नीड़ का निर्माण
हरिवंशराय बच्चन
चिड़ियाँ अपने नीड़ या घोंसले को बार-बार बनाती हैं। ऐसे मनुष्य भी नये-नये घरों का निर्माण बराबर करते रहते हैं। रहने के लिए वे उनको बनाते हैं, क्योंकि उनमें अपने बच्चों और परिवार के दूसरे लोगों के प्रति स्नेह भाव होता है। प्राणी की यह जीने की इच्छा अदम्य है। इसलिए नीड़ या घर बार-बार टूटने पर भी पक्षी और नर-नारी उसे बनाते रहते हैं।
छोटे लोगों का जीवन, छोटी चिड़िया का नीड़, आँधी तूफान में, अंधेरे में, धूल की आँधी में घिर जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर बार-बार विपत्तियाँ आती हैं। कभी विपत्ति भयानक होती है तो दिन में रात सा अंधेरा हो जाता है। रात भी घन अंधकार में डूब जाती है। लगता है कि क्या सवेरा नही होगा? सब के सब भीतत्रस्त हो जाते हैं। इतने में पूर्व दिशा से हँसती हुई उषा-रानी आ जाती है। भयंकर दुःख से सुख की यह किरण नये जीवन के लिए प्रेरणा देती है। यह स्नेह और प्रेम का आह्वान है। जब बड़े तूफान से पृथ्वी काँप उठती है, बड़े बड़े पेड़ उखड़ जाते हैं, उनकी डाल पर घोंसले कहाँ उड़कर टूट बिखर जाते है और तो और, बड़े बड़े मकान जो ईंट पत्थर से बने होते हैं, बड़े मजबूत होते हैं वे भी ढह जाते हैं। उस वक्त एक छोटी सी चिड़िया नये जीवन की आशा लेकर आसमान पर चढ़ जाती है। वह विपत्ति से डरती नहीं। चाहे जो हो, नीड़ का निर्माण फिर करेगी। कुछ मनुष्य भी ऐसे ही उत्साही होते हैं। आकाश के बड़े बड़े भयानक दाँतों (वज्रपात, आँधी, तूफान, घने बादल आदि) से उषा मुस्कुराती है। जब बादल गरजते हैं तब चिड़ियाँ चहचहाती भी हैं। तेज हवा के भीतर चिड़िया चोंच में तिनका लेकर उड़ जाती है। वह उनचास पवन (बड़ी तेज हवा) की भी परवाह नहीं करती।
नाश से दु:ख तो होता है। लेकिन उसको निर्माण या सृजन का सुख दबा देता है। नीचा दिखा देता है। प्रलय होता है। उसके चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। लेकिन फिर से नयी सृष्टि के गीत भी बार बार गाये जाते हैं। प्राणी मरता नहीं, बार बार जीता है। इसी जीने को जीवन कहते हैं।
नीड़ का निर्माण
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अंधेरा,
धूलि-धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा।
रात सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सबेरा,
रात के उत्पात भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण,
किन्तु प्राची से उषा की
मोहिनी मुसकान फिर-फिर।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर।
बह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़ पुखड़ कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर।
हाय तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्या न बीती!
डग मगाए जब कि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर।
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज वक्ष फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के बज्रदंतों
में उषा है मुस्कुराती,
घोर गर्जन-भय गगन के
कंठ से खग-पंक्ति गाती।
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।