने अपनी झोंपड़ी में एक हाँड़ी गाड़ रखी थी। दिनभर जो कुछ माँगकर लाती, उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढँक देती, ताकि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती, फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ी रहती। प्रातःकाल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मंदिर के द्वार पर जा खड़ी होती।
काशी में सेठ बनारसी दास बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित था। वे बहुत बड़े देवभक्त और धर्मात्मा थे। धर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। दिन के बारह बजे तक वे स्नान-ध्यान में संलग्न रहते थे। उनकी कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती थी। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी ताँता बँधा रहता जो अपनी पूँजी सेठ जी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा पूँजी इन्हीं सेठ जी के पास जमा कर जाते थे। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किंतु पता नहीं कि अब तक वह अपनी कमाई यहाँ जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।
उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हाँड़ी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई उसको चुरा न ले। एक दिन संध्या समय अंधी ने वह हाँड़ी उखाड़ी और अपने फटे हुए आँचल में छुपाकर सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची।
सेठ जी बहीखाते के पृष्ठ उलट रहे थे। उन्होंने पूछा, “क्या है, बुढ़िया?“
अंधी ने हाँड़ी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा - “सेठ जी, इसे अपने पास जमा कर लीजिए, मैं अंधी, अपाहिज कहाँ रखती फिरूँगी?“
सेठ जी ने हाँड़ी की ओर देखकर कहा - “इसमें क्या है?“ अंधी ने उत्तर दिया - “भीख माँगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे इकट्ठे किए हैं; अपने पास रखते डरती हूँ। कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।“ सेठ जी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा - “बही में जमा कर लो।“ फिर बुढ़िया से पूछा - “तेरा नाम क्या है?“ अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीम जी ने नकदी गिनकर, उसके नाम से जमा कर ली। अंधी सेठ जी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।
दो वर्ष बहुत सुखपूर्वक बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया।
अंधी ने दवा-दारू की, वैद्य-हकीमों से उपचार कराया, परंतु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई। अंधी का हृदय टूट गया; साहस ने जवाब दे दिया; वह निराश हो गई। परंतु फिर ध्यान आया कि संभवतः डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची। सेठ जी उपस्थित थे।
अंधी ने कहा - “सेठ जी, मेरी जमा पूँजी में से दस-पाँच रुपये मुझे मिल जाएँ तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊँगी।“
सेठ जी ने कठोर स्वर में कहा - “कैसी जमा पूँजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।“ अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया - “दो वर्ष हुए, मैं आपके पास धरोहर रूप में रखकर गई थी। दे दीजिए, बड़ी दया होगी।“
सेठ जी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा - “मुनीम जी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूँजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?“
अंधी की जान में जान आई, आशा बँधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि यह सेठ बेईमान है किंतु अब सोचने लगी कि संभवतः इसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मात्मा व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है! उसने अपना नाम बता दिया।
मुनीम ने सेठ जी का संकेत समझ लिया था, बही के पृष्ठ उलट-पुलटकर देखा। फिर कहा - “नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।“
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा - “सेठ जी! परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए।
मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन भर आपके गुण गाऊँगी।“
परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठ जी ने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया - “जाती है या नौकर को बुलाऊँ।“ अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठ जी की ओर मुख करके बोली - “अच्छा! भगवान तुम्हें बहुत दे।“ और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
यह आशीष न थी बल्कि एक दुखिया का श्राप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता? एक दिन उसकी दशा बड़ी चिंताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गए, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठ जी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे ही देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं माँग रही थी, अपने ही रुपये माँगने गई थी। सेठ जी से उसे घृणा हो गई।
बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, पड़ती सेठ जी के पास पहुँची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।
एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठी देखकर उसने सेठ जी को सूचना दी। सेठ जी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।
नौकर ने अंधी को चले जाने को कहा, किंतु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर
