रविवार, 12 दिसंबर 2021

वीरांगना चेन्नम्मा | VEERANGANA CHENNAMMA

वीरांगना चेन्नम्मा 

VEERANGANA CHENNAMMA


छात्र कर्नाटक की वीर महिला चैन्नम्मा की देशभक्ति का परिचय प्राप्त करते हैं। अंग्रेज़ों की अनेक कोशिशों के बाद भी कित्तूर को चेन्नम्मा ने बचाया। लेकिन चेन्नम्मा के बंदी बन जाने के कारण कित्तूर अंग्रेज़ों के वश में गया। चेन्नम्मा जैसी वीर महिला के कारण कर्नाटक गर्व का अनुभव करता है।

18 वीं शताब्दी में सत्तालोलुप अंग्रेज़ों को नाकों चने चबानेवाली सर्वप्रथम भारतीय वीरांगना चेन्नम्मा थी। चेन्नम्मा का जन्म काकतीय वंश में सन् 1778 में हुआ था। उनके पिता का नाम धूलप्पा देसाई और माता का नाम पद्मावती था। एक तो इकलौती, फिर रूपवती और स्वस्थ। चेन्नम्मा शब्द का अर्थ ही है सुन्दर महिला। उनकी शिक्षा-दीक्षा राजकुल के अनुरूप ही हुई। घुड़सवारी, शस्त्रास्त्रों का अभ्यास, आखेट आदि युद्ध कलाएँ उन्हें अपने वीर पिता से प्राप्त हुई। अपने जंगमगुरु के मार्गदर्शन में उन्होंने उर्दू, मराठी और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया।

कित्तूरु कर्नाटक राज्य के उत्तरी बेलगावी जिले में है। उन दिनों कित्तूर कर्नाटक राज्य के व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र भी था। देश-विदेश के व्यापारी वहाँ के बाज़ारों में हीरे-जवाहरातें खरीदने के लिए आया करते थे। ऐसे समृद्ध राज्य के प्रजावत्सल राजा मल्लसर्ज थे। चेन्नम्मा के माता-पिता ने बड़े हौसले से उनका विवाह राजा मल्लसर्ज के साथ कर दिया।

रानी चेन्नम्मा कित्तूरु के राजमहल में सुख से रहने लगी। उनकी कोख से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम था शिवबसवराज। लेकिन बचपन में ही उसकी मृत्यु हुई। राजा मल्लसर्ज की पहली पत्नी थी रुद्रम्मा। पूना के पटवर्दन ने मल्लसर्ज को चालाकी से बन्दी बना लिया। वहीं उनकी मृत्यु हो गई। मल्लसर्ज की मृत्यु के बाद चेन्नम्मा ने रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज को गद्दी पर बिठाया। शिवलिंग रुद्रसर्ज ने चेन्नम्मा की सलाह को हवा में उड़ाकर चाटुकारों से गहरी मित्रता कर ली, जिससे कित्तूर का पतन शुरू हुआ।

राजा शिवलिंग रुद्रसर्ज की मृत्यु 11 सितंबर 1824 को हुई। इसे अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य को हड़पने का बड़ा अच्छा अवसर समझा। राजा निःसन्तान मरा था। उसने अपने एक संबधी गुरुलिंग मल्लसर्ज को गोद लिया था। लेकिन अंग्रेज़ गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं मानते थे। उस समय डालहौसी गवरनर जनरल थे। ऐसे अवसर पर रानी चेन्नम्मा ने कित्तूरु राज्य को सँभालकर रक्षा करने की कसम खाई।

