कुछ और भी दूँ
श्री रामावतार त्यागी
राष्ट्रीय भावों से ओत.प्रोत यह कविता बच्चों के कोमल मन में स्वदेश प्रेम की भावना को सहज ही जागृत करती है। कवि देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने का प्रस्ताव रखा पर इतने से ही उनका मन संतुष्ट नहीं होता। कवि.मन में हर पल राष्ट्र के लिए कुछ और भी अर्पित करने की उत्कट चाहता है। स्वयं को अकिंचन मानते हुए भी कवि अपने हर भावए चाहत और अपनी हर चेष्टा को राष्ट्र माता के चरणों में समर्पित करने को कृत संकल्पित है और देशवासियो को भी प्रेरित करते हैं।
मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित,
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किन्तु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब,
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण,
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
भाँज दो तलवार को लाओ न देरी,
बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया घनेरी,
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित,
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गाँव मेरे, द्वार-घर-आँगन क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे दो,
और बायें हाथ में ध्वज को थमा दो।
ये सुमन लो, यह चमन लो,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित,
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।