वह टस-से-मस न हुई। नौकर ने फिर अंदर जाकर कहा कि वह नहीं टलती। सेठ जी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गए। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत, उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए जब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जाँघ पर लाल रंग का चिह्न था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जाँघ देखी। चिह्न अवश्य था, परंतु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का मोहन है। उन्होंने तुरंत उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया।
शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लेने को भेजा और स्वयं मकान के अंदर चल दिए।
अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी - “मेरे बच्चे को न ले जाओ; मेरे रुपये तो हजम कर गए, अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?“
सेठ जी बहुत चिंतित हुए और बोले - “बच्चा मेरा है; यही एक बच्चा है; सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था। अब मिला है, अब इसको नहीं जाने दूँगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊँगा।“
अंधी ने जोर का ठहाका लगाया - “तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूँगी।“
सेठ जी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते नहीं बनता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे, फिर मकान के अंदर चले गए। अंधी कुछ समय तक खड़ी रोती रही, फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
दूसरे दिन प्रातःकाल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने अपना जादू का सा प्रभाव दिखाया कि मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आँखें खोलीं, तो सर्व प्रथम शब्द उसकी जबान से निकला - ‘‘माँ’’। चारों ओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बंद कर लिए। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। माँ-माँ की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठ जी के हाथ-पाँव फूल गए, चारों ओर अँधेरा दिखाई पड़ने लगा।
“क्या करूँ, एक ही बच्चा है? इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है; इसे कैसे बचाऊँ?“
सहसा उनको अंधी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परंतु वह यहाँ कहाँ? सेठ जी ने घोड़ागाड़ी तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुँचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अंदर गए। देखा कि अंधी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है। सेठ जी ने धीरे-से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भाँति तप रहा था।
सेठ जी ने कहा - “बुढ़िया! तेरा बच्चा मर रहा है; डॉक्टर निराश हो गए हैं, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे............नहीं, नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।“ अंधी ने उत्तर दिया - “मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूँ। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर माँ-बेटे की तरह मिल जाएँगे। इस लोक में सुख नहीं है। वहाँ मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहाँ उसकी सुचारु रूप से सेवा-सुश्रुषा करूँगी।“ सेठ जी रो दिए। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था, किन्तु इस समय अंधी के पाँवों पर गिर पड़े और रो-रोकर बोले - “ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी माँ हो। चलो, तुम्हारे चलने से वह बच जायगा।“
ममता शब्द ने अंधी को विकल कर दिया। उसने तुरंत कहा - “अच्छा चलो।“
सेठ जी सहारा देकर उसे बाहर लाए और घोड़ागाड़ी पर बिठा दिया। गाड़ी घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठ और अंधी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुँच जाएँ।
कोठी आ गई; सेठ जी ने सहारा देकर अंधी को उतारा और अंदर ले जाकर मोहन की चारपाई के समीप उसको खड़ा कर दिया। उसने टटोलकर मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी माँ का हाथ है। उसने तुरंत नेत्र खोल दिए और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा - “माँ, तुम आ गईं।“
अंधी ने स्नेह से भरे हुए स्वर में उत्तर दिया - “हाँ बेटा, तुम्हें छोड़कर कहाँ जा सकती हूँ।“
अंधी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। मोहन को बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसी की गोद में सो गया।
दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पंद्रह दिनों में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशांदे, वैद्यों की पुड़ियाँ और डॉक्टर की दवाइयाँ न कर सकीं थीं, वह अंधी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर अंधी ने विदा माँगी। सेठ जी ने बहुत कुछ कहा - सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए, परंतु वह सहमत न हुई। विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठ जी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथों में दे दी। अंधी ने पूछा, “इसमें क्या है?“
सेठ जी ने कहा - “इसमें तुम्हारी धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध.............“
अंधी ने बात काटकर कहा - “यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए ही इकट्ठे किए थे, उसी को दे देना।“
अंधी ने वह थैली वहीं छोड़ दी और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाए। उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किंतु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।