सोमवार, 6 दिसंबर 2021

वर्षा-बहार | श्री मुकुटधर पांडेय | MUKUTDHAR PANDEY

वर्षा-बहार - श्री मुकुटधर पांडेय 

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध और प्रकृति के चितेरे कवि श्री मुकुटधर पाण्डेय जी की प्रस्तुत कविता वर्षा बहार, वर्षा ऋतु के मनोरम दृश्यों और भावों को सहज रूपों में अभिव्यक्त करती है। वर्षा के कारण संपूर्ण प्राकृतिक परिवेश में जिस तरह के मोहक और आकर्षक परिवर्तन को कवि देखते और महसूस करते हैं उसे सरल भाव-लय में कविता में व्यक्त करते चलते हैं। कवि की दृष्टि मेघमय आसमान से लेकर हवा, पानी बादल, बिजली, जीव, जलचर, सौरभ, सुगीत, हंस, किसान सभी पर पडती चलती है। अंत में कवि का आतुर मन गा उठता है-“इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, सारे जगत की शोभा है, निर्भर है इसके ऊपर”।

वर्षा बहार सबके, मन को लुभा रही है

नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है।

बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं

पानी बरस रहा है, झरने भी बह रहे हैं।

चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब,

बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब।

तालों में जीव जलचर, अति हैं प्रसन्न होते,

फिरते लाखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते।

करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे,

मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे।

खिलता गुलाब कैसा, सौरभ उड़ा रहा है,

बागों में खूब सुख से, आमोद छा रहा है।

चलते कतार बाँधे, देखो ये हंस सुंदर,

गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर।

इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, 

सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर।