काटे कम से कम मत बोओ
रामेश्वर शुक्ल अँचल
इस कविता में - दुःख के विपरीत सुख, रुदन के विपरीत जागृति, संशय के विपरीत विश्वास पर बल दिया है। अंत में कवि संदेश देते हैं कि यदि किसी की भलाई या अच्छाई नहीं कर सकते हों, तो कम से कम उसके साथ बुराई से पेश मत आओ। फूल नहीं तो कम से कम काटे तो मत बोओl
यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ
है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बदा मानव का मन,
मसता ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन!
ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन,
होकर निर्मलता में प्रशांत, बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।
संकट में यदि मुसका न सको, भय से कातर हो मत रोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।
हर सपने पर विश्वास करो, ती लगा चांदूती का चंदन,
मत याद करो, मत सोचो-ज्वाला में कैसे बिता जीवन
इस दुनिया की है रीति यही-सहत तन, बहता है मन
सुख की अभिमानी मदिरा में, जग सका, वह है चेतन
इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।
पग-पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प नहीं जमता,
अनसुना-अचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं कमता,
संशय के सूक्ष्म कुहासे में, विश्वास नहीं क्षण भर रमता,
बादल के घेरों में भी तो जय घोष न मारुत का थमता!
- यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों से मुरदे मत ढोओ;
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।