कित्तूरु राज्य में अंग्रेज़ी सैनिकों के प्रवेश से रानी चेन्नम्मा का रक्त खौल उठा, लेकिन उस समय वे कुछ नहीं कर सकीं। अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए उन्होंने भीतर ही भीतर तैयारी आरंभ कर दी। अंग्रेज़ी प्रतिनिधी थैकरे ने रानी चेन्नम्मा को भाँति-भाँति के सन्देश भेजे। मगर रानी अपनी स्वाधीनता का सौदा करने पर राज़ी न हुई। इसी समय थैकरे को कित्तूरु राज्य के येल्लप्पशेट्टी और वेंकटराव नामक देशद्रोही मिल गये। वे कित्तूरु का नमक खाकर कित्तूरु की जड़ खोदने में लगे हुए थे। थैकरे ने उन्हें कित्तूरु का आधा-आधा राज्य सौंप देने की लालच दिखायी। बदले में वे कित्तूरु के सभी भेद खोलने और भरसक सहायता करने को तैयार हो गये। दोनों ने कित्तूरु का शासनभार संभालने का परवाना लेकर चेन्नम्मा को दिया। उसे पढ़ते ही चेन्नम्मा ने थैकरे का पत्र टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा "हमने गोद लेकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं रचा है। गोद लेना हमारा अधिकार है, इसे थैकरे नहीं रोक सकता। हमारे घरेलू मामलों में बोलनेवाला वह है ही कौन? कित्तूर स्वतंत्र राज्य है और तब तक रहेगा जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं।" यह फटकार सुनते ही दोनों देशद्रोही अपना-सा मुँह लेकर चले गये। कित्तूरु में गुरुसिद्धप्पा जैसे कुशल दीवान और वालण्णा, रायण्णा, गजवीर और चेन्नवसप्पा जैसे वीर योद्धा भी थे, जिनके रहते कित्तूरु के लिए कोई खतरा न था।

कित्तूरु की जनता अंग्रेज़ों की चाल से भली-भांति परिचित थी। थैकरे स्वयं बड़ी सेना लेकर कित्तूरु आ पहुँचा। किंतु रानी उससे नहीं डरीं। थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूरु के किले पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी। रानी ने वीर सैनिकों को युद्ध के लिए ललकारते हुए कहा - “मातृभूमि के सपूतो! अपने प्राणों की बाजी लगाकर हम अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हैं। अंग्रेज़ इसे हमसे बलपूर्वक छीनना चाहते हैं, लेकिन इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? यह हमें अपने पूर्वजों से मिली है।

उधर थैकरे ने घमकी दी कि, "बीस मिनट में आत्मसमर्पण कर दिया जाय, नहीं तो किला तहस-नहस कर दिया जाएगा।” कुछ समय बाद मर्दानी वेश में रानी चेन्नम्मा शेरनी की भाँति अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी। उनके पीछे दो हज़ार योद्धा थे। भयानक युद्ध हुआ। अंग्रेज़ों की सेना इस प्रवाह को सह न सकी। वह भाग खड़ी और थैकरे मारा गया । देशद्रोहियों का काम तमाम कर दिया गया। बंदी गोरे अंग्रेज़ अफसरों के साथ उदारता का व्यवहार किया गया और उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन यह विजय बहुत दिनों तक न रही।

कुछ ही समय के बाद अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य पर फिर आक्रमण किया। अब अंग्रेज़ी सेना अधिक थी। लेकिन कित्तूरु के वीर सैनिकों के सम्मुख उसे माननी पड़ी। फिर एक बार अंग्रेज़ों ने सारी शक्ति लगाकर घेरा डाला। इस युद्ध दुबारा हार में रणचण्डी चेन्नम्मा बंदी बना ली गईं। अंग्रेज़ों ने कित्तूरु को लूटा। वहाँ कुछ भी न बचा। चेन्नम्मा को बैलहोंगला के दुर्ग में कारागार में डाल दिया गया। बंदीगृह में ही 2 फरवरी 1829 को चेन्नम्मा की जीवन ज्योति सदा के लिए बुझ गई।

यह कर्नाटक जनता के लिए गर्व की बात है कि कर्नाटक की वीरांगना चेन्नम्मा ने पहली बार स्वतंत्रता की जो चिनगारी डाली थी, बाद में वह सारे भारत में फैल गई।