गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

देशप्रेमी संन्यासी | स्वामी विवेकानन्द | SWAMI VIVEKANANDA

देशप्रेमी संन्यासी - स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द भारत माता के विरल सुपुत्र थे। उन्होंने अपनी प्रचंड प्रतिभा, गंभीर ज्ञान और असाधारण वाक्शक्ति द्वारा विदेशों में भारतीय दर्शन, वेद-वेदांत का महत्त्व प्रमाणित किया। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंड के विद्वानों को समझा दिया कि हिंदू धर्म सहनशील और मानवीय है। उसमें संकीर्णता या कट्टरता नहीं है। उन्होंने देश के लोगों को भी जगाया, सेवा का कार्य किया। कराया भी। देश का नाम उजागर किया। वे संन्यासी थे। सदा के लिए नमस्य भी।

स्वामीजी ने भारतीयों को सुखभोग त्यागकर सादा-सीधा जीवन बीताने को कहा। सदा कर्म-तत्पर रहने, निराशा और आलस्य को छोड़ने को उत्साहित किया। सदैव जाग्रत रहने के लिए अपने भाषण में आह्वान किया था। भारत हमारा सिरमौर है। इसे भारतीय को भूलना नहीं चाहिए। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंण्ड जैसे समृद्धिशाली देशों में जाकर भारतीय ज्ञान का दार्शनिक विचारों का अपने वक्तव्य के जरिये प्रचार प्रसार किया।

रामकृष्ण परमहंस के वे उपयुक्त शिष्य थे। आज देश भर में तथा विदेशों में इनकी अनेक संस्थाएँ भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रचार-प्रसार में लगी हैं। देश विदेश में भारत के नाम को रोशन करने वाला संन्यासी और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद ही हैं, जिनका स्मरण आज देश-विदेशों में लोग कर रहे हैं।

देशप्रेमी संन्यासी

हम देखते हैं कि कुछ लोग धन कमाने में जुटे रहते हैं। कुछ भोगने को व्याकुल रहते हैं। कुछ ऐसे हैं जिनको संन्यासी कहते हैं। वे लोग अपनी इच्छा से घरबार छोड़ देते हैं। सुख के साधनों का त्याग कर देते हैं। गरीबी में जीते हैं। संसार को माया का जंजाल समझते हैं। पर आश्चर्य है कि ऐसे लोगों में कुछ अपनी मातृभूमि से बेहद प्यार करते हैं। एक ऐसे संन्यासी थे स्वामी विवेकानन्द। देखने में बहुत सुन्दर। बड़े ज्ञानी और पंडित। सरल, विनयी और मिष्टभाषी। लेकिन प्रचण्ड प्रतिभाशाली।

सालों पहले की बात है। भारत पराधीन था। यहाँ अंग्रेजों का शासन चलता था। 1857 में लोग एक बार कोशिश करके पराजित हो गए थे। निराशा, आलस्य और कर्महीनता में डुबे हुए थे। ऐसे समय स्वामीजी ने अपने देशवासियों को ललकारा।

“मेरे प्यारे देशवासियों! उठो, जागो। जीवन का वरदान स्वतन्त्रता है। उसे प्राप्त करो। गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ! हर भारतीय मेरा भाई है। भारत मेरा जीवन है मेरा प्राण है। भारत के देवता मेरा भरणपोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन का हिंडोला है, मेरे यौवन का आनन्द लोक है और मेरे बुढ़ापे का बैकुंठ है।”

एक बार स्वामीजी अमेरीका गए। वहाँ बड़ी धर्मसभा हो रही थी। उन्होंने बड़ी मर्मस्पर्शी वाणी में भारत के धर्म, आचार-विचार, ऋषि-मुनियों के चिंतन, आध्यात्मिक दृष्टिकोण का महत्व प्रतिपादित किया। अपने सुंदर, सरल, अर्थपूर्ण अंग्रेजी भाषण द्वारा स्वामीजी ने सबके दिलों को अभिभूत कर दिया ।

स्वामीजी एक साल इंग्लैंण्ड में रहे। वहाँ भारत के मालिक अंग्रेज विद्वानों को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित किया। वे भी मान गए कि भारत में गरीबी भले ही हो, लेकिन वह ऊँचे विचारों और चिंतन के धनी है, अगुवा है।

स्वामीजी ने अपने असंख्य अनुयायियों को मानव-सेवा, ज्ञान तथा धर्म-प्रचार में लगाया। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे। उन्हीं के नाम से रामकृष्ण मिशन बनाया विदेश में उनकी अनेक संस्थाएँ जनता की सेवा में डटी हुई हैं। आज भी देश देश-विदेशों में भारत के नाम को रोशन करनेवाला स्वामी जी जैसा दूसरा कोई नहीं दिखाई देता। देश को आजाद करने में, उसे सदा जाग्रत रखने में ऐसे संन्यासियों का बड़ा योगदान रहा।